भगवान विष्णु ने जहां लिया था वराह अवतार, वहां स्नान करने मिलता है पुण्य अपार

कासगंज के सोरों में 16 से शुरू होगा प्राचीन मार्गशीर्ष मेला, एकादशी को होगा पहला स्नान। त्रयोदशी को होता है नागा साधु एवं सतों का शाही स्नान।

By Prateek GuptaEdited By: Publish:Fri, 14 Dec 2018 04:19 PM (IST) Updated:Fri, 14 Dec 2018 04:19 PM (IST)
भगवान विष्णु ने जहां लिया था वराह अवतार, वहां स्नान करने मिलता है पुण्य अपार
भगवान विष्णु ने जहां लिया था वराह अवतार, वहां स्नान करने मिलता है पुण्य अपार

आगरा, जेएनएन। भगवान वराह की नगरी कासगंज जिले का सोरों। देश के विभिन्न राज्यों की श्रद्धा एवं आस्था से जुड़ी हरिपदी गंगा। आने वाले 15 दिन यहां पर देश भर से श्रद्धालुओं का आना होगा। 16 दिसंबर से शुरू हो रहे मार्ग शीर्ष मेले को लेकर आस्था की नगरी तैयार है। त्रयोदशी को नागा साधुओं का शाही स्नान होगा। साल में एक बार लगने वाली पंचकोसीय परिक्रमा भी एकादशी को वराह मंदिर से शुरू होती है। पूॢणमा को अंतिम एवं चतुर्थ स्नान के साथ में मेले का समापन होता है।

कासगंज से करीब 12 किमी दूर स्थित सोरों में हरिपदी गंगा (हर की पैड़ी) के तट पर लगने वाले मेले में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। उप्र के साथ मध्य प्रदेश और राजस्थान से तो लोग यहां आते ही हैं, अन्य प्रदेशों से भी बड़ी संख्या में लोग स्नान करने के लिए यहां आते हैं। पूॢणमा तक चलने वाले मेले में चार स्नान होते हैं। सबसे ज्यादा महत्व एकादशी के स्नान का है। माना जाता है इस दिन वराह भगवान ने यहां पर व्रत रखा था। त्रयोदशी को होने वाला तीसरा स्नान सिर्फ साधु संतों एवं नागा बाबाओं का ही खास तौर पर रहता है। एकादशी एवं द्वादशी को श्रद्धालु स्नान करते हैं तो अंतिम एवं चौथा स्नान पूॢणमा को होता है। द्वादशी को वराह भगवान की यात्रा निकलती है।

एक दर्जन से ज्यादा अखाड़े आते हैं मेले में

त्रयोदशी को होने वाले शाही स्नान में नागा साधुओं के कई अखाड़े यहां पर आते हैं। आवाहन अखाड़ा नागालैंड, जूना अखाड़ा, कारवाड़ी शैडामणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा, निर्माणी अखाड़ा, उदासीन अखाड़ा, गोरखनाथ अखाड़ा, वैष्णवी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा आदि आते हैं। सीताराम दुबे बताते हैं बनारस, गाजियाबाद, गुजरात, चंदौसी, दिल्ली से मध्य प्रदेश, राजस्थान, बरेली एवं उत्तराखंड से नागा साधु यहां पर आते हैं।

यह है मान्यता

भगवान विष्णु ने वराह अवतार के रूप में दैत्यराज को मारकर उसके द्वारा रसातल में रखी गई पृथ्वी को दंत के अग्रभाग पर धारण कर जल से बाहर इसी स्थान पर निकाला था। मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को व्रत रखा था, दूसरे दिन द्वादशी को वराह रूप त्याग दिया। इस पुण्य तिथि के उपलक्ष्य में यह मेला प्राचीन काल से यहां लगता आ रहा है।

chat bot
आपका साथी