बाल दिवस पर पढि़ए साहित्यकार डॉ श्लेष गौतम की खास व्यंग्यात्मक 'गोली' Prayagraj News
प्रयागराज के कवि/साहित्यकार डॉ श्लेष गौतम ने बाल दिवस पर अपने बचपन को खास व्यंग्यात्मक अंदाज में याद करते हुए अपने बचपने में खो गए। उन्होंने बताया कि कैसे बाल दिवस के दिन गोली खेलते हुए पकड़े जाने पर उस दिन क्या हुआ था।
प्रयागराज, जेएनएन। अब जब 40 प्लस की स्थति है तो बाल दिवस की और भी ज़्यादा याद आती है। इसलिए भी कि गली-मोहल्लों में खेलते हुए जो वो बचपना बीता एक तो उसकी रिक्तता महसूस होती है इस इंटरनेट-आभासी दौर में दूसरा अब जब सर के ऊपर 'नो बाल' की स्थिति है तो 'बाल' के बचपन के अर्थ के साथ-साथ वह घने-घने बाल भी याद आते हैं और क्या उपयोगिता थी साहब उन बालों की,अहा-अद्भुत। वह हमारे सर के बाल ही हुआ करते थे जो उस समय बचपन में अपनी गलतियों, शरारतों,भूल-चूकों,मूर्खताओं और पिताजी लोगों के आदेश की नाफरमानी पर होल्डर और लगाम की तरह पकड़े और खींचे जाते थे,और अक्सर हम बच्चों के गालों और बालों के रंग भी पिताजी के यकायक गुस्से से लाल-पीले होते चेहरे का सामना करते सफेद हो जाते थे,तात्कालिक ब्लैक एंड व्हाइट टीवी की तरह।
बाल दिवस का वह दिन और गोली
बहरहाल हुआ यह कि मैं करीब आठ-नौ साल के आसपास का रहा होऊंगा और वह दिन बाल दिवस का था ख़ूब याद है,एक तरह से हम बच्चों के लिए विशेष दिन और शायद यह भी संविधान और क़ानून में वर्णित प्रावधान और अपवाद की तरह कुछ छूट और विशेष लाभ जैसा एहसास कराता था,और हां यह वह दौर था जब पतंग,गुल्ली-डंडा,कबड्डी,गुड्डा- गुड़िया,चकरी चलाना के साथ-साथ गोली-कंचे खेलने का भी दौर था,और इसके बिना,यह वह मेनू था बचपन का जो ज़िंदगी में सारे स्वाद भर देता था और रंग भर देता था।बहरहाल उसी दिन शाम को पिताजी संभवत: आकाशवाणी से ही लौट रहे थे और उन्होंने मुझे बक़ायदा तीन-चार दोस्तों के साथ मोहल्ले में मगन होकर के गोली-कंचा खेलते हुए देख लिया,मेरा ध्यान तो उधर नहीं था पीछे से आवाज़ आई 'संतोष',बताता चलूं कि घर का मेरा नाम 'संतोष' है। संतोष-संतोष शायद वो तस्दीक कर रहे थे पीछे से,और संभवतः यह मानते हुए कि यह मेरा लड़का ना हो जो इस तरह से गली मोहल्ले में धूल-धक्कड़ में गोली खेल रहा हो और मैं भी शायद इतना मगन था गीता के ज्ञान की तरह की पूरे ध्यान मनोयोग और एकाग्रता के साथ उस समय सिर्फ और सिर्फ अपने गोली जीतने की ओर लक्ष्य किये था।
और जब पिता के हाथों में मेरे बालों का गुच्छा था
ख़ैर तीन-चार आवाज़ो के बाद मैं पलटा और विश्वास करिए बड़ी ठोस जमीन थी मिट्टी की पर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे पैरों के नीचे कुछ बचा ही नहीं है ना जाने मैं कहां गिरता जा रहा हूं,और उधर मुझको देखकर पिताजी का पारा निश्चित रूप से उस समय अगर कहूं तो सातवें आसमान पर पहुंचा होगा।फिर उसके बाद साहब वह 'बाल दिवस' मना मेरा कि पूछिए मत।मेरे पूरे बालों का गुच्छा पिताजी के हाथ में था और बाक़ायदा उसे बंधी बोरी की 'पकड़' की तरह लगभग दबोच-घसीट कर और नचा कर और मुझे तराजू पर पड़े सामान की तरह उठा लिया गया।
पिता जी को कैसे याद दिलाता की आज बाल दिवस
चाचा नेहरू को फिलहाल उस समय याद करना व्यावहारिक तौर पर सही नहीं था क्योंकि वह बचाव में तो आ नहीं सकते थे और तो और आसपास कोई ग़ुलाब का फूल भी नहीं दिख रहा था कि जिसको निशानी के तौर पर दिखा करके, संविधान में वर्णित अपवादों-प्रावधानों की तरह पिताजी को याद दिला सकूं कि आज 14 नवंबर है और चाचा नेहरू बच्चों को बहुत प्यार करते थे।
जब गालों पर गूंजे चांटा और तमाचा जुड़वा भाई
ख़ैर मैं जब तक यह सोचता तब तक मेरे मुंह पर चांटा और तमाचा नाम के दो जुड़वा भाई अपना स्थान बना चुके थे और कोई हस्तरेखा विशेषज्ञ होता तो वह पुष्टि कर देता कि मेरे गालों पर यह उंगलियां सुप्रसिद्ध लेखक कैलाश गौतम जी की है।एक विशेष ज्ञान उस दिन यह प्राप्त हुआ जो मुझे बाद में समझ में आया पिताजी के हाथों पिटते हुए कि मैं जब भागा तो उनके हाथों जो भी गोलियां लगी उसी को उन्होंने मेरी ओर उछाल दिया,फेंक दिया और संभवत यह ऐतिहासिक घटना हो गई कि गोली सिर्फ मारी-चलाई नहीं जाती है, फेंकी-उछाली भी जाती है।बहरहाल यह सब भी हमारे अभिभावकों का स्नेह और उनकी चिंता के कारण होता था और ऐसी मार कबीर के उसी दोहे की तरह है कि जो कच्ची मिट्टी को बक़ायदा अच्छे से ठोंक-पीटकर सही आकार देने के लिए चिंतित है प्रतिबद्ध है।बाल दिवस की अशेष शुभकामनाएं।।