चरकुला के दीपों की ज्‍योति, ब्रज की होली को सजाती तो विदेशी धरती पर भी जगमगाती

राधारानी की ननिहाल में 22 मार्च को होगा महोत्सव का आयोजन। नगाढ़े की थाप पर 108 दीपों को सिर पर रखकर नाचती है हुरियारिन।

By Prateek GuptaEdited By: Publish:Fri, 22 Feb 2019 02:03 PM (IST) Updated:Fri, 22 Feb 2019 02:03 PM (IST)
चरकुला के दीपों की ज्‍योति, ब्रज की होली को सजाती तो विदेशी धरती पर भी जगमगाती
चरकुला के दीपों की ज्‍योति, ब्रज की होली को सजाती तो विदेशी धरती पर भी जगमगाती

आगरा, रसिक शर्मा। आसमान में उड़ता सतरंगी गुलाल, हंसी ठिठोली में मीठी गालियों की छेड़छाड़, ढप नगाढ़े की थाप पर गूंजते रसिया, सिर पर 108 दीपक रख नाचती हुरियारिन और नचाते हुरियारे। संस्कृति और होली का यह अनूठा संगम राधारानी की ननिहाल में देखने को मिलता है। यह महोत्सव इस बार 22 मार्च को देखने को मिलेगा।

चरकुला नृत्य ब्रज संस्कृति की अद्भुत कला में शुमार है। 108 दीपों से सुसज्जित इस पुरातन कला के बिना ब्रज साहित्य और होली की परिभाषा अधूरी ही रह जाएगी। राधारानी के जन्म से जुड़ी इस अद्भुत परंपरा का ब्रज की माटी ही नहीं बल्कि सात समंदर पार तक आकर्षण बना हुआ है।

द्वापर युगीन चरकुला नृत्य की अनूठी और कलात्मक परंपरा गोवर्धन के गांव मुखराई से जुड़ी है। मुखराई गांव राधारानी की ननिहाल है, उनकी नानी का नाम मुखरा देवी है। धार्मिक मान्यता के अनुसार पिता वृषभानु और माता कीरत कुमारी का आंगन राधारानी की किलकारियों से गूंज उठा। जब यह समाचार उनकी नानी मुखरा देवी ने सुना तो वह बहुत खुश हुईं । मुखरा देवी ने समीप रखे रथ के पहिये पर 108 दीप रखे और प्रज्वलित कर नाचने लगीं। इसी नृत्य को चरकुला नृत्य के नाम से जाना जाता है।

होली में ग्राम मुखराई में ग्रामीण महिलाएं 108 जलते दीपों के साथ प्रतिवर्ष चरकुला नृत्य कर परंपरा का निर्वहन करती हैं। महिलाएं जब नृत्य करती हैं तब हुरियारे लोक गीत 'जुग-जुग जीयो नाचन हारी...' 'जाकी रूठ गई है नारि मनावत डोलै घरवारौ...' गाकर उत्साहित करते है।

चरकुला को दिया था नया लुक

ग्रामीण छगन लाल शर्मा ने बताया कि 1845 में गांव के प्यारेलाल बाबा ने नया रूप दिया। उन्होंने लकड़ी का घेरा, लोहे की थाल एवं लोहे की पत्ती और मिट्टी के 108 दीपक रख 5 मंजिला चरकुला बनाया था। ग्रामीण महिलाएं 108 जलते दीपकों के साथ इस चरकुला को सिर पर रख मदन मोहन जी मन्दिर के निकट नृत्य कर परंपरा का निर्वहन करती हैं। सन् 1930 से 1980 तक यह नृत्य लक्ष्मी देवी और असर्फी देवी ने किया।

प्रतिभाआें से संपन्‍न है मुखराई गांव

मथुरा से 25 किमी दूर तहसील क्षेत्र का गांव मुखराई राधारानी की ननिहाल होने के कारण आस्था का प्रमुख केंद्र है। यहां श्रद्धालुओं का वर्ष भर आवागमन बना रहता है। गांव की माटी में कई प्रतिभा भी जन्मी हैं जिन्होंने संगीत की साधना तथा चरकुला नृत्य से देश ही नही बल्कि विदेश में भी मुखराई को पहिचान दिलाई। चरकुला नृत्य को लेकर पहली बार विदेश जाने वाले कलाकारों में शामिल छगन लाल शर्मा के अनुसार 1980 से पहले यह नृत्य ग़ांव की सीमा से बाहर नही जाता था। ग्रामीण अपनी परंपरा को बाहर ले जाने के पक्ष में नहीं थे। ग्रामीणों का तर्क था कि इस नृत्य को देखने लोग इसी गांव में आएं जिससे गांव का नाम रोशन हो। वक्त के बदलते परिदृश्य में लोगों की सोच बदली तो सबसे पहले मुखराई से बाहर मथुरा जन्मभूमि पर इसका आयोजन हुआ। अद्भुत नृत्य को देख लोग अचरज में रह गए कि इतना वजन और दीपों को लेकर बिना हाथों से पकड़े महिला नृत्य कैसे कर सकती है। चरकुला के दीपों की ज्योति ने जैसे ही मुखराई गांव की सीमा लांघी फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। गांव के मदन लाल शर्मा और छगन लाल शर्मा चरकुला नृत्य के लिए लक्ष्मी देवी के साथ पहली बार मारीशश गए। इसके बाद तो नृत्य की मांग बढती गई।चरकुला की टीम जापान, इंडोनेशिया, रूस, चीन, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया तक इस अद्भुत कला की चमक बिखेर कर आई। चरकुला नृत्य के कारण ग्रामीणों को विदेश की सैर करने के साथ रोजगार मिल गया। 

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