विनय का मतलब अहंकार छोड़कर समर्पण करना
जैन धर्म का पुराना नाम विनय धर्म है। विनय का मतलब अहंकार को छोड़कर समर्पण करना है।
कृष्ण गोपाल, लुधियाना
जैन धर्म का पुराना नाम विनय धर्म है। विनय का मतलब अहंकार को छोड़कर स्वयं का समर्पण करना है। विनय तो संजीवनी बूटी है जो मुर्दे के अंदर भी जान डाल देती है। यदि कुछ पाना है, प्राप्त करना है तो उसके लिए आपको झुकना तो पडे़गा ही। अहंकारी व्यक्ति कभी किसी से कुछ प्राप्त नहीं कर पाता। विनय और समर्पण का भाव इंसान में एक बीज की तरह होना चाहिए जोकि अपने आपको मिटा कर मिट्टी में मिला देता है। विनय का गुण सर्वोपरि है। इससे ऊपर और कोई गुण नहीं है।
अहंकार, क्रोध, असत्य से बचे व्यक्ति
कुलदीप ओसवाल, महेंद्र जैन व विशाल जैन ने कहा कि मनुष्य को अपने जीवन में जो धारण करना चाहिए वही धर्म है। धारण करने योग्य हिसा, क्रूरता, कठोरता, अपवित्रता, अहंकार, क्रोध, असत्य, असंयम, व्यभिचार, परिग्रह आदि विकार हैं। भगवान महावीर स्वामी की तरह ही प्रत्येक व्यक्ति जैन धर्म का ज्ञान प्राप्त कर उसमें सच्ची आस्था रखकर, उसके अनुसार आचरण कर बड़े पुण्योदय से उसे प्राप्त कर दुर्लभ मानव योनी का एकमात्र सच्चा व अंतिम सुख, संपूर्ण जीवन जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने वाले कर्म करते हुए मोक्ष महाफल पाने हेतु कदम बढ़ाना तथा उसे प्राप्त कर वीर महावीर बनकर दुर्लभ जीवन को सार्थक कर सकता है।
प्रवचनों से भगवान महावीर ने मनुष्य को दिया सही मार्गदर्शन
विनोद गोयम, रजनीश गोल्ड स्टार व सुरेश जैन सुर्दमा ने कहा कि भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर भगवान महावीर ने अपना पवित्रा संदेश फैलाया। उन्होंने दुनिया को पंचशील के सिद्धांत बताए। इसके अनुसार ये सिद्धांत सत्य, अपरिग्रह, अस्लेय, अहिसा और क्षमा हैं। उन्होंने दुनिया को सत्य एवं अहिसा जैसे खास उपदेशों के माध्यम से सही राह दिखाने की कोशिश की। अपने अनेक प्रवचनों से मनुष्य का सही मार्गदर्शन किया।
धर्म के सिवाय संसार में कोई भी मनुष्य का रक्षक नहीं
सुरेश कुमार जैन, फूलचंद जैन, नरेंद्र जैन निदी व विपन जैन ने कहा कि भगवान महावीर कहते हैं कि धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिसा, संयम और तप ही धर्म हैं जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। धर्म भावना से चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म व्यक्ति के आचरण को पवित्र एवं शुद्ध बनाता है। धर्म से सृष्टि के प्रति करुणा एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है। भगवान महावीर ने प्राणीमात्र की हितैषिता एवं उनके कल्याण की दृष्टि से धर्म की व्याख्या की। धर्म के सिवाय संसार में कोई भी मनुष्य का रक्षक नहीं है।