अपने लिए नहीं अपनों के लिए जीने वाला ही श्रेष्ठ
मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसकी श्रेष्ठता इसीलिए है क्योंकि वह निस्वार्थ सेवा करता है। अपनों के लिए जीने वाला ही श्रेष्ठ
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संस्कारशाला:
मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसकी श्रेष्ठता इसीलिए है क्योंकि वह सभी प्राणियों की नि:स्वार्थ सेवा करता है। केवल अपना पेट भरने के लिए जो काम करता है, वह तो पशु की श्रेणी में आता है। ऐसा मनुष्य समुदाय का हित चिंतन नहीं कर पाता। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही लिखा है कि यही पशु प्रवृत्ति है कि आप, आप ही चरे। वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सच्चाई तो यह है कि सृष्टि के अन्य प्राणी अपनी विवशताओं के कारण एक- दूसरे की अपेक्षित सहायता नहीं कर पाते। ईश्वर ने मनुष्य की रचना इस उद्देश्य से की है कि वह समाज के साथ ही साथ पशु-पक्षियों समेत अन्य चैतन्य प्राणियों की भी सहायता करे। उसे हमेशा यह विचार करना चाहिए कि उसने समाज और मानवता के लिए अब तक क्या किया है। अपने किसी लाभ की परवाह किए बिना जब हम किसी की सहायता करते हैं, उसे नि:स्वार्थ सहायता माना जाता है। यह निस्वार्थ सहायता स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, युवा, तरुण सभी कर सकते हैं। सभी धर्मो में निस्वार्थ सेवा को सर्वोपरि माना गया है। विभिन्न धाíमक संस्थाएं अपने अस्पताल, लंगर और विद्यालय आदि मनुष्य समाज की सेवा करने के लिए बड़ी संख्या में संचालित कर रहे हैं। स्वार्थी मनुष्य को समाज में कोई भी सम्मान नहीं देता है। समाज में सम्मानित वही होता है जो संपूर्ण समाज की सेवा का व्रत लेता है। महामना मदन मोहन मालवीय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, दीनबंधु एंड्रयूज, वीर सावरकर, स्वामी दयानंद सरस्वती, संत रविदास आदि शकराचार्य ने निस्वार्थ भाव से संपूर्ण मानवता की सेवा की। निस्वार्थपरक होने के कारण ही इन महापुरुषों का आज भी सम्मान किया जाता है।
भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म में स्वहित से बड़ा परहित माना गया है। तुलसीदास ने लिखा है कि परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। शिवि दधीचि और रंतिदेव की प्रसिद्धि उनकी निस्वार्थपरकता के कारण ही हुई। ऐसे महान व्यक्तित्व मानवता के लिए हमेशा पथ-प्रदर्शक बने रहेंगे।
उपनिषदों में एक सुंदर कथानक प्राप्त होता है। देवासुर संग्राम में जब देवता पराजित हो गए तब उन्होंने सहायता के लिए ब्रह्मा जी का दरवाजा खटखटाया। युद्ध में देवताओं की पराजय का मूल कारण ब्रह्मा जी ने तुरंत समझ लिया। उनके ध्यान में यह विषय आ गया कि यह देवता अपने को अलग-अलग शक्तिशाली समझ कर युद्ध करते हैं और असुरों की संगठित शक्ति के सामने पराजित हो जाते हैं। देवताओं में एक-दूसरे की निस्वार्थ सेवा करने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई है। इसे जागृत करने के लिए उन्होंने एक प्रयोजन किया। ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा कि इस समस्या पर विचार करने के पूर्व सभी लोग मिलकर पहले जलपान कर लें। फिर बैठकर विचार किया जाएगा। सभी देवताओं को अगल-बगल मंडल में बैठाया गया। उनके सामने स्वादिष्ट जलपान की थालिया सजा कर रख दी गईं पर एक शर्त लगा दी गई । सभी देवताओं के हाथ की कोहनी को एक छोटी लकड़ी रखकर बाध दिया गया। हाथ बंध जाने से देवताओं का हाथ सीधा हो गया जो मुंह की ओर मुड़ ही नहीं पा रहा था। जलपान की सारी सामग्री उनके सामने सजी हुई रखी थी और कोई भी जलपान ग्रहण नहीं कर पा रहा था। देवता समझ नहीं पा रहे थे कि हाथ बंधने के बाद फिर वे जलपान कैसे करें। इसी दौरान देवताओं के गुरु बृहस्पति के मन में विचार आया कि अपने सामने रखें प्लेट का लड्डू वे स्वयं नहीं खा पा रहे हैं। लेकिन, उसे उठाकर वे अपने बगल वाले देवता शुक्र के मुंह तक तो उसे पहुंचा ही सकते हैं। उन्होंने ऐसा ही किया। देखते ही देखते सभी ने अपने-अपने पड़ोसी को लड्डू खिलाया। इस तरह सभी देवताओं ने जलपान ग्रहण किया। इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन्हें समझाया कि जब तक वह केवल अपनी चिंता करेंगे और अपने दूसरे साथियों के हितों का ध्यान नहीं रखेंगे, तब तक वे युद्ध में विजय नहीं प्राप्त कर सकते। जलपान का यह कार्यक्रम यही सीख देने के लिए आयोजित किया गया था। जीवन रूपी संग्राम में जीतने के लिए मनुष्य को भी अपने हित चिंतन से ऊपर उठकर अपनों का हित चिंतन करना होगा, तभी संपूर्ण मानव समाज का कल्याण हो सकता है।
- डॉ. मुरार त्रिपाठी, प्रधानाचार्य, सर्वार्य इंटर कॉलेज