पति की मौत के बाद हालातों से संघर्ष कर बेटे को डॉक्टर और बेटी को बनाया इंजीनियर
मां की इस जग में महिमा अपरंपार है। वह जीवनदायिनी है और वह परिवार के हर सुख-दुख की साथी भी है। सुना भी होगा कि मां खुद गीले में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाती है। हम एक ऐसी ही मां की कहानी से रूबरू करा रहे हैं ।
योगेश शर्मा, हाथरसः मां की इस जग में महिमा अपरंपार है। वह जीवनदायिनी है और वह परिवार के हर सुख-दुख की साथी भी है। सुना भी होगा कि मां खुद गीले में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाती है। हम एक ऐसी ही मां की कहानी से रूबरू करा रहे हैं जिसने खुद संघर्ष करके बच्चों को इस काबिल बना दिया कि मां को ही नहीं पूरे परिवार को उन पर नाज है। मां ने अपने एक बेटे को डाक्टर और बेटी को इंजीनियर बना दिया।
संघर्ष की कहानी, रजनी की जुबानी
हाथरस के खंदारी गढ़ी के त्रिवेदीनगर की रहने वाली 58 वर्षीय रजनी त्रिवेदी बताती हैं कि अब से 26 वर्ष पहले यानी वर्ष 1994 में पति वैद्य राकेश त्रिवेदी की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई थी। तब तीनों बच्चे छोटे थे। इनमें पि्रयंका 08, हिमांशु 06, प्रमदवरा 03 वर्ष की थी। पति की मौत के बाद ससुर रघुवीर त्रिवेदी भी उसी साल चल बसे थे। एक ही साल में दोनों के दुनियां छोड़ जाने के बाद आर्थिक संकट पैदा हो गया था। तीन-तीन बच्चों का पालन पोषण और उनको शिक्षित बनाने की चुनौती सामने थी। सपना देखा था कि बेटा और बेटी पढ़-लिखकर कुछ बन जाएं, इसलिए घर-घर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। तब दो बच्चों को पढ़ाने की एवज में 300 रुपये मिलते थे जो नाकाफी थे। इस कारण कई साल तक किराए पर दुकान पर लेकर दवाओं का काम किया, मगर ये काम ज्यादा दिन चल नहीं सका। इसके बाद परिवार को पालना था सो टीचिंग लाइन को पकड़ लिया था। इस बीच हिमांशु का एडमीशन एएमयू में कक्षा 6 में हो गया। इसके बाद हिमांशु ने एएमयू से ही एमडीएस यानी मास्टर इन डेंटल की डिग्री लेने में 2016 सफलता हासिल कर ली । अब वह अलीगढ़ रोड पर डेंटल क्लीनिक चला रहा है। हिमांशु की पत्नी कृति शर्मा भी डाक्टर है।
बेटे से कम नहीं रही बिटिया
रजनी बताती हैं कि उन्होंने कपड़े सिलाई तक का काम किया और बच्चों को काबिल बनाने की ठान ली और बेटे के साथ बेटी पि्रयंका को इंजीनियर बनाने में पूरा सहयोग किया। अब वह अपनी ससुराल मैसाना गुजरात में है और नौकरी भी करती है। उसने भी ऑटो मोबाइल से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। मुफलिसी के दिनों में हाथरस से वह रोजाना सादाबाद के एक स्कूल में नौकरी करने जाती थीं। तब पगार 1500 रुपये महीने मिलते थे।