प्रयाग में आचार्य विनोद से बने थे स्वामी प्रणवानंद, जन्म से लेकर दीक्षित होने तक में था माघी पूर्णिमा का अद्भुत संयोग

व्रतशील बताते हैं कि स्वामी गंभीरनाथ से दीक्षा-प्राप्ति के उपरांत जब स्वामी प्रणवानंद काशी में साधना कर रहे थे तभी उन्हेंं अपने पिता के गोलोकवासी का दुखद समाचार मिला। तब पिता के पिंडदान के लिए वे गया तीर्थ गए। पर वहां की अव्यवस्था से उनका मन दुखित हो उठा।

By Rajneesh MishraEdited By: Publish:Fri, 26 Feb 2021 07:16 PM (IST) Updated:Fri, 26 Feb 2021 07:16 PM (IST)
प्रयाग में आचार्य विनोद से बने थे स्वामी प्रणवानंद, जन्म से लेकर दीक्षित होने तक में था माघी पूर्णिमा का अद्भुत संयोग
स्वामी प्रणवानंद जी महाराज ने भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना भी माघी पूर्णिमा के दिन ही की थी।


प्रयागराज, जेएनएन। प्रयागराज को यूं ही नहीं धर्म कर्म की धरा कहा जाता है। यहां आकर कई सामान्य लोग महान विभूति बन गए। जिन्होंने आगे चलकर देश दुनिया को एक नई राह दिखाई। इन्हीं में से एक थे स्वामी प्रणवानंद जी महाराज। इन्होंने भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना की थी। स्वामी प्रणवानंद प्रयाग में आचार्य विनोद के रूप में आए थे। संगम तट पर माघी पूर्णिमा के दिन उनके गुरु स्वामी गोविंदानंद गिरी ने उन्हें दीक्षित किया और नया नाम प्रणवानंद दिया था। उनके जीवन में माघी पूर्णिमा का दिन अहम रहा है। उनका जन्म माघी पूर्णिमा के दिन हुआ था। दीक्षित भी इसी दिन हुए और भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना भी माघी पूर्णिमा के दिन ही की थी।  

ग्रामवासी बुधाई नाम से बुलाते थे
साहित्यसेवी व्रतशील शर्मा बताते हैं कि स्वामी प्रणवानंद का जन्म बुधवार माघी पूर्णिमा के दिन 29 जनवरी 1896 को बंग-भूमि के फरीदपुर जनपद के वाजितपुर गांव में हुआ था। फरीदपुर वर्तमान में बांग्लादेश में मदारीपुर जनपद के नाम से जाना जाता है। बुधवार के दिन जन्म होने के कारण  ग्रामवासी उन्हेंं स्नेह से 'बुधाई' नाम से पुकारते थे। अन्नप्राशन के बाद घरवालों न उनका नाम 'विनोद' रख दिया। हालांकि उनकी साधुवृत्ति को देखकर बहुत से लोग उन्हेंं 'साधु' नाम से भी  पुकारते थे।



माघी पूर्णिमा के दिन ही प्राप्ति हुई थी योग सिद्धि
व्रतशील बताते हैं कि 1916 में वाजितपुर ग्राम की श्मशान-भूमि पर स्वामी प्रणवानंद को कदंब वृक्ष के सानिध्य में साधनारत रहते हुए योग सिद्धि की प्राप्ति हुई थी। इस दिन भी माघी पूर्णिमा थी। योग-सिद्धि की प्राप्ति होते ही उनके मुख से नवजागरणरूपी यह सूत्र स्वत: ही प्रस्फुटित हुए थे- 'यह युग महाजागरण का है, यह युग है महामिलन का, यह युग है महासमन्वय तथा महामुक्ति का।' जन-जागरण एवं नव-जागरण के इन मंत्र-सूत्रों को चरितार्थ करने के लिए स्वामी प्रणवानंद एक व्रती-तपस्वी के रूप में समर्पित हो गए थे।

1924 में प्रयागराज के अद्र्ध कुंभ में गुरु से हुए थे दीक्षित, मिला था नया नाम
साहित्यसेवी व्रतशील शर्मा बताते हैं कि स्वामी प्रणवानंद 97 वर्ष पूर्व 1924 में प्रयाग पधारे थे। वे यहां आचार्य विनोद के रूप में आए थे। तब प्रयाग में अद्र्ध कुंभ पड़ा था। अद्र्ध कुंभ में माघी पूर्णिमा के दिन स्वामी गोविंदानंद गिरि जी महाराज ने नवयुवक आचार्य विनोद को संन्यास की दीक्षा दी। उन्होंने आचार्य विनोद को दीक्षित कर  नया नाम स्वामी प्रणवानंद दिया।

जीवन में जुड़े हैं कई दुर्लभ संयोग, की थी भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना
व्रतशील बताते हैं कि स्वामी प्रणवानंद विलक्षण प्रतिभा संपन्न युगपुरुष थे। उनके जीवन-दर्शन के साथ अनेक दुर्लभ संयोग जुड़े रहे। उन्होंने 1917 में वाजितपुर में माघी पूॢणमा के ही दिन भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना की थी। उन्हेंं युग-संतों का प्रेरक सानिध्य प्राप्त हुआ। उन्हेंं 1913 में एकादशी पर गुरु गोरखनाथ की साधना-स्थली गोरक्षपीठ में योगिराज  स्वामी गंभीरनाथ से दीक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने तपस्वी जीवन और अपने चिंतन-मनन को अक्षरश: मानव-सेवा में ही समॢपत कर दिया।

बिहार के गया में की थी साधना
व्रतशील बताते हैं कि स्वामी गंभीरनाथ से दीक्षा-प्राप्ति के उपरांत जब स्वामी प्रणवानंद काशी में साधना कर रहे थे, तभी उन्हेंं अपने पिता के गोलोकवासी का दु:खद समाचार मिला। तब पिता के पिंडदान के लिए वे गया तीर्थ गए। पर वहां की अव्यवस्था से उनका मन दुखित हो उठा। तब उन्होंने गया के कपिलधारा तीर्थ की उस गुफा में साधना की, जहां पहले उनके दीक्षा-गुरु स्वामी गंभीरनाथ तपस्या कर चुके थे। उसी समय उनके मन में तीर्थ-स्थानों पर आवश्यक  सुविधाएं सुलभ कराए जाने का विचार आया। गया तीर्थ में ही उन्होंने इस कार्य को करने का संकल्प लिया। उन्होंने यहीं से अपनी भारत सेवाश्रम संघ संस्था को विस्तार देना शुरू किया।

किराए के मकान में शुरू किया था संस्था का कार्यालय
व्रतशील शर्मा बताते हैं कि स्वामी प्रणवानंद ने भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना अपनी जन्म-स्थली वाजितपुर में 1917 में की थी।  बाद में गया में 1924, काशी तथा पुरी में 1926 एवं  प्रयागराज में 1930 के कुंभ पर्व की थी। कोलकाता के बालीगंज में 1933 में स्थापित भारत सेवाश्रम संघ की शाखाओं की स्थापना स्वयं स्वामी प्रणवानंद ने की थी। उन्होंने किराए के भवनों में उक्त शाखाओं की स्थापना करायी थी । बाद में उनके संकल्प के प्रति जन-चेतना का विस्तार हुआ और आज ना केवल भारत, अपितु विश्व के विभिन्न स्थानों पर भारत सेवाश्रम संघ की शाखाएं और उनके साधु,संत-सेवकगण पूरे मनोयोग से लोगों की सेवा में लगे हुए हैं। स्वामी प्रणवानंद ने गोस्वामी जी के द्वारा बताए गए संत-भाव को हृदयंगम कर उसके अनुरूप कार्य-व्यवहार कर उसे साकार सिद्ध किया।

भारत सेवाश्रम संघ के सेवा-प्रकल्प

1. संन्यासी-संगठन
2. धर्म-प्रचार
 3. भारतीय संस्कृति का प्रचार
 4. तीर्थ-स्थान
5. शिक्षा-प्रसार
 6. जन-सेवा
7. समाज-संगठन
 8. हिन्दू-रक्षकदल-गठन
 9. आदिवासी-संगठन
10.साहित्य-प्रचार

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