Dev Uthani Ekadashi Vrat Vidhi: ऐसे करें देव उठनी एकादशी का व्रत, ये है पूजन की शास्त्रीय विधि

Dev Uthani Ekadashi Vrat Vidhi Dev Uthani Ekadashi Vrat Vidhi देव उठनी एकादशी के दिन व्रत करने वाली महिलाएं प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल को साफ करें और पूजा स्थल पर अथवा आंगन में चौक बनाकर भगवान श्रीविष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें।

By Shilpa SrivastavaEdited By: Publish:Wed, 25 Nov 2020 07:17 AM (IST) Updated:Wed, 25 Nov 2020 07:17 AM (IST)
Dev Uthani Ekadashi Vrat Vidhi: ऐसे करें देव उठनी एकादशी का व्रत, ये है पूजन की शास्त्रीय विधि
Dev Uthani Ekadashi Vrat Vidhi: ऐसे करें देव उठनी एकादशी का व्रत, ये है पूजन की शास्त्रीय विधि

Dev Uthani Ekadashi Vrat Vidhi: देव उठनी एकादशी के दिन व्रत करने वाली महिलाएं प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल को साफ करें और पूजा स्थल पर अथवा आंगन में चौक बनाकर भगवान श्रीविष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें।

ज्योतिषाचार्य साक्षी शर्मा के मुताबिक दिन में चूंकि धूप होती है इसलिए भगवान के चरणों को ढंक दें। रात्रि के समय घंटा और शंख बजाकर निम्न मंत्र से भगवान को जगाएँ-

'उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।

त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥'

'उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।

गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥'

'शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।'

इसके बाद भगवान को तिलक लगाए, श्रीफल अर्पित करें, नये वस्त्र अर्पित करें और मिष्ठान का भोग लगाएं फिर कथा का श्रवण करने के बाद आरती करें और बंधु बांधवों के बीच प्रसाद वितरित करें।

इस व्रत में कथा वाचन का भी महत्व है। आप चाहे तो किसी महंत या पंडित जी से कथा वाचन करवा सकते है अथवा स्वयं भी परिवार को कथा सुना सकते है। कथा इस प्रकार है:-

भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर बड़ा गर्व था। वे सोचती थीं कि रूपवती होने के कारण ही श्रीकृष्ण उनसे अधिक स्नेह रखते हैं। एक दिन जब नारदजी उधर गए तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों। नारदजी बोले, 'नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। अतः तुम भी श्रीकृष्ण को दान रूप में मुझे दे दो तो वे अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे।' सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे दिया। जब नारदजी उन्हें ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया। इस पर नारदजी बोले, 'यदि श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न दे दो तो हम इन्हें छोड़ देंगे।'

तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह देख सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। यह कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला। वे बड़ी लज्जित हुईं। सारा समाचार जब रुक्मिणी जी ने सुना तो वे तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आईं। उस पत्ती को पलड़े पर रखते ही तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए। रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पटरानी थीं। तुलसी के वरदान के कारण ही वे अपनी व अन्य रानियों के सौभाग्य की रक्षा कर सकीं। तब से तुलसी को यह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्रीकृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को तुलसीजी का व्रत व पूजन किया जाता है।

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