Kashmir: 'जन्नत' की दास्तां कश्‍मीरी ने की बयां, घाटी में गन के खौफ ने खिलने न दिया गुल

तालीम हासिल कर कुछ बनने का था जुनून मेट्रिक के बाद हुए कैद। बहुत देख-झेल ली सियासत अब तो बस सुकूं की चाहत। हर साल आगरा आते हैं पशमीना शॉल और कालीन बेचने बड़ी संख्‍या में कश्‍मीरी युवक। डालते हैं सर्दी भर यहीं पर डेरा।

By Prateek GuptaEdited By: Publish:Thu, 14 Jan 2021 04:53 PM (IST) Updated:Thu, 14 Jan 2021 04:53 PM (IST)
Kashmir: 'जन्नत' की दास्तां कश्‍मीरी ने की बयां, घाटी में गन के खौफ ने खिलने न दिया गुल
आगरा में हर साल बड़ी संख्‍या में कश्‍मीरी युवक गर्म कपड़े बेचने आते हैं।

आगरा, राजेश मिश्रा। चेहरे पर कश्मीरियत रंगत। बोली में घुली कश्मीरी सेव की मिठास। लफ्जों में जेहन के जज्बात। जिंदगी से अब तमाम शिकायतें हैं, मगर उस दौर का मंजर याद कर यकायक खामोशी। गन अब भले ही नजर नहीं आती, मगर खौफजदा इतने कि जिक्र करते भी डर लगता है। ज्यादा कुरेदा तो सहमते-हिचकते लबों ने भी जेहन से बगावत कर ही दी- गन के खौफ ने खिलने न दिया ये गुल।

मीडियापर्सन होने के गुरूर ने जब आदतन जिज्ञासाभरे सवाल करने भी चाहे, मगर अधिकार जताते हुए निरुत्तर कर दिया कि मेरे मन की बात भी सुन लो। ... फिर जब दास्तां शुरू हुई तो ...अब अलविदा दोस्त, पर ही खत्म हुई। पहले एक ब्रेक। मंगलवार को पश्चिमपुरी क्षेत्र में दोपहर बाद कपड़े की गठरियां लादे रिक्शा जा रहा था। चेहरे से पहचान लिया कि ये कश्मीरी युवक है। सड़क किनारे रिक्शा रुकवाकर हमने रूबरू होने की पहल की। तब और अब के हालात पर सवाल किए, मगर खत्म उस युवक ने की। अब सुनिए उनकी बात।

मैं कश्मीर का रहने वाला हूं। एड्रेस नहीं बताऊंगा। मेरे सेब का बाग है। दो भाई हूं। मुझे पढऩे का शौक था। मेट्रिक तक पढ़ाई की। उच्च शिक्षा लेकर कुछ करने का जुनून पाला था, मगर गन के खौफ ने घर में कैद होने को मजबूर कर दिया। मेरा सपना टूट गया। अब बड़ा भाई सेव के बाग की देखभाल करता है। ...और मैं, आप देख ही रहे हैं। शहर-शहर फेरी लगा रहा हूं। वैसे, इन सियासतदांओं ने ही बेड़ा गर्क किया है। घाटी में जो कुछ भी हुआ, उसमें इनकी शह जरूर रही होगी। खुद के बच्चे तो विदेश में पढ़ाए, अनाप-शनाप दौलत जुटाई। खानदानी सियासत हावी रही। हर सियासतदां (जम्मू-कश्मीर के सियासी खानदान और दिल्ली में समय-समय पर राज करने वालों के नाम भी गिनाए) ने दिल्ली से अपना लिंक बनाए रखा। दिल्ली में जिसकी हुकूमत, कश्मीर में उसी की सरपरस्ती में सरकार। पब्लिक की सुनी ही नहीं। हमें क्या दिया? क्या मिला? सिर्फ और सिर्फ पर्यटन ही है हमारे पेट भरने का जरिया। घाटी की खूबसूरती तो कुदरत की इनायत है, इसमें सियासत का क्या योगदान? मेरा सवाल है कि अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा हासिल कर सूबे के लिए विशेष क्या किया? कोई रोजगार दिलाया, कोई फैक्ट्री लगाई? नहीं ना। अनुच्छेद 370 हट गई है। अब हमारे यहां फैक्ट्रियां लगने की उम्मीद बढ़ी है। कारखाने लगेंगे तो हमें काम भी मिलेगा। मैं तो कहता हूं कि कश्मीर में अब सियासत बंद होनी चाहिए। बहुत झेल ली सियासत। बम-धमाके बहुत सुन लिए। बेकसूरों का बहुत खून बहाया गया है। अब तो बस सुकूं चाहिए। शांति चाहिए।

पत्थरबाज कोई और थे, हम पर लगते इल्जाम

और क्या कहूं आपसे! हम यहां फेरी लगाते हैं। डेढ़ महीना हो गया। कई लोग हमें पत्थरबाज कहने लगते हैं। हम अगर अपनी सफाई देते हैं तो जिरह करने लगते हैं। हम चुप हो जाते हैं। मगर, मलाल यही कि पत्थरबाज कोई और था, इल्जाम हम पर लगते हैं।

बदल रहा हमारा कश्मीर

युवक की बात जारी है। कश्मीर में कुदरत ने हुस्न ही हुस्न बिखेरा है। खूबसूरत वादियां, ऊंची-ऊंची पहाडिय़ां, विशालकाय झीलें, नदियों में बहता नीला पानी, रंग-बिरंगे महकते फूलों के बगीचे। वक्त के साथ ये तो बरकरार हैं, मगर माहौल अब बदल रहा है। सुरक्षा का अहसास होने लगा है। सुनहरे भविष्य की उम्मीदें नजर आने लगी हैं। पब्लिक की बात सुनी जा रही है। अच्छा, अब अलविदा दोस्त। एक कालोनी में हमें जाना है, वहां हमारा इंतजार हो रहा होगा। फिर मिलेंगे। और वो चला गया अपने सफर पर। हम खो गए उसकी दास्तां में। 

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