Balakrishna Bhatt: एक मार्मिक घटना ने प्रयागराज के 13 वर्षीय किशोर को बना दिया महान स्वतंत्रता सेनानी, अंग्रेजों से की नफरत
Balakrishna Bhatt बालकृष्ण भट्ट 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय 13 वर्ष के थे। चौक क्षेत्र में निर्दोष भारतीय देशभक्तों के पेड़ों से लटकते शव को उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। यहीं से उन्हें अंगेजी हुकूमत विरोधी विचार पुख्ता हुए।
प्रयागराज, जेएनएन। प्रयागराज मेंं अंग्रेजों ने देशभक्तों पर काफी जुल्म ढाया था। चौक इलाके में क्रांतिवीरों को पेड़ पर लटका दिया जाता था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बालकृष्ण भट्ट ने 13 वर्ष की अवस्था में देशभक्तों के शवों को पेड़ पर लटकते देखा था। यहीं से उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ नफरत पैदा हो गई। बालकृष्ण भट्ट राजनीतिक नेता नहीं थे। उन्होंने राजनीति में कोई रुचि नहीं दिखाई थी। वे 19वीं शताब्दी की उस जुझारू पीढ़ी के प्रतीक थे, जो विद्या को ही अपना धन समझती थी। अपने आदर्शों के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार रहती थी।
व्यापार में नहीं थी रुचि
इतिहासकार प्रो.जेएन पाल बताते हैं कि बालकृष्ण का जन्म तीन जून 1844 को प्रयागराज के अहियापुर में हुआ था। यह अहियापुर अब मालवीय नगर में है। उनके पूर्वज 16वीं शताब्दी में मालवा की अराजक परिस्थितियों से तंग आकर बुंदेलखंड के ललितपुर जिले के जिटकरी गांव आ गए थे। बालकृष्ण के बाबा का निधन होने पर उनकी दादी अपने दो बेटों के साथ मायके प्रयागराज आ गई थीं। उनके पिता वेणीप्रसाद भट्ट ने प्रयागराज में एक दुकान खोली थी। जो बाद में काफी चलने लगी थी। पर बालकृष्ण की व्यापार में रुचि नहीं थी। उन्होंने घर पर ही संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की और वहीं अध्यापन भी किया।
सीएवी कालेज में भी पढ़ाया
प्रो. पाल बताते हैं कि बालकृष्ण ने 1867 में कुछ समय तक सीएवी कालेज में अध्यापन किया। फिर यहां से इस्तीफा देकर कायस्थ पाठशाला में संस्कृत के शिक्षक हो गए। उनके हेड मास्टर रामानंद चट्टोपाध्याय थे। वे तमाम विषयों के प्रकांड विद्वान थे। बालकृष्ण वाराणसी के प्रख्यात साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र से छह वर्ष बड़े थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जब 1868 में कवि वचनसुधा का प्रकाशन आरंभ किया तो बालकृष्ण उसमें नियमित रूप से लिखने लगे।
गदर के समय मात्र 13 वर्ष के थे बालकृष्ण
प्रो. जेएन पाल बताते हैं कि बालकृष्ण भट्ट 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय 13 वर्ष के थे। चौक क्षेत्र में निर्दोष भारतीय देशभक्तों के पेड़ों से लटकते शव को उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। यहीं से उन्हें अंगेजी हुकूमत विरोधी विचार पुख्ता हुए। उन्होंने आजीवन राष्ट्रीयता तथा बंधुत्व का झंडा लेकर चले और उसकी महंगी कीमत भी चुकाई।