कोरोना पाबंदियों का विरोध कर किसान संगठन की ट्रैक्टर परेड जैसी गलती, कहीं पड़ न जाए भारी

Farmers Coronavirus Protocol Violation किसान नेताओं का तर्क है कि सरकार कोरोना की आड़ में किसान संगठनों की आवाज दबाना चाहती है। ऐसे में कृषि कानूनों के विरोध में दोबारा एकजुट होने से पहले कोरोना पाबंदियों संबंधी सरकारी आदेशों का उल्लंघन बेहद जरूरी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 11 May 2021 11:29 AM (IST) Updated:Tue, 11 May 2021 03:12 PM (IST)
कोरोना पाबंदियों का विरोध कर किसान संगठन की ट्रैक्टर परेड जैसी गलती, कहीं पड़ न जाए भारी
अमृतसर में सप्ताहांत लॉकडाउन के चलते बंद पड़ी दुकानों को जबरदस्ती खुलवाते हुए भारतीय किसान यूनियन उगराहां के सदस्य। फाइल

चंडीगढ़, अमित शर्मा। Farmers Coronavirus Protocol Violation देशभर में बढ़ते कोरोना संक्रमण के बीच बीते शनिवार पंजाब में जहां मौतों का आंकड़ा 10 हजार की संख्या पार कर गया, वहीं इसी दिन हठर्धिमता का भौंडा प्रदर्शन करते हुए राज्य के 32 किसान संगठनों के नेताओं ने राज्य भर में कोविड प्रोटोकॉल की जम कर धज्जियां उड़ाईं। राज्य सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन, कर्फ्यू व अन्य पाबंदियों के विरोध में उतरे इन किसान संगठन के नेताओं ने राज्य भर में न सिर्फ दुकानदारों पर दबाव बनाया कि वे सरकारी आदेशों को अनदेखा कर अपनी दुकानें खोलें, बल्कि कई जिलों में निकाले गए किसान मार्च के दौरान कोरोना वैक्सीन को ‘मोदी की वैक्सीन’ बताते हुए गांवों में टीकाकरण अभियान का बहिष्कार करने के लिए सरेआम उकसाया भी। अपने इस बेतुके आह्वान के पक्ष में इन किसान नेताओं का तर्क है कि सरकार कोरोना की आड़ में किसान संगठनों की आवाज दबाना चाहती है। ऐसे में कृषि कानूनों के विरोध में दोबारा एकजुट होने से पहले कोरोना पाबंदियों संबंधी सरकारी आदेशों का उल्लंघन बेहद जरूरी है।

किसान संगठनों की यह चिंता कितनी वाजिब है इस बात पर तो विवाद हो सकता है, लेकिन इस चिंता के निवारण के लिए अपनाए जा रहे इस तरह के हथकंडों के पक्ष में शायद देशभर में एक व्यक्ति भी न हो। शायद वह दुकानदार भी नहीं जिनकी भलाई का हवाला देकर किसान नेता जबरदस्ती दुकानें खोलने का लगातार दबाव बना रहे हैं। पंजाब के तो अधिकतर दुकानदारों और व्यापार मंडलों ने उसी दिन किसान नेताओं को दो टूक शब्दों में कह दिया कि कोरोना के खिलाफ इस जंग में वह पूरी तरह से प्रशासन के साथ हैं। गत बुधवार कुंडली बॉर्डर पर हुई किसान संगठनों की बैठक में हुए इस अर्तािकक फैसले के पीछे के कारण कुछ भी रहे हों, लेकिन इतना स्पष्ट है कि लगभग छह महीने से किसान आंदोलन की अगुआई कर रहे किसान नेताओं ने पिछले घटनाक्रम से कोई सबक नहीं लिया है।

अब यह हठर्धिमता और अंधविरोध की पराकाष्ठा ही है कि इसी फरमान से बंधे भारतीय किसान यूनियन एकता उगराहां के बरनाला यूनिट के पदाधिकारी गांव-गांव ‘दोबारा दिल्ली चलो’ का आह्वान करते हुए जहां यह कहते फिर रहे हैं कि ‘हमें चीनी वायरस से नहीं मोदी की वैक्सीन से डर लगता है’, वहीं गुरनाम सिंह चढूनी सरीखे नेता लुधियाना आकर सलाह देते हैं कि अगर कोरोना से किसी भी किसान की मौत हो जाती है तो उसकी मृत देह को श्मशान घाट ले जाने से पहले उस इलाके के भाजपा नेताओं के घर लेकर जाएं। खैर, सुकून की बात यह है कि पिछले तीन दिनों में जिस कदर राज्य में किसान परिवारों समेत सूबे के तमाम लोगों ने कृषि संगठनों के ऐसे आह्वानों को सिरे से नकार दिया है उससे स्पष्ट है कि आने वाले समय में संयुक्त किसान मोर्चा का यह ‘फरमान’ भी एक बड़ी गलती साबित होगा।

तो क्या ऐसे फरमानों से आंदोलन सफल होगा या विफल? हमेशा की तरह एक बार तो किसी भी किसान नेता को यह सीधा सवाल पेचीदा लगेगा, लेकिन सच्चाई यही है कि पिछले 160 दिनों में ऐसे अनेक अर्तािकक फैसलों पर बोलने वाले संयुक्त किसान मोर्चा के तमाम नेता या तो स्वयं ही सवालों के घेरे में आ गए या उनका हर जवाब दस नए सवाल खड़े करता चला गया। अब यह सवाल चाहे केंद्र सरकार से चल रही वार्ता को केवल ‘हां या ना’ तक सीमित करने के निर्णय से जुड़े हों या फिर टीकरी बॉर्डर पर धरने पर बैठी बंगाल की एक महिला के कथित दुष्कर्म और कोरोना संक्रमण से हुई मौत के घटनाक्रम को लेकर। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि महामारी के दिन प्रतिदिन बढ़ते प्रकोप से जानबूझ कर अनभिज्ञता जताते ये किसान संगठन जहां एक तरह कह रहे हैं कि वे सरकार से दोबारा बातचीत के लिए तैयार हैं और आशावादी हैं वहीं पंजाब के गांवों से लेकर टीकरी और सिंघु बॉर्डर तक प्रशासन का सहयोग करने से साफ गुरेज कर रहे हैं। बिना मास्क और शारीरिक दूरी के नियमों को ताक पर रखते हुए भारी भीड़ का जमावड़ा कर रोज रोष सभाएं आयोजित की जा रही हैं।

मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह यह कहते हुए कि मात्र 32 किसान यूनियनों का मोर्चा इस संकट काल में सरकार या राज्य की जनता पर मनमानी से अपनी राय नहीं थोप सकता, पुलिस और प्रशासन को इस तरह के उल्लंघन को सख्ती से निपटने के आदेश तो जारी करते हैं, लेकिन धरातल पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। जहां राजनीतिक दल भी इस मसले पर चुप्पी साधे हैं वहीं मीडिया या न्यायपालिका भी किसान नेताओं को यह समझाने की जहमत नहीं उठा रहा कि हक की लड़ाई अपनी जगह है और हठर्धिमता को आधार बना आमजन की सेहत से खिलवाड़ अपनी जगह। शायद इसकी यही वजह है कि जब कोई इनके खिलाफ टिप्पणी करता है तो आंदोलन के पक्ष में खड़ा तबका एक स्वर में मानो बशीर बद्र के यह बोल दोहरा देता है :

जाओ उन कमरों के आईने उठा कर फेंक दो, बे-अदब ये कह रहे हैं

हम पुराने हो गए।

[स्थानीय संपादक, पंजाब]

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