ब्रज में श्रद्धा और सौंदर्य का अद्भुत संगम है ''दानघाटी'', कोरोना काल के बाद आइयेगा जरूर एक बार

यहां भगवान ने गोपियों से मांगा दान। पर्वतराज गोवर्धन की 21 किमी की परिक्रमा अधिकतर भक्त इसी स्थान से शुरू करते हैं। सात कोस में कहीं से भी परिक्रमा शुरू कर सकते हैं। परिक्रमा के दौरान दाई ओर विशाल पर्वतराज गोवर्धन के दर्शन होते रहते हैं।

By Tanu GuptaEdited By: Publish:Sun, 18 Jul 2021 03:47 PM (IST) Updated:Sun, 18 Jul 2021 03:47 PM (IST)
ब्रज में श्रद्धा और सौंदर्य का अद्भुत संगम है ''दानघाटी'', कोरोना काल के बाद आइयेगा जरूर एक बार
गोवर्धन स्थित दानघाटी मंदिर, जहां से श्रद्धालु आरंभ करते हैं गिर्राज जी की परिक्रमा।

आगरा, रसिक शर्मा। भक्ति में ऐश्वर्य और सौंदर्य का अद्भुत समावेश ही गोवर्धन के दानघाटी मंदिर की परिभाषा है। मंदिर में विराजमान गिरिराजजी साढ़े दस किमी लंबे स्वरूप में विराजमान गोवर्धन पर्वत का ही हिस्सा हैं। इनकी 21 किमी की पैदल परिक्रमा करने लाखों भक्त गोवर्धन आते हैं। पांच दिवसीय मुड़िया पूर्णिमा मेला में भक्तों की संख्या एक करोड़ के आंकड़े तक पहुंचने का अनुमान होता है। कोरोना संक्रमण के चलते प्रशासन ने मेला निरस्त कर दिया है। अधिकतर भक्त दानघाटी मंदिर से परिक्रमा शुरू करते हैं। राधे राधे की गूंज के साथ परिक्रमा इन स्थलों से होकर गुजरती है।

दानघाटी के आसपास मेला के दौरान पर्वतराज का वैभव नजर आता है। पर्वतराज की हरियाली, द्वापरयुगीन ब्रजभूमि की कल्पना को साकार करती है। मथुरा से 21 किमी दूर कान्हा की लीलाओं का गवाह पर्वतराज गिरिराज धरा प्राकृतिक सौंदर्य और भक्ति की अनूठी मिशाल है। मंदिर के इतिहास पर नजर डालें तो 1957 में मंदिर की नींव रखी गई तो रोशनी के लिए सिर्फ एक लालटेन लटकी रहती थी, लेकिन आज विशाल मंदिर है।

वक्त के साथ बढ़ता रहा ऐश्वर्य

करीब चार दशक पूर्व प्रभु पर चुनिंदा पोशाक थीं। वक्त के बदलते परिदृश्य में 1998 में प्रभु की मीनार पर स्वर्ण कलश और स्वर्ण ध्वज प्रभु के वैभव का यशोगान कर रहा है। 2003 में चांदी के बने दरवाजे पर नक्काशी नजरों को ठहरने पर मजबूर कर देती है। 2005 में 51 किलो चांदी का छत्र प्रभु का गुणगान करने लगा और 2013 में चांदी के सिंहासन पर प्रभु विराजमान होकर भक्तों को दर्शन देने लगे। स्वर्ण आभूषण युक्त श्रृंगार प्रभु के वैभव को दर्शाकर भक्तों को सम्मोहित कर अपलक निहारने पर मजबूर कर देता है। दानघाटी मंदिर भक्तों की मन्नतों का दरबार है। ब्रज गोपियां इसी रास्ते से मथुरा के राजा कंस को माखन का कर चुकाने जाती थीं। कन्हैया ग्वाल बाल के साथ माखन और दही का दान लेते थे। कान्हा की दानलीला मनुहार, प्रेम और खींचातानी भावमयी लीला का अनूठा संग्रह है। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमभरी दिव्य लीला का वर्णन धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। कवियों ने कल्पना से काव्य की रसधार बहाई तो ऋषि मुनियों की गाथाओं से धार्मिक इतिहास के पन्ने भरते चले गए। दानकेलि कौमुदी ग्रन्थ में लीला का वर्णन है। लीला को गौड़ीय संप्रदाय के लोग आज भी भक्ति रस के गाते हैं। प्रभु की इस लीला के कारण ही इस स्थली को दानघाटी के नाम पुकारा गया।

श्रृंगार और सेवा से जीवंत करते लीला

सेवायत मीनालाल कौशिक, दीनू बाबा और अशोक पुरोहित दानलीला की कल्पना को सेवाभाव से साकार करने का प्रयास करते हैं। प्रभु को माखन और दही की याद न सताए, इसलिए प्रभु को रोजाना सुबह दूध, दही, शहद से पंचामृत अभिषेक कराया जा रहा है। प्रभु के बालभोग में माखन मिश्री, मीठा दूध का रोजाना भोग लगाया जाता है। दोपहर में प्रभु को आभूषण युक्त पोशाक धारण कराई जाती है। मंदिर में ही विभिन्न व्यंजन तैयार किए जाते हैं।

सात कोसीय परिक्रमा का पहला कोस कुछ यूं है

- सात कोस में कहीं से भी परिक्रमा शुरू कर सकते हैं। परिक्रमा के दौरान दाई ओर विशाल पर्वतराज गोवर्धन के दर्शन होते रहते हैं।

-अधिकतर श्रद्धालु इसी मंदिर से गिरिराज प्रभु की परिक्रमा प्रारंभ करते हैं।

-परिक्रमा में पांच सौ मीटर दूरी पर प्राचीन दाऊजी मंदिर है, सेवायत श्रीमुखिया की भाव की सेवा सहज ही श्रद्धालुओं का ध्यान आकर्षित कर लेती है।

-दाहिने हाथ की तरफ चरणामृत कुंड है।

-बाएं हाथ की तरफ कार्ष्णि आश्रम है, जहां संत हरिओम बाबा के सानिध्य में संत और गरीबों को हर वक्त भोजन उपलब्ध है।

-दाहिने हाथ की ओर ब्रजनिष्ठ संत गया प्रसादजी का समाधि स्थल है।

-दाहिने हाथ पर ही तलहटी की हरियाली का दृश्य पुरातन ब्रजभूमि की कल्पना को साकार करता है।

- यहां एक संत अनाथों को भरपेट भोजन कराकर उनका पालन करते हैं।

- गोवर्धन पर्वत की विशाल शिलाएं और हरियाली द्वापरयुगीन ब्रजभूमि का स्वरूप जीवंत करती नजर आती है

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