Ram Katha: राम सरिस कोउ नाहीं....
Ram Katha श्रीराम प्रत्येक स्थिति और परिस्थिति में एक योद्धा के रूप में दिखते हैं। जीवनपर्यंत वे अपने परिवेश से युद्धरत दिखते हैं। आज थोड़ी सी समस्या आ जाने पर घबरा जाने वाला कोई भी व्यक्ति उनके आदर्शों से प्रेरणा ग्रहण कर सकता है।
Ram Katha: श्रीराम प्रत्येक स्थिति और परिस्थिति में एक योद्धा के रूप में दिखते हैं। जीवनपर्यंत वे अपने परिवेश से युद्धरत दिखते हैं। आज थोड़ी सी समस्या आ जाने पर घबरा जाने वाला कोई भी व्यक्ति उनके आदर्शों से प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। उन्होंने जीवन की कठिनाइयों पर विजय पाकर आदर्श स्थापित किया।
श्रीराम का राजपुत्रों जैसा पालन-पोषण तो हुआ, परंतु आमोद-प्रमोद, शिकार व अन्य व्यसनों से वे सर्वदा दूर रहे। पिता दशरथ के नेत्रों की 'जोत' राम का बचपना ठीक से बीता भी नहीं था कि यज्ञ-रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें मांग लिया। पिता व अन्य माताओं सहित कौशल्या राम-लक्ष्मण को सीने पर पत्थर रखकर उन्हें सौंपती हैं। राजा जनक द्वारा आयोजित स्वयंवर में उन दोनों भाइयों की उपस्थिति मात्र संयोग है। रावण और बाणासुर स्वयंवर में पहुंच हुंकार भरते हैं। यह देख-सुन सीता का मन एक पल को आकुल हुआ, परंतु श्रीराम ने धनुष तोड़कर उनकी शंका को निर्मूल कर दिया और वह सियावर रामचंद्र कहलाए।
सीता जी को लेकर श्रीराम अयोध्या पहुंचे। नगर जगमग था, किंतु वचन से घिरे दशरथ पुत्र को राज्य देते-देते वनवास दे बैठते हैं। भरत से भी अधिक प्रिय राम व नववधू सीता को कैकेयी अपने हाथों से वनवासियों के वस्त्र सौंपती हैं। राज्याभिषेक के उत्सव में अयोध्या की वीथियां पंखुडिय़ों से पटी हैं। उसी पर राम, सीता व लक्ष्मण नंगे पांव वन के लिए निकलते हैं। राम का मन ऐसे हालात में भी द्वंद्वरिक्त है। वे ऋतु प्रहार स्वयं झेलकर सीता को शीतलता देते हैं :
घाम को राम समीप महाबल।
सीतहिं लागत है अति सीतल।।
ज्यों घन-संजुत दामिनि के तन।
होत हैं पूषनके कर भषन।।
(केशवदास कृत रामचंद्रिका, अयोध्याकांड)
आगे जो-जो घटित होता है, उससे गहरे जुड़कर राम का मनस्ताप महसूस किया जा सकता है। सीताहरण के बाद भाई की गहन मूच्र्छा पर श्रीराम अत्यधिक कातर हो विलाप करने लगते हैं। वहीं, लंका विजय का श्रेय वह स्वयं न लेकर कपिराज व वानरयूथ को देते हैं। अयोध्या लौटते हैं तो नगरवासी इस बात से खुश हैं कि चलो, अब प्रभु राम के गद्दी संभालने का मार्ग निष्कंटक हो गया। मगर विधना के खेल निराले थे। राजा राम ने प्रजा के परमप्रिय बने रहने की फेर में आसन्नप्रसवा सीता का परित्याग जिस परिस्थिति में किया होगा, आप सोच सकते हैं।
ढीठ धोबी को डांटना-फटकारना भी उन्हें राजधर्म के विरुद्ध लगता है। करें तो करें क्या। जाएं कहां। मनाएं किसे, खुद से रूठने के अलावा कोई विकल्प नहीं उनके पास। श्रीराम पहले मृग-लोभ में फंसते हैं, बाद में लोक-लोभ में टूटते हैं। आज के संदर्भों में रोज नयी रार और कलह के बीच राम जी जैसे जीवट नायक श्रीराम का बारंबार स्मरण होता है, जो हर कठिनाई में कुंदन बनकर चमकते हैं और कठिनाइयों पर विजय की पताका लहरा देते हैं। लोग राम जी को पूजने के साथ-साथ उनको आचरण में भी उतार लें तो दुनियाभर के क्लेश-कलह मिट जाएं।
संतोष कुमार तिवारी, (रामकथा के अध्येता)