Swami Vivekananda Jayanti 2019: साधारण तरीके से असाधारण ज्ञान देने वाले अदभुत व्यक्ति थे

स्‍वामी विवेकानंद की कोई बात किसी विवेकपूर्ण तथ्‍य से परे नहीं होती थी। 12 जनवरी 2019 को उनकी जयंती पर जाने उनकी सहजता और ज्ञान से भरी कुछ बातें।

By Molly SethEdited By: Publish:Sat, 12 Jan 2019 11:58 AM (IST) Updated:Sat, 12 Jan 2019 11:58 AM (IST)
Swami Vivekananda Jayanti 2019: साधारण तरीके से असाधारण ज्ञान देने वाले अदभुत व्यक्ति थे
Swami Vivekananda Jayanti 2019: साधारण तरीके से असाधारण ज्ञान देने वाले अदभुत व्यक्ति थे

आज भी प्रेरक हैं स्‍वामी विवेकानंद की बातें

'मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों' संबोधन में वह कैसा आकर्षण था, जिसने पूरी दुनिया को एक युवा संन्यासी की ओर गंभीरता से देखने के लिए बाध्य कर दिया? क्या स्वामी विवेकानंद का शिकागो (अमेरिका) की धर्म संसद में 1893 को दिया गया भाषण इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि अपने उद्बोधन में उन्होंने हिंदू धर्म, उसकी सहिष्णुता, सार्वभौमिकता और तत्कालीन समाज में व्याप्त होती सांप्रदायिकता पर अपने प्रखर विचार रखे थे? उस संबोधन के बाद सभागार में कई मिनटों तक तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती रही, जबकि स्वामी विवेकानंद को बोलने के लिए कुछ मिनटों का ही समय दिया गया था। दरअसल, वे कुछ भी बोलने से पहले उस विचार या सिद्धांत को अपने जीवन पर लागू करते थे। उनके संपूर्ण जीवन में हमें कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जो आज भी अनुकरणीय हैं। 

असाधारण विवेकानंद की साधारणता

बहुत कम लोग जानते हैं कि शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में वे कुछ हफ्तों पहले पहुंच गए थे। उत्तर-पश्चिमी अमेरिका की ठंड सहन करने के लिए स्वामी जी के पास न पर्याप्त कपड़े थे और न ही यथा-योग्य ठहरने लायक पैसे। उन दिनों शिकागो में उन्होंने न सिर्फ भिक्षा मांग कर अपने लिए भोजन जुटाया, बल्कि यार्ड में खड़ी मालगाड़ी में रात भी गुजारी। असाधारण होने के बावजूद साधारण लोगों की तरह जीवन-यापन करने वाले स्वामी जी के इसी भाव ने पूरी दुनिया को उनसे जोड़ दिया। ऐसे संन्यासी जिन्हें जगत विवेकानंद के नाम से जानता है, लेकिन परिजन उन्हें वीरेश्वर, नरेंद्रनाथ अथवा नरेन कहा करते। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय के अटॉर्नी जनरल थे एवं माता भुवनेश्वरी देवी गृहिणी थीं। उनके दादा दुर्गाप्रसाद बहुत कम उम्र में ही संसार से विरक्त होकर संन्यासी हो गए थे।

व्यावहारिक व्‍यक्‍तित्‍व

बालक नरेन बचपन में चंचल, खोजपरक और तर्क प्रस्तुत करने में माहिर थे। प्रसंग है कि उनके घर निरंतर भिन्न-भिन्न जाति-धर्म के लोगों का आना-जाना लगा रहता था। इसलिए आगंतुकों के लिए घर के दालान में हुक्के की अलग-अलग व्यवस्था की जाती थी। नरेन को इस पृथकता के प्रति जिज्ञासा रहती थी। इसलिए उन्होंने स्वयं पर प्रयोग किया। सभी हुक्कों को बारी-बारी से ग्रहण करने के बाद उन्होंने स्वयं के भीतर हुए परिवर्तन को जानना चाहा। अंत में उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि सभी मनुष्य समान हैं और जातियां निरर्थक। स्वयं संन्यासी हो जाने के बावजूद विवेकानंद ने किसी तरह की मानसिक जकड़न को स्वयं पर कभी हावी नहीं होने दिया। उनके लिए धर्म की व्याख्या कितनी तर्किक और वैज्ञानिक है, यह इसी से स्पष्ट होता है जब वे कहते हैं -पहले रोटी बाद में धर्म। वे स्वयं बहुत व्यावहारिक थे, इसलिए लोगों को भी कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनने की बात कहते। वे मानते थे कि सिद्धांतों के ढेर ने देश को पीछे कर दिया है।

स्‍वास्‍थ्‍य है सर्वोपरि

विवेकानंद ने ईश्वर तत्व की बहुत सरल व्याख्या की है। वे मानते थे कि सभी इंसानों में ईश्वर का वास होता है। उन्होंने कहा, 'मैंने ईश्वर को ऐसे साक्षात देखा है, जैसा कि तुम्हें देख रहा हूं।' उन्होंने मानवता के कार्यो को ही ईश्वर प्रार्थना माना। वे मानते थे कि ईश्वर भक्त के साथ-साथ व्यक्ति को राष्ट्रभक्त भी होना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति का स्वस्थ होना बेहद जरूरी है। एक बार जब एक युवक ने उनसे गीता पढ़ाने का अनुरोध किया, तब स्वामी जी ने कहा कि जाओ पहले छह माह रोज फुटबॉल खेलो। स्पष्ट है कि शारीरिक बल, मानसिक बल और आध्यात्मिक बल को विवेकानंद की विचारधारा एक ही तुला पर रखती थी। इसी कड़ी से जुड़ा एक और प्रसंग मिलता है। एक संन्यासी मानसिक रूप से अशांत था। समाधान के लिए वह विवेकानंद के पास गया। स्वामीजी ने जो उपाय बताया वह सभी के लिए प्रेरक है। उन्होंने कहा, 'दुखियों और दुर्बलों की सेवा करो। मन की शांति का यही उपाय है और सच्चा धर्म भी।' वे स्वयं भी दीन-दुखियों की सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते।

स्‍वयं बने उदाहरण

युग-पुरुष अपने ऐसे ही कार्यो और आचरण से उदाहरण बनते हैं। कहते हैं कि उनके कार्यो और विचारों से प्रभावित होकर एक विदेशी महिला ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। उसने कहा कि उसकी इच्छा विवेकानंद जैसा ही तेजस्वी, विद्वान और गौरवशाली पुत्र पाने की है। यह संभव तभी हो सकता है, जब उनसे उसका विवाह हो पाएगा। विवेकानंद ने बहुत सहजता से कहा कि मैं आज से ही आपका पुत्र बन जाता हूं। इस तरह आपकी इच्छा स्वत: पूरी हो जाएगी।

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