Vijayadashami 2021: मोह के रावण का दहन, काम के मेघनाद और अहंकार के कुंभकर्ण का वध है जरूरी

Vijayadashami 2021 भगवान की भक्ति ही हमें स्वतंत्रता और स्वावलंबन दिला सकती है। मोह के रावण का दहन काम के मेघनाद और अहंकार के कुंभकर्ण का वध हुए बगैर जीवन में वास्तविक स्वतंत्रता नहीं प्राप्त हो सकती है।

By Kartikey TiwariEdited By: Publish:Tue, 12 Oct 2021 10:51 AM (IST) Updated:Tue, 12 Oct 2021 10:51 AM (IST)
Vijayadashami 2021: मोह के रावण का दहन, काम के मेघनाद और अहंकार के कुंभकर्ण का वध है जरूरी
Vijayadashami 2021: मोह के रावण का दहन, काम के मेघनाद और अहंकार के कुंभकर्ण का वध है जरूरी

Vijayadashami 2021: हम जब मंदिर में जाकर भगवान के सम्मुख होते हैं तो लगता है कि ईश्वर सत्य है और जब मंदिर से लौटते हैं और भगवान को पीठ करके जब हम ईश्वर से विमुख होकर संसार के सम्मुख हो जाते हैं, तब हमें संसार ही सत्य लगता है। ऐसी स्थिति में हम संसार की अधीनता स्वीकार करके स्वावलंबन से विमुख होकर बंधक हो जाते हैं। वस्तुत: भगवान की भक्ति ही हमें स्वतंत्रता और स्वावलंबन दिला सकती है। मोह के रावण का दहन, काम के मेघनाद और अहंकार के कुंभकर्ण का वध हुए बगैर जीवन में वास्तविक स्वतंत्रता नहीं प्राप्त हो सकती है। जब तक ये रहेंगे, तब तक दूसरों के स्वातंत्र्य का अपहरण होता रहेगा।

दूसरे के सुख की चिंता होना तथा दूसरे के सुख में सुखी होना ही भक्ति है। इसके विपरीत जो भी है, वह बंधन है, मुक्ति और स्वतंत्रता से कोसों दूर। भगवान श्रीराम ने अपने चौदह वर्ष के वनवास काल में जिन-जिन पात्रों को अपने पास सेवा में रखा, उन सबको अंत में मुक्त कर दिया। यद्यपि उनमें से किसी एक भी पात्र की इच्छा भगवान राम को छोड़कर घर लौटने की कदापि नहीं थी, फिर भी आग्रहपूर्वक आदेश देकर भगवान ने सबको घर भेज दिया। वे अपने उन शरणागत् भक्तों को लोकदृष्टि से प्रेम की परीक्षा में पराजित करना नहीं चाहते थे। सारे बंदरों को स्वयं विदा करके उन्होंने सिद्ध कर दिया कि ये लोग तो हमसे इतना प्रेम करते हैं कि हमें छोड़कर अपना घर-बार सब भूल गये, किसी की घर जाने की इच्छा ही नहीं है, पर हम ही इतने कठोर हैं कि आपकी भावना को ध्यान में न रखकर आपको घर भेजे दे रहे हैं। भगवान बंदरों के यश को बचाने के लिए कठोर हो गये। गोस्वामी जी को बंदरों और विशेषत: अंगद की मनोदशा देखकर लिखना पड़ा :

कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।

चित्त खगेस राम कर, समुझि परइ कहु काहि।।

पर कुछ भी हो, भगवान तो यह जानते ही थे कि आगे चलकर इनमें से किसी एक को भी मेरे पास रहते-रहते यदि घर की याद आई और मुझसे घर जाने की आज्ञा मांगी, तब समाज में इनके प्रति लोगों की यह धारणा बनेगी कि लो, भगवान को छोड़कर घर वापस चले गये। यह तो मेरे सिद्धांत के विपरीत होगा कि मैंने उनके मन को नहीं जाना और उन्हें अपने मन की बात कहने के लिए बाध्य होना पड़ा।

यहां पर भगवान स्वावलंबन को एक नई दृष्टि देते हैं। यह दृष्टि है कि जो लोग एकमात्र मेरी निज भक्ति और सेवा को ही सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं, उन्हें यह भी ज्ञान हो कि समाज के हर प्राणी में, हर समय और प्रत्येक स्थान पर मेरा ही वास है। यदि हम सब भगवान के उस सिद्धांत को मानकर चलें तो हम भौतिक दृष्टि से स्वतंत्र, घर-परिवार व संबंधों की भावनाओं का पालन करते दिखेंगे। पर भगवान कहते हैं कि नहीं, मेरे साथ रहकर मेरी मर्यादाओं के बंधन में रहकर मेरी सेवा करना एक प्रकार की भक्ति है, पर भक्ति का स्वरूप यह भी है कि सारे संसार में मुझको ही देखकर मुझसे दूर रहकर भी मेरी भावना के बंधन को स्वीकार कर व्यक्ति भक्ति कर सकता है। तब भगवान ने कहा :

अब गृह जाहु सखा सब भजहु मोहिं दृढ़ नेम।

सदा सर्वगत सर्वहित जानि करेउ अति प्रेम।।

वे कहते हैं, आप सब अपने-अपने घर पर जाकर मेरा भजन कीजिए। उन्होंने भजन की बड़ी व्यापक व्याख्या की, 'आप लोग सारे संसार में और हर समय, हर स्थान पर मुझे देखकर सबके हित के लिए कार्य करिये, वही मेरा भजन, मेरी भक्ति होगी।' यही भगवान की विराट भक्ति है, यही स्वावलंबन भक्ति का अवलंबन है। भक्ति में सबके कल्याण की भावना ही उसका प्राण है। जिसमें यह नहीं है तो उसका धर्म तथा मान्यता भ्रामक और निष्प्राण है।

जिन्ह हरि भगति हृदय नहिं आनी।

जीवत सब समान तेहि प्रानी।।

स्वतंत्रता सर्वदा भाव के बंधन को स्वीकार करे तभी वह उपयोगी है और वह भाव अपने तथा दूसरे के मध्य में भगवान को रखे बिना संभव नहीं है। भगवान श्रीराम ने रामराज्य बनने के पश्चात सारे पुरवासियों को बुलाकर उपदेश दिया और उनके स्वावलंबन को पूर्ण स्वतंत्रता देते हुए कहा कि मैं यदि कभी आप लोगों के प्रति कुछ अनीतिपूर्ण कार्य करूं या करने के लिए कहूं और आप लोग मुझे भयमुक्त होकर रोक दें तो मैं समझूंगा कि आप मेरी स्वतंत्रता की परिभाषा को साकार कर रहे हैं :

जौं अनीति कछु भाषौं भाई।

तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।

राजा और प्रजा के हृदय जब एक हो जाते हैं तो स्वतंत्रता और स्वावलंबन भावनात्मक बंधन को शिरोधार्य करके परमानंद का अनुभव करता है। वाणी का संयम, परस्पर समादर, अपनी सीमा को जानकर व्यवहार करना, ये है स्वावलंबन, जिसमें सब कुछ हम स्वयं स्वीकार करते हैं, हमारे ऊपर कुछ भी लादा नहीं जाता है।

मायाकृत काल, कर्म, स्वभाव और गुण- ये चार प्रकार के बंधन हैं, जो हमें दुखी करते रहते हैं और मुक्त नहीं होने देते। वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ है जीवन में दुख का अभाव। जब हम किसी के अधीन नहीं होते हैं। आज हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि न तो काल पर हमारा वश है, न कर्म पर, न स्वभाव और गुण पर, तो स्वातंत्र्य तो केवल एक कल्पना ही बची न?

सही बात तो यह है कि स्वतंत्रता की जो परिभाषा हमने बनाई है, वह हमें कभी भी सुख नहीं दे सकती है। अकर्मण्यता को हमने गरीबी की संज्ञा दी और हम दूसरों की गरीबी का लाभ लेकर तथा गरीब को जीवनपर्यंत परतंत्र बनाकर हम स्वयं स्वतंत्र होना चाहते हैं। ऐसे में गरीब का आश्रय हो गया अमीर और अमीर का आश्रय हो गया गरीब। फिर स्वावलंबन कहां रहा। स्वावलंबन का तात्पर्य है कि जब हमें किसी की आवश्यकता न रहे :

विप्रन्ह दान विविधि विधि दीन्हे।

जाचक सकल अजाचक कीन्हे॥

भगवान राम ने रामराज्य के बाद ब्र्राह्मणों को बहुत तरह से दान दिया, फिर मांगने वाले आए तो उन सबको ऐसा दिया कि दोबारा कभी मांगने की आवश्यकता ही नहीं रही। यही है राम का स्वावलंबन और स्वतंत्रता देना, क्यों कि यहां न देने वाला रहा, न लेने वाला। जिस समाज में यदि मांगने वाले लोग या मांगने की वृत्ति बनी रही तो समझिए कि राजा समाज को भिखारी और अकर्मण्य से अधिक कुछ नहीं बना रहा है।

स्वावलंबन देने वाला समाज में वह स्थित पैदा करना चाहता है कि समाज में कोई मांगने वाला ही न रहे। सब लोग सुखी हों, सच्चरित्र हों, श्रुति सम्मत धर्म पर चलने वाले हों, कोई रोगी न हो, किसी की अल्पायु में मृत्यु न हो। यह सब केवल तब संभव है, जब हम जैसा अपने लिए चाहते हैं, वैसा दूसरे को मिलते देखकर प्रसन्न हों।

मनुष्य को छोड़कर सारे पशु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े स्वावलंबी हैं। सारी प्रकृति स्वावलंबी है। सारी चिडिय़ां और गिलहरियां आदि अपने आने बाले बच्चों के लिए आपसे-हमसे घोंसला बनाने के लिए कोई सामग्री नहीं मांगते हैं और न ही कोई आशा करते हैं। उनकी खुशी में भी कोई कमी नहीं है। उनका जीवन पूर्ण स्वावलंबी है।

हमें सबसे पहले यह निर्णय करना या समझना होगा कि हम प्रसन्न रहना चाहते हैं या दुखी? प्रसन्नता और सुख दूसरे को दिए बगैर मिलना संभव नहीं है। मात्र भगवान का भक्त ही ऐसा होता है, जो किसी भी परिस्थिति में भगवान से पैसा, सोना, हीरा, जवाहरात, सुख-सुविधा की याचना नहीं करता। केवट जैसा अभावग्रस्त भी भगवान से मुद्रिका लेने को मना कर देता है। रामायण का मत है कि 'राम भगति मनि उर बस जाके। दुख लबलेस न सपनेहुं ताके।।' जो मांग रहा है, वह तो मांगता ही रहेगा और जो पा चुका है, वह मांगेगा नहीं। हमें पहले यह समझ लेना होगा कि हम राम को पाना चाहते हैं या संसार को।

संत मैथिलीशरण (भाई जी), रामकथा मर्मज्ञ

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