ऊर्जा: सबसे बड़ा सुख- सुख स्वयं को पहचानने में है, सुख तन को नहीं तन में अवस्थित जीवात्मा को चाहिए

तन को माध्यम बनाकर जब परमात्मा से मेल के यत्न किए जाते हैं तब सुख उत्पन्न होता है। जब वह इस दृष्टि से जीवन में व्यवहार करता है तब वह सच्चे सुख की ओर बढ़ता है। आवश्यक है ‘स्व’ को पहचानना और तन के भ्रम से बाहर आना।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 26 Aug 2021 03:23 AM (IST) Updated:Thu, 26 Aug 2021 03:23 AM (IST)
ऊर्जा: सबसे बड़ा सुख- सुख स्वयं को पहचानने में है, सुख तन को नहीं तन में अवस्थित जीवात्मा को चाहिए
सुख और दुख को तन के माध्यम से जीवात्मा ही भोगता है

संसार में सभी सुख के लिए प्रयासरत रहते हैं, किंतु सुख प्राप्त नहीं होता। वास्तव में उन्हें सुख का ज्ञान ही नहीं है। जिसे वे सुख मानते हैं वे दुख का मूल सिद्ध होते हैं। सुख स्वयं को पहचानने में है। पांच तत्वों से रचे हुए तन में अपना अस्तित्व देखना, उस तन को कोई नाम देकर उसमें अपनी पहचान खोजना बड़ा भ्रम है। मनुष्य अपने तन और नाम को अपना अस्तित्व समझकर उसके लिए सुख जुटाता है। तन नाशवान है। तन तब सजीव होता है जब उसमें जीवात्मा अवस्थित होता है। जीवात्मा के न रहने से तन निष्प्रयोज्य हो जाता है। जीवात्मा विहीन तन को कैसी भी सुविधाएं उपलब्ध हों वह उनका लाभ उठाने में असमर्थ होता है। जीवात्मा ऐसे कितने तन धारण कर चुका है, कितने नाम ग्रहण कर चुका है कहा नहीं जा सकता। सुख तन को नहीं तन में अवस्थित जीवात्मा को चाहिए। सुख और दुख को तन के माध्यम से जीवात्मा ही भोगता है। तन जो भी पाप और पुण्य करता है वह जीवात्मा के साथ जाते हैं, क्योंकि जीवात्मा अविनाशी है। प्राय: देखा जाता है कि सारी सुख-सुविधाएं होने के बाद भी मन व्यथित रहता है। ऐसे भी उदाहरण हैं कि सांसारिक पदार्थों और शक्तियों के बिना भी मनुष्य परम आनंद की अवस्था में जीता है। आवश्यक है ‘स्व’ को पहचानना और तन के भ्रम से बाहर आना।

जिसने ‘स्व’ को पहचान लिया वह ऐसे उपाय करेगा जिससे ‘स्व’ को सुख प्राप्त हो। ‘स्व’ अथवा जीवात्मा का सबसे बड़ा दुख परमात्मा से वियोग है। वियोग की पीड़ा तभी शांत होती है जब परमात्मा से मेल और संयोग हो। जीवात्मा का सुख उन उपायों में है, जो परमात्मा के निकट ले जाने वाले हैं। तन को माध्यम बनाकर जब परमात्मा से मेल के यत्न किए जाते हैं तब सुख उत्पन्न होता है। वह जीवात्मा जो जन्मों के पाप, दुख साथ लेकर चल रहा है, उन्हें उतारना मनुष्य का धर्म है। जब वह इस दृष्टि से जीवन में व्यवहार करता है तब वह सच्चे सुख की ओर बढ़ता है।

- डा. सत्येंद्र पाल सिंह

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