गंगा का मंत्र है - व्यवधान से रुके बिना निरंतर चलते जाना

यदि हम हर पत्थर को व्यवधान मान लें तो गंगा सागर तक तो कभी नहीं पहुंच पाएगी। पत्थर तो गंगा को गति और दिशा देते हैं। व्यवधान का नाम जड़ है प्रवाह तो चैतन्य स्वरूप ही है। गंगा की अविरल गति यही मंत्र हमें देती है।

By Jeetesh KumarEdited By: Publish:Thu, 09 Dec 2021 01:50 PM (IST) Updated:Thu, 09 Dec 2021 01:50 PM (IST)
गंगा का मंत्र है - व्यवधान से रुके बिना निरंतर चलते जाना
गंगा का मंत्र है - व्यवधान से रुके बिना निरंतर चलते जाना

यदि हम हर पत्थर को व्यवधान मान लें तो गंगा सागर तक तो कभी नहीं पहुंच पाएगी। पत्थर तो गंगा को गति और दिशा देते हैं। व्यवधान का नाम जड़ है, प्रवाह तो चैतन्य स्वरूप ही है। गंगा जब समुद्र बन जाती है तब बादल उसे उठा लेते हैं। वह फिर मेघ बनकर बरसती है। फिर वह पुन: इसी मार्ग पर आती है। ये पत्थर फिर से उसे यहीं मिलते हैं। ये कभी आगे नहीं बढ़ते, क्योंकि ये न तो गंगा की मिठास के रसिक हैं, न ही शीतलता के, न ही गहराई के और पवित्रता से तो इनका कोई सरोकार ही नहीं है। गंगा कहती है-‘दीपक चाहे कोई जलाए, कोई नित्य आरती गाए। फूल चढ़ाए, दूध चढ़ाए, स्तुति चाहे रोज सुनाए। पतित पावनी कहें भले ही, डुबकी भी कोई नित्य लगाए। चरैवेति है मंत्र हमारा, हम तो चलते ही जाएंगे। बादल बनकर फिर आएंगे। पत्थर तो सब यहीं रहेंगे, हम तो सागर बन जाएंगे।’

वास्तव में जीवन और उपलब्धियों के निरंतर चलते जाने में ही पवित्रता और धन्यता बनी रहती है। रुक जाना तो हार जाना है, जो हमारी संस्कृति का भाग ही नहीं है। हम दिशा बदल सकते हैं, पर लक्ष्य नहीं बदल सकते। हर दिशा-दशा में अद्वैत ही तो हमारा लक्ष्य है, जो अनंत है। आकाश के रूप में अनंत हमारे साथ सदा सर्वदा है। समुद्र के रूप में अनंत हमारा अपना है। देश के प्रत्येक विद्यार्थी को चलते जाना है। विद्या ग्रहण के साथ-साथ अविद्या को त्यागना भी है। नहीं तो लक्ष्य तो मिलेगा नहीं, हमारे पुरुषार्थ का सीमित जल भी सूख जाएगा। हम अपने उद्यम की एक बूंद का भी उपयोग लोक सेवा में नहीं कर सकेंगे।

भगवान श्रीकृष्ण ने केवल मुरली ही नहीं बजाई, बल्कि शंख बजाना भी वे बेहतर तरीके से जानते हैं, पर शंख बजाते समय मुरली को कहीं छोड़ नहीं देते हैं। अपितु उसे भी कमर के फेंटे में लगाए रखते हैं। अर्थात पुन: मधुरता की संभावना को छोड़ नहीं देते हैं। बृज से द्वारिका और अयोध्या से लंका यह जीवन का सत्य है, बढ़ते चलें।

संत मैथिलीशरण

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