प्रयागराज के माघ मेला में हर साल संगम में डुबकी लगाने आते थे सम्राट हर्षवर्धन

यहां के तीर्थ पुरोहितों को सम्राट हर्ष के समय में विशेष सम्मान दिया गया। सम्राट हर्षवर्धन का काल 606 ई से 647 ई था। इस दौरान सम्राट हर्षवर्धन माघ माह मेें यहां आते रहे। तीर्थ पुरोहितों को महाराजा हर्ष के समय में विशेष सम्मान मिला था

By Brijesh Kumar SrivastavaEdited By: Publish:Sat, 16 Jan 2021 05:11 PM (IST) Updated:Sat, 16 Jan 2021 05:11 PM (IST)
प्रयागराज के माघ मेला में हर साल संगम में डुबकी लगाने आते थे सम्राट हर्षवर्धन
सम्राट हर्षवर्धन हर साल माघ मेला में आते थे। यहां कुछ दिन रुकते थे और संगम में डुबकी लगाते थे।

प्रयागराज, जेएनएन। प्रयागराज के माघ मेला में प्राचीन काल से ही राजा महाराजा संगम में डुबकी लगाने आते थे। 2019 महाकुंभ में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यहां आए थे और संगम में डुबकी लगाई थी। कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रियों ने भी मेला में भ्रमण किया था और संगम में स्नान किया था। सम्राट हर्षवर्धन हर साल माघ मेला में आते थे। यहां कुछ दिन रुकते थे और संगम में डुबकी लगाते थे। उनके समय से किए जाने वाले कर्मकांड और दान के प्रमाण यहां के तीर्थ पुरोहितों के पास आज भी मिलते हैं।


 तीर्थ  पुरोहितों को मिलता था विशेष सम्मान
तीर्थ पुरोहित प्रकाश शर्मा बताते हैं कि प्राचीन काल से ही संगम तट पर धार्मिक कार्य करने का अधिकार प्रयागवाल यानी पंडों को था। यहां के तीर्थ पुरोहितों को सम्राट हर्ष के समय में विशेष सम्मान दिया गया। सम्राट हर्षवर्धन का काल 606 ई से 647 ई था। इस दौरान सम्राट हर्षवर्धन माघ माह मेें यहां आते रहे। तीर्थ पुरोहितों को महाराजा हर्ष के समय में विशेष सम्मान मिला था। इस संबंध चीनी यात्री ह्ववेनसांग ने भी लिखा है कि महाराज हर्ष माघ मेला में हर साल आते थे। वे अपने पूर्वजों की परंपरा का निर्वाह करने के लिए यहां आकर संगम में डुबकी लगाते थे। साथ ही अपनी प्रतिवर्ष अर्जित संपदा को दान भी करते थे। ज्यादातर धन वह तीर्थ पुरोहितों को ही दान किया करते थे। बाहर से आने वाले पुजारियों को भी वह दान दिया करते थे। इतिहासकार प्रो.योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि महराज हर्ष की इस परंपरा को  पाल, परिहार, गहरवार ने आगे बढ़ाया। प्रतिष्ठानपुर-झूंसी के राजा त्रिलोचन ने 1027 ईसवी में एक तीर्थ पुरोहित को एक गांव दान में दे दिया था। उन्होंने अंग्रेज यात्री स्कोनर द्वारा 1826 में की गई टिप्पणी का उल्लेख करते हुए बताया कि तीर्थ पुरोहित, पंडे तीर्थ यात्रा पर आने वालों के विलक्षण प्रकार के गुरू थे।


ऋषि मुनियों के यहां रुकते थे तीर्थ यात्री
प्रो.तिवारी बताते हैं कि प्राचीन काल में राजा महाराज और उनके परिवार के लोग ही ज्यादातर तीर्थ यात्रा पर निकलते थे। ऐसे में इन तीर्थ पुरोहितों को क्षत्रियों का शिक्षक भी माना जाता था। तब शिक्षक से तात्पर्य राजाओं को तीर्थ के बारे में जानकारी देना था। यह तीर्थ पुरोहित ब्राह्मण हुआ करते थे। हालांकि क्षत्रियों के पुरोहित अब मिश्रकुल परिवार से ही संबंधित हैं। वैसे भी तीर्थ शिक्षक, प्रयागवाल और पंडा एक ही जाति के पर्यायवाची शब्द हैं। प्रो.तिवारी बताते हैं कि जब प्रयागराज घने जंगलों से घिरा रहता था तब ऋषि मुनियों की झोपडिय़ा ही तीर्थ यात्रियों के रहने के लिए प्रमुख स्थान हुआ करती थीं। यात्री मुनियों के प्रसाद पर ही निर्भर रहते थे। हालांकि ऐसी स्थिति आज भी है। ऋषि मुनियों का स्वरूप अब बदल गया है। इनके शिविर अलीशान हो गए हैं। इन शिविरों में अब तीर्थ यात्री रुकते हैं और  प्रसाद ग्रहण करते हैं।


महराज हर्ष संगम क्षेत्र में आयोजित करते थे एक समारोह
इतिहासकार प्रो.अविनाश चंद्र मिश्र सम्राट हर्षवर्धन क्रियाकलापों को अलग तरीके से देखते हैं। वे कहते हैं कि हर्ष के समय संगम क्षेत्र में प्रति पांचवे वर्ष एक समारोह आयोजित होता था। इस समारोह को अहामोक्षपरिषद कहा जाता था। उन्होंने चीनी यात्री ह्ववेनसांग का उल्लेख करते बताया कि चीनी यात्री भी इस समारोह में उपस्थित था। इस समारोह में हर्ष के अधीन 18 देशों के राजा आए थे। साथ ही ब्राह्मणों, साधुओं, अनाथों एवं बौद्ध भिक्षुओं भी शामिल थे। यह आयोजन ढाई माह तक चला। राजा हर्ष ने सूर्य और शिव की पूजा की और गरीबों को खूब दान किया था। हर्ष ने अपने वस्त्रों एवं आभूषणों को भी दान कर दिया था।

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