परम्परा: तो इसलिए अफीम के खेत में नंगे पैर ही जाता है किसान

अफीम उत्पादक किसान अपने खेतों में नंगे पैर ही क्यों जाते हैं? कई दशकों से चली आ रही है यह परम्परा अब उनके लिए मान्यता बन चुकी है।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Mon, 18 Feb 2019 10:15 AM (IST) Updated:Mon, 18 Feb 2019 10:15 AM (IST)
परम्परा: तो इसलिए अफीम के खेत में नंगे पैर ही जाता है किसान
परम्परा: तो इसलिए अफीम के खेत में नंगे पैर ही जाता है किसान

उदयपुर, सुभाष शर्मा। अफीम उत्पादक किसान अपने खेतों में नंगे पैर ही क्यों जाते हैं? कई दशकों से चली आ रही है यह परम्परा अब उनके लिए मान्यता बन चुकी है। अफीम लुवाई (डोडे के चीरा लगाने) से लेकर अफीम एकत्रित करने तक का सारा कार्य वह पांवों में चप्पल-जूते पहने बगैर ही करते हैं।

अफीम किसान बताते हैं कि अफीम के फूल डोडे में तब्दील हो चुके हैं। अब समय आ चुका है कि डोडे में चीरा लगाकर अब अफीम एकत्रित की जाए। अच्छी फसल का आंकलन खेत में खड़ी हरी फसल और फूलों से नहीं की जा सकती। डोडे से जितनी अफीम निकलेगी, उतनी ही अच्छी फसल कहलाएगी। अच्छी फसल की कामना में ही किसान डोडे पर चीरा लगाने से पहले धार्मिक परम्परा निभाते हैं। जिसे वह लोकल भाषा में नाणा कहा जाता है।

अफीम के फसल पर चीरा लगाने से पहले परम्परागत तरीके से घरों से पूजा की थाली तैयार कर खेत में नवदुर्गा की स्थापना करके पूजा-अर्चना करते हैं। इसके बाद शुभ मुहूर्त पर अफीम के पौधों पर रोली बांधकर डोडे पर चीरे लगाने का काम शुरू किया जाता है। यह सारा काम किसान नंगे पैर ही करता आया है और जब तक अफीम एकत्रित नहीं हो जाती, तब तक वह पांवों में चप्पल-जूता नहीं पहनता।

मेनार क्षेत्र के किसान माधव मेनारिया के अनुसार यहां किसान अफीम लुवाई के काम की ओर बढ़ चुके हैं। एक सप्ताह में डोडे से अफीम निकलना शुरू हो जाएगा। जिसे एकत्रित किया जाएगा। लुवाई से पहले काली माता की स्थापना तथा पूजा-अर्चना की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। पूजा के बाद किसान एक-दूसरे को गुड़-धनिया और नारियल का प्रसाद भी बांटते हैं। अगले सप्ताह से रोजाना किसान चिरे डोडे से निकलने वाले दुग्ध का संग्रहण करेगा। यह एकत्रित दूध सरकार को दिया जाएगा।

ऐसे होती है अफीम की फसल

रबी की फसल में अफीम की खेती शुमार होती है। 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक इसकी बुवाई की जाती है। दिसंबर-जनवरी में यह फसल यौवन पर रहती है एवं डोडियों से पौधे लद जाते हैं। फरवरी के द्वितीय सप्ताह से लेकर मार्च प्रथम सप्ताह तक इसमें चीरा लगता है। डोडे में लगे चीरे से जो दूध निकलता है वही अफीम कहलाता है। बुवाई होने के बाद से चीरा लगने एवं तुलाई नहीं होने तक किसानों की कड़ी मेहनत होती है। डोड़े तैयार होने के बाद विशेष औजार के द्वारा इनको चीरा लगाकर उससे निकलने वाले दूध को भी विशेष तरीके से एकत्रित किया जाता है। यही एकत्रित दूध काला सोना यानि अफीम होती है जो कि एक निर्धारित मात्रा में इकट्ठी कर नारकोटिक्स विभाग को तुलवाई जाती है। मादक पदार्थ की श्रेणी में आने के कारण इस अफीम की सुरक्षा इंतजाम को लेकर काश्तकारों में विशेष चिंता नजर आती है। 

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