Navratri 2021: या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता...कौन हैं शक्ति? क्या है इसका अर्थ? जानें यहां

Navratri 2021 मार्कंडेय पुराण में शक्ति का नमन सभी प्राणियों में उपस्थित बुद्धि निद्रा क्षुधा छाया क्षमा तृष्णा लज्जा कांति श्रद्धा शांति लक्ष्मी वृत्ति स्मृति दया तुष्टि रूपी तत्वों में किया गया है। मूल बात है कि शक्ति ही प्रकृति है और शक्ति से ही सृजन है।

By Kartikey TiwariEdited By: Publish:Wed, 14 Apr 2021 11:30 AM (IST) Updated:Wed, 14 Apr 2021 11:30 AM (IST)
Navratri 2021: या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता...कौन हैं शक्ति? क्या है इसका अर्थ? जानें यहां
Navratri 2021: या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता...कौन हैं शक्ति? क्या है इसका अर्थ? जानें यहां

Navratri 2021: मार्कंडेय पुराण में शक्ति का नमन सभी प्राणियों में उपस्थित बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, क्षमा, तृष्णा, लज्जा, कांति, श्रद्धा, शांति, लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि रूपी तत्वों में किया गया है। इन सभी तत्वों के अलावा शक्ति मातृ रूप में प्रत्येक जीव में प्रस्फुटित होती हैं, क्योंकि शक्ति का अर्थ ही सृजन है, जो प्रकृति का कार्यक्षेत्र है। मूल बात है कि शक्ति ही प्रकृति है और शक्ति से ही सृजन है। जहां भी सृजन हो रहा है, वहां क्रिया महत्वपूर्ण भूमिका में उपस्थित होती है। इसलिए शक्ति और क्रिया, साम‌र्थ्य और कार्य आपस में गुंथे हुए हैं, एक-दूसरे को अलग नहीं किया जा सकता है। इस संसार का गति क्रम बनाए रखने के लिए क्रियाशील रहना आवश्यक है और क्रिया के लिए शक्ति का साथ जरूरी है। वेद-उपनिषद और पुराण हर जगह शक्ति महिमा मंडित है, क्योंकि योगी और गृहस्थ हर एक को शक्ति का साथ चाहिए।

स्वयं शिव कहते हैं कि- जब मैं शक्ति के साथ जुड़ जाता हूं, उस समय मैं ईश्वर बनकर कामनाओं की पूर्ति करने के लिए तत्पर होता हूं। बिना शक्ति के साथ के मैं बिल्कुल ही निस्पंद हूं, जड़ हूं। या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते तंत्र की भाषा में शक्ति चेतना है और विज्ञान की भाषा में शक्ति ऊर्जा या विद्युत है, जो दो तरंगों धनात्मक और ऋणात्मक के जुड़ने से पूर्ण होती है और ऊर्जा का प्रवाह आरंभ होता है। ऊर्जा की आंतरिक गतिविधि को हम रोजमर्रा में देख नहीं पाते, क्योंकि वह हमारे आंखों से ओझल रहता है, लेकिन जिस आधार पर वह खुद को अभिव्यक्त करता है- जैसे बल्ब का प्रकाश, पंखे की हवा, तब वह हमें दिखाई देती है।

स्पष्ट है कि शक्ति अनुभव की वस्तु है और उसे प्रकट होने के लिए आधार की आवश्यकता है, जिससे जुड़ने के बाद शक्ति संचरित होती है। इसलिए शक्ति प्राय: ज्ञान, इच्छा, क्रिया, विचार, योग, कुंडलिनी, ध्यान और ब्रह्म के बराबर सहधर्मिणी की भांति खड़ी होती है और उस तत्व विशेष को आधार बनाकर साधक के जीवन में आंतरिक परिवर्तन की शुरुआत करती है। शक्तिहीनता की स्थिति में कर्म बाधित होता है, किंक‌र्त्तव्यविमूढ़ता से उलझना पड़ता है, भ्रांतियां घनीभूत होती हैं। इन सभी अनुभूतियों का मिला-जुला प्रभाव मनुष्य के मन में भय, अज्ञान और विषाद है और आप डर के प्रभाववश कर्म ही नहीं करना चाहते है।

थोड़ा सोचकर देखें-शक्ति हीनता की स्थिति में आपका नैराश्य और विषाद कुरुक्षेत्र में खड़े अर्जुन के दुख से भिन्न नहीं है, क्योंकि दोनों में कर्म से भागने का भाव बुलंद होता है। गीता में किंक‌र्त्तव्यविमूढ़ अर्जुन को समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृत्तिस्वां नियोक्ष्यतिकर्म नहीं करने का तुमने जो निश्चय लिया है, वह मिथ्या है, क्योंकि कर्म नहीं करने की तुम्हें स्वतंत्रता नहीं है। प्रकृति तुमसे बलात कर्म करा लेगी, क्योंकि प्रकृति अर्थात शक्ति और जहां शक्ति वहां क्रिया।

दूसरी बात समझने की है कि यह प्रकृति कर्म से परिचालित है या फिर कर्म प्रकृति को नियंत्रित करती है? इस तथ्य को समझने के लिए मिट्टी और घड़े के उदाहरण को समझना होगा। घड़े में मिट्टी की प्रमुखता है, लेकिन मिट्टी जो चाहे रूप बदल सकती है- घड़ा या गिलास कुछ भी बन सकती है, अगर योग्य कुम्हार हो। उसी प्रकार, कर्म को स्वतंत्रता है कि वह कुछ भी रच ले- चाहे तो कामनापूर्ति के बंधन में बंध जाए या फिर कर्म करते हुए अपने कर्म संस्कार का क्षय करे, अगर क्रियाशील व्यक्ति चेतना से युक्त है।

- नंदकिशोर श्रीमाली

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