अजनबी की डायरी : कांजी बड़े वाले बाबा और अम्मा
कांजी बड़े वाले बाबा की बात सोशल और प्रिंट मीडिया में उभरी तो सबके जज्बात फूट पड़े। डीएम साहब ने उद्धार कर दिया। रोटी वाली अम्मा की बात वायरल हुई तो डूडावाले स्वनिधि योजना लेकर पहुंच गए। न कागज मांगे न पत्तर सीधे वहीं बैठकर पंजीकरण कर दिया।
आगरा, अजय शुक्ला। कुछ दिनों से गुडी गुडी खबरें आ रही हैं। संवेदना सरेआम छलछला रही है। क्या बात है! सदके जाऊं। कोरोना काल में इस अंग्रेजी वाली सोशल डिस्टेंसिंग ने जिस तरह दूरियां पैदा कीं, उसके बाद अनलॉक युग में संवेदनशीलता के ऐसे नजारे दिखना मन प्रफुल्लित कर जा रहा। कांजी बड़े वाले बाबा की बात सोशल और प्रिंट मीडिया में उभरी तो सबके जज्बात फूट पड़े। डीएम साहब ने उद्धार कर दिया। रोटी वाली अम्मा की बात वायरल हुई तो डूडावाले स्वनिधि योजना लेकर पहुंच गए। बकायदा लैपटॉप लेकर। न कागज मांगे, न पत्तर, सीधे वहीं बैठकर पंजीकरण कर दिया। बोले, ये लो अम्मा, पहुंच गए दस हजार रुपये खाते में। अम्मा खुश। बाबा पहले ही खुश्शम-खुश हैं। अभी पांच रुपये में चाय पिलाने वाली बूढ़ी अम्मा को इंतजार है। देर-सबेर उनकी भी सुधि कोई न कोई ले ही लेगा। तो भई, जस इनके दिन बहुरे, तस सबके दिन बहुरें।
इन सवालों के जवाब?
स्वनिधि योजना तो अभी लांच होने जा रही। लेकिन, कम से कम दर्जनभर सरकारी योजनाएं ऐसी होंगी जो बाबा और अम्मा जैसे लोगों के लिए ही चलायी जा रही हैं। वृद्धावस्था पेंशन से लेकर सरकारी राशन तक। कोई योजना समाज कल्याण विभाग या डूडा (नगरीय विकास अभिकरण) चला रहा होगा, तो कोई महिला एवं बाल विभाग। पटरी दुकानदारों के लिए भी योजनाएं हैं। शहरी गरीबों की आर्थिक सहायता के लिए भी योजनाएं हैं ही। ऐसे में सवाल है कि सरकारी संवेदनशीलता सदा मीडिया आश्रित होकर ही क्यों रह जाती है। क्यों सरकारी कारकूनों (कर्मचारियों) और हाकिमों (अफसरों) की संवेदना शोर मचने से पहले सोती रहती है। कोलाहल से पहले क्यों नहीं संवेदना सचेत होती। बाबा-अम्मा जैसे लोग किसी खोह में तो रहते नहीं, जिन्हें खोजना पड़े। सवाल यह भी है कि जब ये बाबा-अम्मा खुद चलकर दफ्तरों की चौखट तक पहुंचते हैं तो उनके साथ क्या सुलूक (व्यवहार) होता है।
ये सड़कें मुकम्मल क्यों नहीं दिखतीं
सवाल सीधा सा है, जवाब तलाशेंगे तो गोल गोल घूम जाएंगे। महात्मा गांधी मार्ग और ताजमहल-आगरा किला के सीमित दायरे को अपवाद मान लें, तो शहर की कोई सड़क मुकम्मल नजर नहीं आती है। थोड़ी दूर चिकनी सड़क पर चलिए तो तय मानिये कि आगे गड्ढा आपका इंतजार कर रहा होगा। गड्ढा नहीं तो मिट्टी का टीला ही खड़ा होगा, बजरी-गिट्टी की टायरों में चुभती खडख़ड़ाती सड़क होगी। यह भी न मिले तो सड़क उखड़ी मिलेगी। चलिये, सबकुछ दुरुस्त मिला तो सड़क किनारे ही बजबजाता कूड़े का ढेर या मुंह चिढ़ाता जलजमाव मिल जाएगा। एक सड़क को कई-कई महकमे मिलकर बर्बाद कर रहे हैं। किससे शिकायत करें। कहां-कहां जायें, या थकहार कर बैठ जाएं। आफिस आफिस चक्कर लगाने की जहमत भला कितने लोग उठा सकते हैं। आम शहरी को तो अंतिम विकल्प ही सही नजर आता है। नेताजी लोग कुछ करें तो ही बात बने, लेकिन चुनाव अभी दूर हैं।मास्क भी कर रहा म्यूटेट
शहर में स्पेयर पाट्र्स बेचने वाले एक बड़े ठिकाने पर सजगता देख तबीयत खिल उठी। जैसे, कस्टमर को वेलकम ड्रिंक सर्व करते हैं, उसी अंदाज में गेट पर सैनिटाइजर की फुहार से स्वागत हुआ। जिनके पास मास्क नहीं थे, उन्हें दस रुपये में उपलब्ध कराये जा रहे थे। थोड़ा आगे बिल चेक करने वाला कुर्सी डाले बैठा था। ठीक पीछे 'दो गज दूरी बहुत जरूरी' सरीखी चेतावनी और बिना मास्क सामान नहीं देने की धमकी चश्पा थी। फिर जो नजारा दिखा, उसने आंखें खोल दीं। कस्टमर तो ठीक कर्मचारियों में- नाक सबकी खुली थी, किसी का मास्क ठोढ़ी, तो किसी का मुंह भर ढक रहा था। कुछ माला की तरह गले में डाले थे। अधिकतर तो 'नंगे मुंह' ही, जैसे खिल्ली उड़ा रहे हों। टोंका तो एक सहमा, फिर अनदेखी कर अपनी धुन में। मास्क को म्यूटेट (स्वरूप परिवर्तन) करता देख मैंने वायरस के म्यूटेट होने की चिंता छोड़ दी है।