भूल गए अब झूले, सावन में अब नहीं दिखता पहले जैसा रंग Aligarh news
एक समय था जब सावन में झूले पड़ जाया करते थे। पेड़ों पर पेंग मारतीं युवतियां सावन के गीत गाया करतीं थीं मगर अब शहर क्या गांवों में भी पेड़ कम दिखाई देते हैं। नए जमाने में लोग ढलते जा रहे हैं इसलिए पेड़ों पर झूले नहीं दिखाई देते हैं।
अलीगढ़, जेएनएन। एक समय था जब सावन में झूले पड़ जाया करते थे। पेड़ों पर पेंग मारतीं युवतियां सावन के गीत गाया करतीं थीं, मगर अब शहर क्या गांवों में भी पेड़ कम दिखाई देते हैं। नए जमाने में लोग ढलते जा रहे हैं, इसलिए पेड़ों पर झूले नहीं दिखाई देते हैं। गांवों में एक-दो जगह ऐसी परंपरा दिखती है।
तीज और त्योहार हमारी संस्कृति के पहचान
तीज और त्योहार हमारी संस्कृति के पहचान हैं, दुनिया में भी लोग भारतीय संस्कृति का सम्मान करते हैं। हमारे यहां कोई ऐसा महीना नहीं, जहां व्रत, तीज-त्योहार न हों। साल के 12 महीनों कोई न कोई तीज-त्योहार होता ही है। मगर, हमारे त्योहारों की डोर कुछ कमजोर होती जा रही है। प्रकृति से जुड़े त्योहारों को जहां हम उत्साह के साथ मनाते थे, अब कम करते जा रहे हैं। इससे प्रमुख कारण तेजी से शहरों का विकास होता जा रहा है। शहरीकरण के चलते हम गांवों की परंपरा को भूलते जा रहे हैं।
सावन आते ही पेड़ों पर पड़ जाते थे झूले
आज से 30 वर्ष पहले सावन आते ही गांवों में पेड़ों पर झूले पड़ जाया करते थे। महिलाएं अपनी सखियों के साथ झूूले पर पेंग मारा करतीं थीं। खासकर जिन युवती की शादी की पहली साल होती थी उन्हें सावन का खास इंतजार रहता था। सावन के महीने में मायके से संदेशा आता था, युवती खुशी से झूम उठती थी। फिर मायके में अपनी सखियों के साथ झूले पर पेंग मारा करतीं थीं। गीत-मल्हार से मन मोहित हो उठता था। चारों ओर हरियाली नजर आती थी। हरियाली तीज पर्व पर तो मानों चारों ओर खुशियां झूम उठती थी। गांव की ओर बढ़ते ही पेड़ों पर झूले दिखाई देते थे। ग्रामीण आराम करते थे। गीतों से मानों पूरा गांव झूम उठता था। मगर, अब धीरे-धीरे परंपराएं समाप्त होती जा रही हैं। पेड़ कट गए, बाग बगीचे दिखते नहीं, गांवों में भी पेड़ों की संख्या कम हो गई, इसलिए अब झूले दिखाई नहीं देते। शहरों में तो शोरगुल ने गीतों को छीन लिया।