Birth Anniversary: कोच के तौर पर बहुत धुनी थे दद्दा, स्‍पीड के साथ स्किल और स्‍टेमिना था मूल मंत्र

क्रिकेट में सर डान ब्रैडमैन फुटबाल में पेले और मुक्केबाजी में मुहम्मद अली का जो रुतबा मान-सम्मान है वही मेजर ध्यानचंद का भी होना चाहिए। जिस हस्ती को 1956 में देश के प्रथम राष्ट्रपति के हाथों पद्मभूषण मिल गया हो वह अभी तक भारत रत्न के इंतजार में है।

By Ankur TripathiEdited By: Publish:Sun, 29 Aug 2021 03:23 PM (IST) Updated:Sun, 29 Aug 2021 03:56 PM (IST)
Birth Anniversary: कोच के तौर पर बहुत धुनी थे दद्दा, स्‍पीड के साथ स्किल और स्‍टेमिना था मूल मंत्र
हाकी के इस जादूगर को आज तक उसका असली हक न दे सका देश।

प्रयागराज, जेएनएन। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में 1905 में जन्मे और झांसी में पले-बढ़े मेजर ध्यानचंद सिंह की हाकी विदेश में जहां-जहां घूमी, लोग उनके मुरीद हो गए, मगर सच यह भी है कि हाकी के इस जादूगर को आज तक उसका असली हक न दे सका देश। आज उनकी जन्मतिथि पर महेश शुक्ल का आलेख...

आस्ट्रिया की राजधानी में लगी है मूर्ति

यूरोप के देश आस्ट्रिया की राजधानी विएना के स्पोर्ट्स क्लब में एक इंसान की चार हाथ वाली मूर्ति लगी है और हर हाथ में हाकी स्टिक है। उससे भी अधिक अद्भुत बात यह है कि यह आस्ट्रिया का हाकी खिलाड़ी नहीं है, यह मूर्ति है भारत के महान सपूत मेजर ध्यानचंद सिंह की। हाकी में उनकी जादूगरी को सलाम करती है यह मूर्ति। अब क्रिकेट के महानतम बल्लेबाज सर डान ब्रैडमैन को भी सुन लीजिए। मेजर ध्यानचंद का मैच देखने के बाद दांतों तले अंगुली दबा लेने वाले ब्रैडमैन ने कहा था, ‘जैसे हम क्रिकेट में रन बनाते हैं, वैसे ध्यानचंद हाकी में गोल करते हैं।’ तीसरा वाकया। जिस तानाशाह का उस समय विश्व में दबदबा था, खौफ था, वह एडोल्फ हिटलर अपने ताकतवर देश जर्मनी की हाकी टीम को भारत के हाथों बुरी तरह पिटते देखने के बावजूद मेजर ध्यानचंद के खेल का मुरीद हो गया। हिटलर ने जर्मनी के लिए खेलने पर ध्यानचंद को कर्नल बनाने का प्रस्ताव तक दिया था, जिसे उन्होंने सहजता से ठुकरा दिया था।

अनगिनत किस्से हैं उनके मुरीदों के

भारतीय सेना ने कैसे ध्यानचंद को सम्मान दिया, जरा यह भी देख लीजिए। 16 साल के युवा को बेहद योग्य मेजर ध्यानचंद बनाने वाले सेना के सूबेदार मेजर तिवारी थे। 1922 में सेना में आए ध्यानचंद 1927 में लांस नायक, 1932 में नायक, 1937 सूबेदार, 1943 मेंं लेफ्टिनेंट, 1948 में कप्तान और बाद में मेजर बना दिए गए। मेजर साहब के अप्रतिम खेल कौशल को पूरी दुनिया द्वारा सलाम करने के वाकये अनगिनत हैं। विदेश में मेजर ध्यानचंद का मान-सम्मान खूब किया जाता था, लेकिन अभी दद्दा के नाम से प्रसिद्ध इस हाकी के जादूगर को भारत रत्न दिया जाना बाकी है। यह वह समय था, जब देश में सबसे लोकप्रिय खेल होने के बावजूद भारतीय हाकी महासंघ (आइएचएफ) के पास पैसे नहीं होते थे।

तब गांधी जी ने पूछा था, ये हाकी क्या होती है

वर्ष 1932 में हुए ओलिंपिक खेलों में शामिल होने के लिए पैसों का इंतजाम नहीं हो पा रहा था। इसलिए आइएचएफ ने महात्मा गांधी से मदद मांगने की सोची। महासंघ का मानना था कि बापू अगर अपील कर देंगे तो देश में हाकी टीम की मदद के लिए सैकड़ों लोग खड़े हो जाएंगे। गांधी जी उस समय शिमला में लार्ड इरविन से बातचीत कर रहे थे। आइएचएफ ने वरिष्ठ पत्रकार चाल्र्स न्यूमन को उनके पास भेजा। गांधी जी ने न्यूमन से ही पूछ लिया कि यह हाकी क्या होती है। ऐसा नहीं है कि महात्मा गांधी को खेलों में रुचि नहीं थी। न्यू यार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, गांधी जी को फुटबाल बहुत पसंद था। कहा जाता है कि दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने इंडियन फुटबाल एसोसिएशन की मदद की थी। बस हाकी और दद्दा को शायद पहचान नहीं सके। हाकी महासंघ समझ गया कि मदद की आस बेकार है। जबकि 1928 में टीम चंदा करके ओलिंपिक एम्सटर्डम खेलने गई और सोना लेकर लौटी थी। फिर भी वही हाल था। आखिरकार हाकी महासंघ ने बैंक से कर्ज लिया और टीम ओलिंपिक खेलने लास एंजिल्स गई, स्वर्ण जीता और देश को खुश होने का मौका दिया। हालांकि वहां से लौटने का टिकट नहीं हो पाया था, जिस कारण टीम को यूरोप में मैच खेलकर पैसे जुटाने पड़े ताकि वापसी का टिकट खरीद सकें।

इस चमत्‍कारी खिलाड़ी का सही मायने में सम्‍मान नहीं कर सके

आज हम ओलिंपिक में हाकी के स्वर्णिम काल को याद कर प्रफुल्लित और गौरवान्वित होते हैं, लेकिन उस काल के महानायक को अब तक भारत रत्न नहीं मान पाए हैं। 29 अगस्त को हम मेजर ध्यानचंद की जयंती पर खेल दिवस तो मनाते हैं, लेकिन भारत के माथे पर अपने बूते तीन ओलिंपिक स्वर्ण पदक (1928, 1932 और 1936) से तिलक लगाने वाले इस चमत्कारी खिलाड़ी का न सही मायने में सम्मान कर सके, न वह स्थान दे सके जो उन्हें मिलना चाहिए था।

अब तक भारत रत्न नहीं मिलना है अखरता

क्रिकेट में सर डान ब्रैडमैन, फुटबाल में पेले और मुक्केबाजी में मुहम्मद अली का जो रुतबा, मान-सम्मान है, वही मेजर ध्यानचंद का भी होना चाहिए। यह बात सालती है कि जिस हस्ती को 1956 में देश के प्रथम राष्ट्रपति के हाथों पद्मभूषण मिल गया हो, वह अभी तक भारत रत्न के इंतजार में है। जिनके बारे में देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा हो कि अपने सीने पर लटक रहे मेडल में एक मुझे दे दें तो मैं भी गर्व का अनुभव कर सकूं, उन्हीं मेजर ध्यानचंद को तब की सरकारों ने भारत रत्न नहीं दिया। यह दौर बाद में भी चला। मनमोहन सरकार ने 2011 में 82 सांसदों की मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग ठुकरा दी थी। सचिन तेंदुलकर को 16 नवंबर, 2013 में क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद उसी मनमोहन सरकार ने महज 24 घंटे में मानदंड बदलकर भारत रत्न देने की औपचारिकता पूरी कर ली थी। दद्दा आज तक अपनी हाकी स्टिक के साथ इंतजार कर रहे हैं।

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