ऊर्जा: भावना- भाव की एकाग्रता के लिए अंत:करण से स्वार्थ, वासनाओं और छल-छिद्र को निकालना पड़ता है

भगवान तो भाव के भूखे हैं। तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं ‘जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखीं तिन तैसी।’ यानी अपनी भावना के अनुरूप ही व्यक्ति ईश्वर के स्वरूप को देख पाता है। भाव की मधुरता से साधक लक्ष्य को अपने निकट बुला सकता है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 26 Jul 2021 02:36 AM (IST) Updated:Mon, 26 Jul 2021 09:46 AM (IST)
ऊर्जा: भावना- भाव की एकाग्रता के लिए अंत:करण से स्वार्थ, वासनाओं और छल-छिद्र को निकालना पड़ता है
अपनी भावना के अनुरूप ही व्यक्ति ईश्वर के स्वरूप को देख पाता है

मनुष्य के लिए किसी भी उद्यम की सार्थकता के पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, वह है उसकी भावना। अर्थात किसी कार्य से ज्यादा उस कार्य के पीछे की भावना का महत्व होता है। जो कार्य शुद्ध हृदय से किया जाता है वह श्रेष्ठ फलदायक होता है। इसके विपरीत हीन और क्षुद्र भाव लेकर किया गया कार्य बड़ा होते हुए भी श्रेष्ठ नहीं होता। पंचतंत्र में आचार्य विष्णु शर्मा कहते हैं, ‘मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषधि और गुरु में हमारी जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि हमें मिलती है।’ अर्थात किसी व्यक्ति को भावना के अनुरूप ही सिद्धि मिलती है।

मर्हिष वाल्मीकि की भावना ने उन्हें श्रेष्ठ साधक बना दिया। महाकवि तुलसीदास की भावनाओं ने जब भाव की उदात्तता को प्राप्त किया तो वह पत्नी वियोगी और विकल ‘रामबोला’ से महान साधक और कवि बन गए। भावना की उदात्तता को धारण करने वाले रैदास के लिए किसी गंगा तट पर जाकर स्नान करने की आवश्यकता नहीं रहती। उनके लिए ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ उक्ति चरितार्थ हो जाती है। कबीर अपने करघे पर ही भक्ति की ‘झीनी-झीनी चदरिया’ बीन लेते हैं। अपनी भावना की महानता के चलते वह उस चदरिया को ‘ज्यूं की त्यूं’ धर देते हैं। वह तनिक भी मैली नहीं होती। तभी अमृतलाल नागर ‘मानस का हंस’ में लिखते हैं, ‘भाव की एकाग्रता अंतश्चेतना का वह द्वार खोलती है, जिसमें सत्य सार्थक होकर बसता है।’

इस भाव की एकाग्रता के लिए अंत:करण से स्वार्थ, वासनाओं और छल-छिद्र को निकालना पड़ता है। कहते हैं कि भगवान तो भाव के भूखे हैं। तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं, ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखीं तिन तैसी।’ यानी अपनी भावना के अनुरूप ही व्यक्ति ईश्वर के स्वरूप को देख पाता है। जैसे चींटियों को बुलाने के लिए मात्र शक्कर की जरूरत होती है, ठीक वैसे ही भाव की मधुरता से साधक लक्ष्य को अपने निकट बुला सकता है।

- डाॅ. प्रशांत अग्निहोत्री

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