प्रशासकीय कांप्लेक्स की भूलभुलैया, अफसरों को ढूंढने में जनता की फूल रही सांसे

कहने को तो दफ्तरों व अफसरों की जानकारी देने के लिए यहां पूछताछ केंद्र बना है लेकिन उस पर लगा ताला खुद उसी की पूछताछ न होने की गवाही देता है।

By Vikas KumarEdited By: Publish:Tue, 18 Feb 2020 03:55 PM (IST) Updated:Tue, 18 Feb 2020 03:55 PM (IST)
प्रशासकीय कांप्लेक्स की भूलभुलैया, अफसरों को ढूंढने में जनता की फूल रही सांसे
प्रशासकीय कांप्लेक्स की भूलभुलैया, अफसरों को ढूंढने में जनता की फूल रही सांसे

जालंधर [मनीष शर्मा]। जिले के बड़े अफसरों के दफ्तरों वाला जिला प्रशासकीय परिसर आम जनता के लिए किसी भूलभुलैया से कम नहीं है। डिप्टी कमिश्नर व इक्का-दुक्का बड़े अफसरों को छोड़ दें तो बाकियों को ढूंढने में तीन मंजिला परिसर की सीढिय़ां चढऩे में दम फूल जाता है। इस दफ्तर में कौन सा अफसर कहां बैठता है, इसके बारे में कोई सूचना बोर्ड तक नहीं है। अफसर का दफ्तर ढूंढ लेने के बाद नेम प्लेट के तौर पर ही बोर्ड लगा दिखता है। जिस तरह सुरक्षा को लेकर इस परिसर के कैंची गेट को सिर्फ एक आदमी के घुसने लायक छोड़ा गया है, उतनी सतर्कता लोगों को दफ्तर का पता बताने में कहीं नजर नहीं आती। कहने को तो दफ्तरों व अफसरों की जानकारी देने के लिए यहां पूछताछ केंद्र बना है लेकिन उस पर लगा ताला खुद उसी की पूछताछ न होने की गवाही देता है। नतीजतन लोग यहां-वहां भटकते रहते हैं।

यूं ही बदनाम नहीं आरटीए दफ्तर

बेशक राज्य की कैप्टन सरकार ने डीटीओ दफ्तर का नाम बदलकर आरटीए तो कर दिया है लेकिन कामकाज के हालात नहीं बदले। लर्निंग ड्राइविंग लाइसेंस बनाने की प्रक्रिया का ही उदाहरण देख लीजिए। हाल ही में काम सेवा केंद्रों को दिया गया तो वहां सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में ऑनलाइन ट्रैफिक चिन्ह पहचानने का टेस्ट होता है। वो भी अकेले आवेदक को ही देना होता है। अब जरा आरटीए के बस स्टैंड के पास स्थित ड्राइविंग ट्रैक का हाल देखिए। यहां कंप्यूटर पर आरटीए का कर्मचारी ही काबिज रहता है। माउस भी उसी के हाथ में होता है। बगल में आवेदक बैठा होता है। आवेदक से जवाब पूछे जाते हैं और क्लिक कर्मचारी करता है। अब ऐसे में यह टेस्ट कितना निष्पक्ष होगा, आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। बात अफसरों तक भी पहुंच चुकी है लेकिन सुनवाई न करने की परंपरा को अफसरों ने कायम रखा है।

डीसीपी ने दिखाया आइना

सरकारी कुर्सी मिलते ही नौकर अपने आप को मालिक आमजन से भी बड़ा समझने लगते हैं। लोगों के टैक्स से वेतन लेने वाले ढंग से बातचीत करना तो दूर फोन तक उठाना भी मुनासिब नहीं समझते। पुलिस कमिश्नरेट के बड़े अफसरों का भी यही हाल है, खुद कमिश्नर गुरप्रीत सिंह भुल्लर तक फोन से दूरी बनाकर रखते हैं। ऐसे में चंडीगढ़ डीजीपी दफ्तर से बदलकर आए पीपीएस अफसर अरुण सैनी ने फोन न उठाने वाले अफसरों को आइना दिखाया है। डीसीपी हेडक्वार्टर के तौर पर नियुक्त हुए अरुण सैनी ने दफ्तर के बाहर नेम प्लेट के साथ अपना मोबाइल नंबर भी लिखवा दिया है। अगर वो दफ्तर नहीं हैं तो किसी को पूछने की जरूरत नहीं, सीधे उनके नंबर पर फोन मिलाकर बात कर सकते हैं। उनके रीडर के दफ्तर के बाहर भी रीडर का नंबर लिखवा दिया है ताकि किसी को भटकना न पड़े। शायद बाकी भी कुछ सीखें।

बड़ी कमी के आगे चालाकी छोटी

हाल ही में जिला प्रशासन ने वोटर वेरीफिकेशन प्रोग्राम के आंकड़े जारी किए। आंकड़ों में कहा गया कि पिछले लोकसभा चुनाव में जिले में मतदाताओं की संख्या 16.11 लाख थी, जो अब घटकर 16 लाख रह गई। इस लिहाज से तो सिर्फ 11 हजार मतदाता ही घटे। मगर, ऐसा था नहीं। क्योंकि कमी तो बाइस हजार मतदाताओं की हुई थी। प्रशासन के आंकड़ों की बाजीगरी की पड़ताल हुई तो समझ आया कि वेरीफिकेशन में काटी तो 22 हजार वोटें ही थीं लेकिन 11 हजार नई भी बना दी गईं। बस आंकड़े इधर-उधर कर पुराने कटे व नए जुड़े 11 हजार मतदाताओं का आंकड़ा घुमा दिया गया। आंकड़ों के साथ अफसरों का खेला गया यह खेल ज्यादा दिन छुप न सका और उनकी  चालाकी की सारी पोल खुलकर कर सामने आ गई। अब तो अफसर भी मान रहे हैं कि इस बार सही तरीके से वेरीफिकेशन इसी साल हुई है।

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