तन-मन की शुद्धि के लिए प्रयागराज में महीने भर होता है गंगा तट पर कल्पवास, एक बार भोजन और चार वक्त करते हैं स्नान
तीर्थराज प्रयाग की धरती पर हर साल लगने वाले माघ मेला और छह वर्ष पर लगने वाले कुंभ मेले में देश विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। तमाम लोग यहां कल्पवास करते हैं। मास पर्यन्त संगम की रेती पर रहकर स्नान-दान और भजन-पूजन में समय बिताते हैं।
प्रयागराज, जेएनएन। तीर्थराज प्रयाग की धरती पर हर साल लगने वाले माघ मेला और छह वर्ष पर लगने वाले कुंभ मेले में देश विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। तमाम लोग यहां कल्पवास करते हैं। मास पर्यन्त संगम की रेती पर रहकर स्नान-दान और भजन-पूजन में समय बिताते हैं। उद्देश्य तन-मन में उपस्थित विकारों को निकालकर खुद को मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर करना है। कल्पवास की यह परंपरा प्रयागराज में सदियों से चली आ रही है।
एक महीने का व्रत पूरे वर्ष मन व शरीर को रखता है उर्जावान
ज्योतिषाचार्य आशुतोष वार्ष्णेय का कहना है कि कल्पवास का जीवन में विशेष महत्व है। कल्पवास से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है, रोग-शोक कल्पवासी के निकट नहीं आते। एक माह तक यह व्रत करने से पूरे वर्ष शरीर उर्जा से भरा रहता है।
संगम तट पर सदियों से चली आ रही कल्पवास की परंपरा
प्रयागराज के संगम तट पर एक माह तक रहकर लोग कल्पवास करते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। कल्पवास संगम तट पर मास पर्यन्त रहकर पूजा, दान-पुण्य करने का विशेष विधान है। कल्पवास वैसे तो पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक करने की परंपरा है किंतु कुछ श्रद्धालु लोग मकर संक्रांति से कुंभ संक्रांति तक कल्पवास करते हैं। कर्मकांड अथवा पूजा में हर कार्य संकल्प के साथ शुरू होता है।
एक समय भोजन, चार बार स्नान और पूजन का है विधान
कल्पवास बहुत ही कठिन व्रत है, इस व्रत का संकल्प लेने वालों को सूर्योदय से पूर्व स्नान और मात्र एक बार भोजन, पुन: मध्यान्ह तथा सायंकाल तीन बार स्नान-पूजन करने का विधान है किंतु अधिकांश कल्पवासी केवल सुबह और शाम को स्नान-पूजन करते हैं। व्रत को एक माह में पूर्ण करते हैं। कल्पवास का अपना एक अलग विधान है। जो लोग बारह वर्ष तक अनवरत कल्पवास करते हैं, वह मोक्ष के भागी होते हैं।
शरीर का आध्यात्मिक चेतना से जुडऩे की है प्रक्रिया
सृष्टि के सृजन से लेकर अब तक 11 कल्प व्यतीत हो चुके हैं और बारहवां कल्प चल रहा है। कल्प का एक अर्थ सृष्टि के साथ जुड़ा है व दूसरा तात्पर्य कायाकल्प से है। कायाकल्प अर्थात शरीर का शधन। इस कल्प को करने का आयुर्वेद शास्त्र में अलग-अलग विधान है। जैसे दुग्ध कल्प जिसमें एक निश्चित समय तक दूध अथवा मट्ठे का सेवन कर शरीर का कायाकल्प किया जाता है और गंगा तट पर रहकर गंगाजल पीकर एक वक्त भोजन, भजन, कीर्तन, सूर्य अर्घय, स्नानादि धार्मिक कृत्यों के समावेश से शरीर का संधान अर्थात शरीर का आध्यात्मिक चेतना से जुडऩे की प्रक्रिया ही कल्पवास की वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
शरीर के भीतर व्याप्त विकारों का संधान ही इस तपस्या का लक्ष्य
गंगा तव दर्शनार्थ मुक्ति यानी गंगा के दर्शन मात्र से ही मोक्ष मिलने की कल्पना सनातन धर्म में की गई है। गोस्वामी तुलसीदास ने दरस परस मुख मजुन पाना हरहिं पाप कह वेदि पुराना कहकर गंगा के महत्व को दर्शाया है। यही कारण है कि पतित पावनी गंगा के तट पर रहकर लोग एक मास पर्यन्त उसके जल का सेवन करते हैं और उत्तरायण सूर्य के सानिध्य में रहते हैं। संतों का दर्शन एवं उपदेश से ज्ञान की प्राप्ति करते हैं। यह एक प्रकार से अपने शरीर के अंदर व्याप्त विकारों को दूर करने के लिए भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से अपने शरीर का कायाकल्प करते हैं। यही कल्पवास का वास्तविक लक्ष्य है।