चाह का कोई अंत नहीं: रचित मुनि
एसएस जैन स्थानक जनता नगर में विराजित श्री जितेंद्र मुनि म. के सानिध्य में मधुर वक्ता रचित मुनि ने कहा कि उत्तम शौच धर्म यानी मन की पवित्रता का धर्म मन की निर्मलता का धर्म है या यूं कहे कि मन को हल्का करने का धर्म। ये जो लोभ हैं लालच है तृष्णा है और और कि जो भावना है। वही तो हमें भटका रही है। वही तो हमें दौड़ा रही है।
संस, लुधियाना : एसएस जैन स्थानक जनता नगर में विराजित श्री जितेंद्र मुनि म. के सानिध्य में मधुर वक्ता रचित मुनि ने कहा कि उत्तम शौच धर्म, यानी मन की पवित्रता का धर्म, मन की निर्मलता का धर्म है, या यूं कहे कि मन को हल्का करने का धर्म। ये जो लोभ हैं, लालच है, तृष्णा है ,और और कि जो भावना है। वही तो हमें भटका रही है। वही तो हमें दौड़ा रही है। और की चाह में तो आदमी भागता है। इसलिए कहते हैं कि चाह का कोई अंत नहीं है । देखिए जब हम कुछ लिखते हैं। तो वहां पर और शब्द आता है। इसका मतलब कुछ और भी बाकी है, लिखने को, पेज भर जाता है। पेज से पूरी किताब तैयार हो जाती है। परंतु इस मन को कितना ही मिल जाए। फिर भी ये तृप्त नहीं होता । लोभ ही सब पापों की जड़ है, लोभ पाप का भी बाप है। कहते हैं क्रोध की अधिकतम सीमा 48 मिनट तक होती है। मान तब तक बना रहता है। जब तक उसे नीचा न दिखने लगे, मायाचार भी अल्पकाल तक रहता है, लेकिन लोभ एक ऐसी चीज है। जो जन्म से मृत्यु तक बना रहता है। जैसे धन का, नाम का, प्रतिष्ठा का, स्वर्ग का सबका लोभ बना रहता है । क्योंकि लोभ का जन्म तृष्णा से होता है । जैसे-जैसे लाभ पड़ता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। आदमी नहीं, फिर आदमी का लालच दौड़ता है। इसलिए महावीर ने कहा की इच्छाएं आकाश के समान अनंत है, इच्छाओं का दमन लोभी व्यक्ति नहीं कर सकता। संतोषी व्यक्ति ही कर सकता। इस दौरान श्री जितेंद्र मुनि जी ने कहां की संतो के उपदेश यदि व्यक्ति के जीवन में उतर जाए तो वह मनुष्य पर्याय का सच्चा आनंद प्राप्त कर सकता है । साधु संत चलते-फिरते तीर्थ समान है जिनके सानिध्य को अपना परम सौभाग्य मानना, इन्हीं से जीवन का सही व यथार्थ दिशा बोध हो पाता है।