बाग में गाजी मियां की सोहबत से पड़ा था प्रयागराज के सोहबतियाबाग मोहल्ले का यह नाम

गाजी मियां ने अमरूद की बाग के बीच बनी अपनी कुटिया में अंतिम सांस ली थी। तब सभी धर्म के लोगों ने मिलकर उन्हेंं वहीं पर दफना दिया था। आज उस स्थान को गाजी मियां के रौजा के नाम से जाना जाता है।

By Ankur TripathiEdited By: Publish:Thu, 26 Nov 2020 08:27 PM (IST) Updated:Thu, 26 Nov 2020 08:27 PM (IST)
बाग में गाजी मियां की सोहबत से पड़ा था प्रयागराज के सोहबतियाबाग मोहल्ले का यह नाम
आपको बताते हैैं कि इस मोहल्ले का नाम सोहबतियाबाग कैसे पड़ा।

प्रयागराज, जेएनएन। शहर में एक मोहल्ला है सोहबतियाबाग, जो भरद्वाज आश्रम से संगम की ओर तीन किलोमीटर बढऩे पर पड़ता है। आपको बताते हैैं कि इस मोहल्ले का नाम सोहबतियाबाग कैसे पड़ा। जीटी रोड के दोनों ओर आबाद इस मोहल्ले में एक समय अमरूद और बेर के बाग के अलावा गड़ही व तालाब हुआ करते थे। यहीं पर अमरूद की बाग में मुस्लिम मतावलंबी गाजी मियां की कुटी थी। उनकी सोहबत (सानिध्य) में हर धर्म के लोग थे। इसी कुटिया में वे सबसे मिलते थे, उनके दुख दर्द भी दूर किया करते थे। इसी के चलते इस स्थान का नाम सोहबतियाबाग पड़ गया।

शिया मुसलमानों का था आश्रय स्थल

मुस्लिम धर्म के जानकार सैय्यद मोहम्मद जावेद बताते हैं कि 16वीं शताब्दी में जब मुगल शासक अकबर ने प्रयागराज में ऊंची भूमि पर किले से कुछ दूरी पर पश्चिम दिशा में नया शहर बसाया, तभी सोहबतियाबाग प्रकाश में आया। तब यहां अमरूद और बेर की बाग थी। उस दौर में यह क्षेत्र शिया मुसलमानों का प्रमुख आश्रय स्थल था।

आज भी मोहल्ले में है गाजी मियां का रौजा

गाजी मियां ने अमरूद की बाग के बीच बनी अपनी कुटिया में अंतिम सांस ली थी। तब सभी धर्म के लोगों ने मिलकर उन्हेंं वहीं पर दफना दिया था। आज उस स्थान को गाजी मियां के रौजा के नाम से जाना जाता है जो भरद्वाज मुनि आश्रम से संगम जाते समय पहला रेलवे डॉट पुल पार करने पर सड़क के दाहिनी ओर मौजूद है।

मजार पर मत्था टेकने आते हैं सभी धर्मों के लोग

मजार पर आज भी हर धर्म के मानने वाले लोग मत्था टेकने आते हैं। हिंदू और मुस्लिम धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा होती है। पूर्व पार्षद शिवसेवक सिंह का कहना है कि रविवार को यहां मेला लगता है। मन्नत मांगने और मत्था टेकने के लिए भीड़ उमड़ती है।  

धीरे-धीरे पट गए तालाब, कट गई बाग, तन गई बिल्डिंगें

इस मोहल्ले के निवासी कमलेश सिंह बताते हैं कि 1960-65 तक यहां पर बड़े तालाब और रेलवे लाइन से सटी हुई गड़ही थी, जिसे धीरे-धीरे लोगों ने पाट लिया। इसके बाद देखते ही देखते भवन खड़े हो गए। यहां मोहल्ले के बीच में काफी बड़ा तालाब था, जिसमें सिंघाड़ा बोया जाता था। उसके चारो तरफ ताड़ के पेड़ थे जिनसे ताड़ी उतारी जाती थी। अमरूद व बेर की बाग तो अंग्रेजों के जमाने में ही कट गई थी।

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