प्रिंसिपल परविंदर कौर बोलीं, सार्वजनिक संपत्ति को अपना समझने की जरूरत
ऐसी संपत्ति जिनका उपयोग आम जनता के लिए होता है वह सार्वजिनक संपत्ति कहलाती है। इस संपत्ति के सम्मान का कार्यभार सरकार द्वारा किया जाता है। सार्वजिनक संपत्ति हमारे दिए हुए टैक्स से ही बनती है। सरकार के साथ-साथ हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह इसका सम्मान करे।
लुधियाना : ऐसी संपत्ति जिनका उपयोग आम जनता के लिए होता है, वह सार्वजिनक संपत्ति कहलाती है। इस संपत्ति के सम्मान का कार्यभार सरकार द्वारा किया जाता है। सार्वजिनक संपत्ति हमारे दिए हुए टैक्स से ही बनती है। सरकार के साथ-साथ हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह इसका सम्मान करे। कुछ वर्षों से देश में नागरिक अधिकारों व प्रजातंत्र के नाम पर ऐसे व्यवहार का प्रदर्शन किया जाने लगा है कि एक बार में यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि इसे राष्ट्रहित कहें या फिर राष्ट्रद्रोह। राजनीतिक रूप से किसी बंद का नारा हो या फिर छोटी-छोटी नागरिक समस्याओं को लेकर प्रदर्शन करना हो, सड़क जाम कर लोगों को असुविधा में डालना तथा सरकारी संपत्ति का नुकसान करना, यह सब अब रोज की बात है। शुरुआती दौर में यह कभी-कभार देखने को मिलता था लेकिन अब तो मानो इसे एक हथियार बना दिया गया हो। आज स्थिति यह है कि किसी मोहल्ले में बिजली की परेशानी हो या फिर पानी की समस्या, देखते ही देखते लोग सड़क जाम कर धरना-प्रदर्शन शुरू कर देते हैं। पुलिस के थोड़ा भी बल प्रयोग या विरोध से यह प्रदर्शन आगजनी व तोड़फोड़ के हिसक प्रदर्शन में बदल जाता है। थोड़ी ही देर मे कई सरकारी वाहनों को आग के हवाले कर दिया जाता है। सब कुछ शांत हो जाने पर इस भीड़तंत्र का कुछ नही बिगड़ता। एक औपचारिक पुलिस रिपोर्ट अनजान चेहरों की भीड़ के नाम लिखा दी जाती है। इस तरह की रिपोर्ट लिखवाने का मकसद ऐसे तत्वों को सजा दिलवाना नहीं बल्कि सरकारी स्तर पर अपनी खाल बचाना होता है। खाना पूर्ति के बाद लाखों करोड़ों के सरकारी नुकसान को बट्टे खाते मे डाल कर फाइल बंद कर दी जाती है। यहां गौरतलब यह भी है कि सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के इस कार्य का विस्तार अब सिर्फ राजनीतिक प्रदर्शनों या नागरिक धरनों तक सीमित नहीं है। नक्सलवाद व क्षेत्रीयवाद के नाम पर भी ऐसा किया जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह है कि अपने गुस्से का इस प्रकार से इजहार करते हुए शायद ही कभी किसी ने सोचने की जहमत उठाई हो कि आखिर यह सरकारी संपत्ति आई कहां से? क्षण मात्र यह विचार मस्तिष्क में कौंध जाए तो संभवत: उठे हुए हाथ वहीं ठहर जाएं, लेकिन ऐसा होता नही है। जिस तरह से सार्वजनिक स्थलों व सेवाओं के प्रति हमारी एक लापरवाह व स्वार्थी मानसिकता बन गई है, उसे देखते हुए कानून का भय जरूरी हो गया है। बेशक मन से न सही, कम से कम सजा के भय से तो कुछ अच्छे परिणाम मिलने की संभावना बनेगी। इसलिए अब जरूरत इस बात की है कि इस कानून को यथाशीघ्र सामयिक व सख्त बना कर देश भर मे लागू किया जाए तथा सरकारी संपत्ति के प्रति जो नजरिया बन गया है उसे बदला जाए। यदि सार्वजनिक संपत्ति सुरक्षित होगी तो इसका सम्मान भी अपने आप होगा।
- प्रिं. परविदर कौर, प्रताप पब्लिक स्कूल, हंबड़ा रोड