अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटीः स्वाधीनता हासिल करने के लिए एएमयू संस्थापक सर सैयद ने बनाई थी पहली सिविल सोसाइटी

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के संबंध में जिन भारतीयों को आरोपित किया गया था और उन्हें कड़ी सजाएं दी जा रही थीं सर सैयद ने उनको रोकने में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीयों का बचाव पक्ष रखा और उनकी संपत्तियों को जब्त होने से भी बचाया था।

By Mukesh ChaturvediEdited By: Publish:Sun, 17 Oct 2021 07:32 AM (IST) Updated:Sun, 17 Oct 2021 11:32 AM (IST)
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटीः  स्वाधीनता हासिल करने के लिए एएमयू संस्थापक सर सैयद ने बनाई थी पहली सिविल सोसाइटी
17 अक्टूबर को एमयू के संस्थापक सर सैयद का जन्म हुआ था।

एम. शाफे किदवई, अलीगढ़ः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय वह संस्था है जिसने कई विलक्षण व्यक्तित्वों को आकार दिया। इस विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान (जन्म 17 अक्टूबर,1817) ने शिक्षा के माध्यम से भारतवासियों के सशक्तीकरण में पुरजोर प्रयास किए। आजादी के महासमर में देश को तमाम राष्ट्रभक्त इस विश्वविद्यालय ने दिए हैं।

हली प्राथमिकता आत्मसम्मान की भावना जागृत करना

उपनिवेशवादी शासन से ग्रस्त देश की पहली प्राथमिकता देशवासियों में आत्मसम्मान की भावना जागृत करना और उन्हें सशक्तीकरण के मार्ग पर अग्रसर करना होता है। इसमें आत्मबोध और शिक्षा की अहम भूमिका होती है और आधुनिक शिक्षा लोगों को उनके अधिकारों और शासकों की दमनकारी नीतियों से अवगत कराती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान इन अहम बिंदुओं का पूरी तरह से आभास कर लिया था और ब्रिटिश हुकूमत की न्यायिक सेवा का सदस्य होने के बावजूद भारत की स्वाधीनता का स्वप्न देखा था। उन्होंने 1858 में अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘असबाब-ए-बगावत-ए-हिंद’ में उपनिवेशवाद के उन्मूलन की बुनियाद रख दी थी और कहा था कि भारतीयों को सत्ता में अवश्य रूप से भागीदार बनाया जाए। साथ ही इसे भी समझा कि परंपरागत शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक शिक्षा के प्रचार प्रसार से देशवासियों में हीन भावना का निदान होता है और उन्हें यह लगने लगता है कि जनता की इच्छा को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता है।

शिक्षा से सशक्तीकरण

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने से पूर्व सर सैयद ने एम.ए.ओ. कालेज का निर्माण शिक्षा के माध्यम से भारतवासियों के सशक्तीकरण के लिए किया था। उनका मानना था कि उत्तेजनात्मक राजनीति के बजाय शिक्षा ही स्वाधीनता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के संबंध में जिन भारतीयों को आरोपित किया गया था और उन्हें कड़ी सजाएं दी जा रही थीं, सर सैयद ने उनको रोकने में अग्रणी भूमिका निभाई और इसी प्रकार जब उन्हें मुरादाबाद में ऐसे आरोपियों की याचिका सुनने के लिए गठित तीन सदस्यीय कमेटी का सदस्य बनाया गया तो उन्होंने दो अंग्रेज सदस्यों के समक्ष भारतीयों का बचाव पक्ष रखा और उनकी संपत्तियों को जब्त होने से भी बचाया था।

कई सपूतों को किया प्रेरित

1857 में एम.ए.ओ. कालेज बनने के बाद सर सैयद ने यूरोपियन साइंस और वहां के राजनीतिक दर्शनशास्त्री जे.एस. मिल का गहराई से अध्ययन किया और मिल की आजादी की धारणा पर अनेक लेख लिखे। उन्होंने कालेज में वाद विवाद के लिए डिबेटिंग सोसाइटी स्थापित की। साइंटिफिक सोसाइटी प्रारंभ की और दो पत्रिकाओं ‘अलीगढ़ इंस्टीटयूट गजट’ और ‘तहजीबुल अखलाक’ प्रकाशित किया और इस प्रकार उन्होंने स्वाधीनता हासिल करने के लिए पहली सिविल सोसाइटी बनाई। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय विश्व की शायद एकमात्र संस्था है, जिसने एक दो नहीं बल्कि एक दर्जन से अधिक ऐसे सपूत पैदा किए जिन्होंने देश की स्वाधीनता की लड़ाई में न सिर्फ बढ़-चढ़कर भाग लिया बल्कि पूरा जीवन समर्पित कर दिया। परंतु स्वाधीनता संग्राम में इस ऐतिहासिक संस्था की भूमिका पर बहुत कुछ नहीं लिखा गया जबकि वास्तविकता यह है कि राजा महेंद्र प्रताप, मौलाना हसरत मोहानी, खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना मोहम्मद अली, मौलाना शौकत अली, जफर अली खान, कैप्टन अब्बास अली आदि ने देश की स्वाधीनता के लिए जिस प्रकार उच्च कोटि के विवेक, प्रबुद्धता, संस्कार और आत्मसमर्पण की अलख जगाई और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शों पर चलते हुए उनके नेतृत्व में त्याग, समर्पण और सेवा के जैसे उदाहरण प्रस्तुत किए, उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलती है।

सांस्कृतिक बहुलवाद के आदर्श

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ही वह संस्था है जिसने राजा महेंद्र प्रताप जैसे विलक्षण व्यक्तित्व को आकार दिया जिन्होंने अंग्रेजों को देश से बाहर करने के लिए संघर्ष शुरू किया। इस संबंध में उन्होंने जर्मनी और कई देशों का दौरा किया। जर्मनी में उन्होंने 1915 में अफगानिस्तान में एक निर्वासित सरकार स्थापित करने का विचार रखा। यह पहली निर्वासित सरकार स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बड़ा अध्याय मानी जाती है। राजा महेंद्र प्रताप को इसका पहला अध्यक्ष और मौलवी बरकतुल्लाह को पहला प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी मौलाना उबैदउल्लाह सिंधी और कई अन्य महत्वपूर्ण नेता इस नवगठित सरकार में शामिल हुए। विभिन्न देशों से समर्थन लेने के लिए कई राजदूतों को भी नियुक्त किया गया था। राजा महेंद्र प्रताप का व्यक्तित्व इस बात का प्रतीक है कि स्वतंत्र भारत का मंतव्य क्या है। उन्होंने जीवनभर बहुलवाद, सहिष्णुता, उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का प्रचार किया। वे सांस्कृतिक बहुलवाद के आदर्श उदाहरण थे। उनका जन्म हिंदू परिवार में हुआ था, मुस्लिम संस्थान में शिक्षा प्राप्त की और सिख महिला से शादी की। वे सांप्रदायिकता और रूढ़िवादिता के कट्टर दुश्मन थे।

आंदोलन के मशालवाहक

खान अब्दुल गफ्फार खान ने मुस्लिम लीग द्वारा देश के विभाजन की मांग का सदैव विरोध किया और जब अंतत: कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया तब वे बहुत निराश हुए और कहा, ‘आप लोगों ने हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया। बादशाह खान ने अंग्रेजों के विरुद्ध लगभग सारे विद्रोहों में भाग लिया। अत: उन्हें लगा कि सामाजिक चेतना के द्वारा ही पश्तूनों में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसके बाद बादशाह खान ने एक के बाद एक कई सामाजिक संगठनों की स्थापना की। नवंबर 1929 में उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ की स्थापना की, जिसकी सफलता ने अंग्रेजी हुकूमत की नींदें उड़ा दीं। मौलाना हसरत मोहानी ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा देने वाले आजादी के सच्चे सिपाही थे। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की, जहां उनके कालेज के साथी मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली आदि भी शिक्षारत थे। मौलाना हसरत मोहानी कृष्ण के परम भक्त थे और उन्होंने कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत खूब शायरी भी कीं। उन्होंने कई बार हज किया और जितनी बार वे हज पर जाते, वापस आकर कृष्ण दर्शन को मथुरा वृंदावन भी जाते थे, क्योंकि उनके मुताबिक उनका हज इसके बिना मुकम्मल नहीं होता था। मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने अखबार ‘कामरेड’ और ‘हमदर्द’ निकाले। वे मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। वे भारत की आजादी और खिलाफत आंदोलन के मशालवाहक व कट्टर समर्थक थे। उन्होंने 1920 में खिलाफत आंदोलन के एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व भी किया। आजादी का परवाना लेने के लिए वह बीमारी की हालत में 1930 में गोल मेज कांफ्रेंस में भाग लेने लंदन पहुंचे, मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने उस समय अपने भाषण में कहा था कि ‘मेरे मुल्क को आजादी दो या मेरी कब्र के लिए दो गज जगह दे दो क्योंकि यहां मैं अपने मुल्क की आजादी लेने आया हूं और उसे लिए बिना वापस नहीं जाऊंगा।’ उनके इस वक्तव्य ने आजादी के मतवालों के अंदर और जोश भर दिया था। इतिहास गवाह है कि उन्होंने अपना वचन पूरा करके दिखा दिया। चार जनवरी 1931 को लंदन में उनका इंतकाल हो गया।

ब्रिटिश सेना छोड़ जुड़े आजाज हिंदी फौज से

इसी प्रकार ‘जमींदार’ अखबार के संस्थापक मौलाना जफर अली खान, जो एम.ए.ओ. कालेज के छात्र थे, ने ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों के विरोध में रोज एक व्यंगात्मक कविता लिखने का सिलसिला प्रारंभ किया। कविता देशभर में पढ़ी जाती थी और उन्हें कई बार जेल भेजा गया। ए.एम.यू. के पूर्व छात्र और प्रसिद्ध समाजवादी नेता कैप्टन अब्बास अली, जिन्होंने ब्रिटिश सेना में शामिल होकर कई दक्षिण एशियाई देशों में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लड़ाई लड़ी, 1941 में मलेशिया में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आह्वान पर आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए। कैप्टन अब्बास अली उन कुछ भारतीयों में शामिल थे, जो ब्रिटिश सेना को छोड़कर भारत की मुक्ति के लिए मलाया में आजाद हिंद फौज में शामिल हुए थे। उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव के लिए लगातार काम किया और समाजवाद का आदर्श उन्हें बहुत प्रिय था।

राष्ट्रीय महत्व की संस्था

हमारी साझा ऐतिहासिक विरासत की पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक बहुलवाद और उदार मूल्यों को बढ़ावा देना हमारी सभी बीमारियों का इलाज है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों ने न केवल भारत की सीमाओं से परे संघर्ष को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि विदेशी शासन के खिलाफ आवश्यक बौद्धिक जागृति पैदा करने में भी महत्वपूर्ण किरदार निभाया। भारतीय संविधान ने इस विश्वविद्यालय को ‘राष्ट्रीय महत्व’ की संस्था घोषित किया है।

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मास कम्यूनिकेशन विभाग के प्रोफेसर हैं)

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