Chaitra Navratri 2021: नौ दिन की देवी पूजा कर रहे हैं तो जानिए क्यों कहते हैं इसे शक्ति आराधना का पर्व

Chaitra Navratri 2021 शक्ति ईश्वर नहीं है वह ईश्वर तत्व का गुण है। यह गुण भी ईश्वर तत्व में तब पैदा होता है जब वह स्थूल की ओर पहला कदम बढ़ाता है। मां सती के शरीर विसर्जन के बाद भी शक्ति शिव के साथ ही थीं।

By Tanu GuptaEdited By: Publish:Tue, 13 Apr 2021 02:02 PM (IST) Updated:Tue, 13 Apr 2021 02:02 PM (IST)
Chaitra Navratri 2021: नौ दिन की देवी पूजा कर रहे हैं तो जानिए क्यों कहते हैं इसे शक्ति आराधना का पर्व
जानिए क्या है शक्ति और शिव होने का अर्थ।

आगरा, जागरण संवाददाता। मां आदिशक्ति की शक्ति किसी एक स्‍वरूप में नहीं बल्कि साधक की भक्ति में ही निहित है। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जय जोशी का कहना है कि शिव कभी भी शक्ति के बिना नहीं रहे और न ही ही कभी शक्ति ने भगवान शिव का साथ छोड़ा। मां सती के शरीर विसर्जन के बाद भी शक्ति शिव के साथ ही थीं। मनुष्‍य शरीर में भी इसी तरह की शक्ति अदृश्‍य रूप से बनी रहती है। इस शक्ति को अपने सामने प्रत्‍यक्ष करनेे का नवरात्र के दिनों में अवसर मिलता है।

शक्ति ईश्वर नहीं है, वह 'ईश्वर तत्व' का गुण है। यह गुण भी 'ईश्वर तत्व' में तब पैदा होता है जब वह स्थूल की ओर पहला कदम बढ़ाता है। जब वह स्थूल पदार्थ के निर्माण की दिशा में अग्रसर होता है तो वह प्रथम चरण में शक्ति के रूप में परिलक्षित होता है। अपनी मूल अवस्था में वह तत्व निर्गुण होता है क्योंकि गुण भी उसी तत्व के कारण पैदा होता है और उसी में समाहित हो जाता है। पंडित वैभव बताते हैं कि जबतक शक्ति के प्रदर्शन के लिए स्थूल उपलब्ध नहीं होता तबतक वह शक्ति प्रभावहीन रहती है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि धन शक्ति का प्रभाव तभी दृष्टिगोचर होता है जब ऋणशक्ति हो।

विभाजित होती है शक्ति

शक्ति दो विभवान्तरों के बीच ही क्रियाशील होती है। अकेले धनशक्ति ,ऋणशक्ति के अभाव में निष्क्रिय है। 'ईश्वर तत्व' सृष्टि निर्माण के हेतु स्वयं दो भागों में विभक्त हो जाता है। वह स्वयम ही विभवान्तर पैदा करता है और ऋण तथा धन शक्तियों में बदल कर निर्माण और विध्वंस के खेल रचता है। यह धन और ऋण (पुरुष और प्रकृति) धन शक्ति के ही दो रूप हैं। क्योंकि जब हम ऋण शक्ति की बात करते हैं तो इसका मतलब यह है कि दो शक्तियों में से एक की तीव्रता कम है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं होता कि ऋण शक्ति में शक्ति है ही नहीं। तर्कशास्त्र कहता है कि तुलनात्मक विश्लेषण के बिना 'है' और 'नहीं' की कल्पना नहीं की जा सकती। 'शून्य' नाम की कोई वस्तु नहीं होती। जिसे हम शून्य कहते हैं वहां भी 'कुछ' होता है। इसीलिए शक्ति की नकारात्मक कल्पना असम्भव है।

'ईश्वर तत्व' स्वयं अपनी इच्छानुसार अपने को दो रूपों में विभक्त करता है। वह एक रूप में 'जड़ता 'की ओर अग्रसर होता है और दूसरे रूप में 'मुक्त' रहता है। पहले रूप पर दूसरा रूप प्रतिक्रिया करता है और इस प्रकार वह अपने आपको परिलक्षित करता है। फिर पहला रूप जड़ता के कई स्तर तक बंट जाता है और असंख्य विभवान्तर वाली वस्तुओं का निर्माण करके एक दूसरे पर प्रतिक्रिया करने लगता है। ब्रह्माण्ड में हो रही समस्त घटनाओं और क्रियाओं का यही कारण है। वह एक ही तत्व कई रूपों में इसी प्रकार बदल गया है। यह ब्रह्माण्ड उस 'मूलतत्व' के लिए ऋण का काम करता है जिसका निर्माण भी उसी 'मूलतत्व' से हुआ है। इसलिए ब्रह्माण्ड को ईश्वर का प्रत्यक्ष स्वरुप कहा जा सकता है। वह 'ईश्वर तत्व' ही ब्रह्माण्ड के कण कण में जड़ता की विभिन्न स्थितियों में विद्यमान है।

यह ब्रह्माण्ड 'ईश्‍वरतत्‍व' द्वारा निर्मित प्रकृति मात्र है। उसका निर्विकार स्वरुप अरबों गुना बड़ा है। उसका स्वरुप इतना बड़ा है कि उसकी कल्पना भी दुष्कर है। यह ब्रह्माण्ड उसी ईश्वरतत्व के छोटे से हिस्से में व्याप्त है। यह उसी से निर्मित है और एक दिन उसी में समाहित हो जायेगा। क्योंकि जो जिससे बना है वह अपने मूल रूप में समाहित हो जाता है। ईश्वर का 'सच्चिदानंद 'स्वरुप तर्क से परे है। उसे केवल ज्ञानी ही अपने ज्ञान चक्षुओं से देख सकता है।  

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