वास्तविक संपन्नता: मानसिक रूप से समृद्ध व्यक्ति ही वास्तविक धनी है

हमारे दार्शनिकों का कहना है कि जिस मनुष्य की तृष्णा अपार हो गई है वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्धन है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी आंतरिक रूप से आनंद का अनुभव करने में सक्षम नहीं हो सकता।

By Kartikey TiwariEdited By: Publish:Thu, 28 Oct 2021 09:13 AM (IST) Updated:Thu, 28 Oct 2021 09:13 AM (IST)
वास्तविक संपन्नता: मानसिक रूप से समृद्ध व्यक्ति ही वास्तविक धनी है
वास्तविक संपन्नता: मानसिक रूप से समृद्ध व्यक्ति ही वास्तविक धनी है

समृद्धि या संपन्नता का सृजन सर्वप्रथम हमारे मानस पटल पर होता है। समाज का यही मुख्य दृष्टिकोण है कि जिसके पास भौतिक संपत्ति अर्थात धन-संपदा होती है, वही संपन्न है। इसके विपरीत यदि हम अपने आध्यात्मिक ग्रंथों पर दृष्टिपात करें तो उनका सिद्धांत भौतिक सिद्धांत से विपरीत है। हमारे मनीषियों ने मानसिक रूप से समृद्ध व्यक्ति को वास्तविक धनी माना है। यदि मनुष्य आंतरिक रूप से समृद्ध एवं संतुष्ट नहीं है तो बाहर की भौतिक समृद्धि भी उसे सुख की अनुभूति नहीं करा सकती।

प्राय: हम देखते हैं कि समाज में कुछ लोगों के पास भौतिक सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं होती, परंतु वे फिर भी अपने जीवन से संतुष्ट नहीं होते। अत्यधिक प्रसिद्धि की व्यर्थ कामना उनके मानसिक पटल को अशांत और तनावग्रस्त बना देती है। इसके विपरीत धन के अभाव में भी जो व्यक्ति आंतरिक रूप से संतुष्ट है, जिसने अपनी वर्तमान स्थिति और वास्तविकता के साथ सही संतुलन स्थापित कर लिया है, वह व्यक्ति संपदा के अभाव में भी सुखी है।

मानसिक संतुष्टि को हमारे ग्रंथों में सर्वोपरी धन माना गया है। जो लोग सदैव भौतिक साधनों की लिप्सा में लिप्त रहते हैं वे अत्यधिक लोभ-लालसा के वशीभूत होकर उस संपदा के आनंद की भी अनुभूति नहीं कर पाते, जो उनके पास होती है। अपनी अंतहीन तृष्णा से संतप्त ऐसे लोग हमेशा मानसिक रूप से दरिद्रता की श्रेणी में आते हैं।

हमारे दार्शनिकों का कहना है कि जिस मनुष्य की तृष्णा अपार हो गई है वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्धन है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी आंतरिक रूप से आनंद का अनुभव करने में सक्षम नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि हमारी मानसिक अवस्था हमारी समृद्धि तथा दरिद्रता के निर्धारण की महत्वपूर्ण कारक है। जो व्यक्ति बिना किसी विषाद के सुकून से सो रहा है वही वास्तविक रूप से समृद्धि का पर्याय है। वस्तुत: आंतरिक और मानसिक रूप से परिपूर्ण होना ही संपन्नता का चरमोत्कर्ष है।

आचार्य दीपचंद भारद्वाज

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