Punjab Election 2022: बिखराव से जूझते दलों का दांव, बसपा-शिअद गठबंधन: नजरों में पंजाब, निशाने पर यूपी

पंजाब की सियासी स्थिति बदल चुकी है। कांग्रेस के अंदर गुटबाजी खुलकर सामने आ गई है। भाजपा-शिअद गठबंधन टूटने के बाद शिअद ने बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। भाजपा के खिलाफ कुछ किसान संगठनों और आढ़तियों का विरोध जारी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 25 Jun 2021 10:18 AM (IST) Updated:Fri, 25 Jun 2021 01:43 PM (IST)
Punjab Election 2022: बिखराव से जूझते दलों का दांव, बसपा-शिअद गठबंधन: नजरों में पंजाब, निशाने पर यूपी
पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अभी से बिछने लगी है बिसात। फाइल

चंडीगढ़, अमित शर्मा। अगले वर्ष गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव होंगे। इनमें पंजाब ऐसा सूबा है जहां के चुनावी नतीजों में निहित है देशभर में बिखरती कांग्रेस को उज्ज्वल भविष्य की आस। किसान हित का वास्ता देकर एनडीए से अलग हो चुका शिरोमणि अकाली दल (शिअद) भी इन्हीं चुनावों से अपने पुन: उत्थान की गाथा लिखने की उम्मीद बांधे है। पंजाब के चुनाव यह भी तय करेंगे कि क्या अरविंद केजरीवाल दिल्ली से हटकर किसी अन्य राज्य में जीत दर्ज करने का सामथ्र्य रखते हैं या नहीं। वर्षो से लंबित कृषि सुधारों को लागू कर किसान हित का झंडा बुलंद करती भाजपा के लिए भी यह चुनावी संग्राम बहुत महत्वपूर्ण होने वाला हैं। चुनाव से इसका जवाब भी मिलेगा कि क्या जनांदोलनों की अनदेखी राजनीतिक दलों को भारी पड़ सकती है है या नहीं?

कहां खड़ी है कांग्रेस : मार्च महीने तक तो पंजाब में कांग्रेस का पलड़ा लगभग भारी नजर आ रहा था, पर वर्ष 2015 में अकाली-भाजपा सरकार के कार्यकाल में श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअबदी से जुड़े कोटकपूरा गोलीकांड में पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के एक फैसले ने सब बदल दिया। बेअदबी कांड की जांच के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा गठित एसआइटी की जांच रिपोर्ट सिरे से खारिज करते हुए हाई कोर्ट की तल्ख टिप्पणियों ने न सिर्फ हाशिये पर पहुंचे अकाली दल में जान फूंक दी, बल्कि कांग्रेस में बगावत का ऐसा बीज बोया कि साढ़े चार साल तक लगभग हर मुद्दे पर हमलावर रुख अपनाती आई सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार अचानक रक्षात्मक मुद्रा में आ गई। नवजोत सिंह सिद्धू से लेकर प्रताप सिंह बाजवा और दर्जनों विधायकों से लेकर सात कैबिनेट मंत्री कैप्टन से सीधे टकराव की स्थिति में आ गए।

प्रदेश कांग्रेस के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी मुख्यमंत्री को अपना पक्ष रखने के लिए आलाकमान द्वारा गठित विशेष कमेटी के आगे पेश होना पड़ा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और कुशासन के आरोपों से घिरी कांग्रेस पूरी तरह से अपने आप को सत्ता विरोधी लहर से अछूता रख पाएगी। राज्य में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और शिअद का चुनावी गठबंधन अगर वोटों में तब्दील होता है तो इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भी कांग्रेस को ही होगा, क्योंकि अकाली दल ने जो 20 सीटें बसपा को दी हैं उनमें से 18 पर इस समय कांग्रेस का कब्जा है।

बिखराव से जूझ रही शिअद : उधर राज्य के दूसरे बड़े दल शिअद में आज भी बिखराव की स्थिति जस की तस है। पूर्व राज्यसभा सदस्य सुखदेव सिंह ढींडसा और रंजीत सिंह जैसे टकसाली अकाली नेता अपना अलग अकाली दल बनाकर चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे हैं। यह नया अकाली दल बेशक उतना मजबूत नहीं है, पर यह शिअद को नुकसान पहुंचाने का सामथ्र्य तो जरूर रखता है। दूसरी तरफ भाजपा से 25 वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ने के बाद जातीय समीकरण को देखते हुए शिअद ने बसपा के साथ गठबंधन किया है।

गठबंधन से अकाली दल राहत तो जरूर महसूस कर रहा है, लेकिन अकाली नेतृत्व इस तथ्य से भी भलीभांति वाकिफ है कि पंजाब में जातिगत राजनीति का समीकरण बहुत ही जटिल है। वैसे तो राज्य में दलित वर्ग की आबादी 34 फीसद है, लेकिन ग्रामीण बेल्ट में यह फीसद 37 तक पहुंच जाता है। भौगोलिक दृष्टि से ब्यास तथा सतलुज नदी के बीच आने वाले जिलों में तो दलित आबादी 50 फीसद तक पहुंच जाती है, जिन्हें दोआबा बेल्ट के नाम से जाना जाता है। यह भी सत्य है कि इस वर्ग का समूचा वोट कभी भी किसी एक पार्टी के हिस्से नहीं आया है। पंजाब में दलित आबादी का लगभग 40 अलग-अलग समुदायों प्रमुखत: रामदासिया, मजहबी सिख, वाल्मीकि, ईसाई दलित, जाटव इत्यादि में बंटा होना इसका प्रमुख कारण है। सो बसपा से गठबंधन कर दलित वोट बैंक पर शिअद का एकाधिकार समझना किसी राजनीतिक भूल से कम भी नहीं।

आप की चुनौती : आम आदमी पार्टी (आप) की सबसे बड़ी चुनौती है एक ऐसे चेहरे की खोज, जो पंजाब में पार्टी को पुनर्जीवित कर सके। फिलहाल ऐसा चेहरा उसके पास है नहीं और अपनी पिछली गलतियों से सबक न लेने की तो मानो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने जिद ही पकड़ रखी है। धर्म या जातिगत समीकरणों से ओतप्रोत परंपरागत राजनीति से हट कर आम आदमी से जुड़े बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों को उछाल दिल्ली में सत्ता में आई आप एक बार फिर पंजाब में उन्ही गर्मख्यालियों और पंथक राजनीति के फेर में उलझती दिख रही है जिसने 2017 के चुनावों से ऐन पहले पार्टी को जीत के दरवाजे से बैरंग वापस लौटा दिया था। मंगलवार को अमृतसर दौरे के दौरान जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने खुलकर ‘सिख पंथ’ से जुड़े किसी नामी चेहरे को मुख्यमंत्री बनाने का एलान किया उससे यह सुगबुगाहट तो होने ही लगी है कि केजरीवाल दोबारा 2017 वाले ट्रैक पर निकल पड़े हैं।

हालांकि 2017 में आप के टिकट पर जीते 20 विधायकों में से केवल 10 ही आज पार्टी के साथ हैं। अधिकतर कद्दावर नेता पार्टी से किनारा कर चुके हैं। सुखपाल सिंह खैहरा जैसे जट सिख चेहरे को बाद में दिल्ली के नेतृत्व ने नकार दिया। खैहरा अब कांग्रेस में हैं। एक समय में सिख पंथ से जुड़े मामलों में पार्टी का पंथक चेहरा बने हरविंद्र सिंह फुल्का भी पार्टी से अलग हो चुके हैं। नेतृत्व और केजरीवाल के तानाशाही रवैये पर सवाल उठाने पर दो सांसद पटियाला से धर्मवीर गांधी और फतेहगढ़ साहिब से हरिंदर सिंह खालसा 2015 में ही पार्टी से निलंबित कर दिए गए थे। अब संगरूर के सांसद भगवंत मान को भी आज दिल्ली बैठे आप के नेता किनारे करने पर आमादा हैं।

भाजपा के पास है मौका : अकाली दल से चुनावी करार टूटने के बाद भाजपा चुनावी नतीजों की परवाह किए बिना पंजाब में खुल कर फ्रंटफुट पर खेल सकती है। कृषि सुधार संबंधी कानूनों को लेकर हो रहे लगातार विरोध के बीच पंजाब भाजपा के लिए ‘और अधिक खोने के डर’ से कहीं ज्यादा आगामी चुनाव ‘कुछ न कुछ हासिल’ करने का मौका जरूर साबित हो सकता है। इसे लेकर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने तो उसी समय कवायद शुरू कर दी थी जब राज्य में भाजपा के संगठन मंत्री दिनेश कुमार ने भाजपा की तरफ से पंजाब को पहला दलित सिख मुख्यमंत्री देने का एलान कर दिया था।

भाजपा द्वारा ऐसी घोषणा के तुरंत बाद ही जहां शिअद ने अपनी सरकार बनने पर डिप्टी चीफ मिनिस्टर का पद दलित वर्ग के लिए आरक्षित करने की घोषणा की और उसके कुछ दिनों बाद ही बसपा से चुनावी करार कर लिया, वहीं सतारूढ़ कांग्रेस और आप को भी दलित समुदाय को प्रतिनिधित्व देने हेतु वचनबद्ध होना पड़ा। इसमें हैरानी नहीं होगी अगर आने वाले दिनों में भाजपा जातिगत चुनावी रणनीति का वही फार्मूला पंजाब में लागू करे, जिसके तहत इसने हरियाणा में जाट बनाम गैर जाट और फिर झारखंड में आदिवासी बनाम गैर आदिवासी लड़ाई का स्वरूप देकर सरकारें बनाने की सफल कोशिश की थी। पंजाब में हिंदू और दलित वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए भाजपा कहीं न कहीं इस चुनावी संग्राम को सिख बनाम गैर सिख बनाकर अपने लिए एक सकारात्मक सहज राजनीतिक माहौल बनाने की कोशिश अवश्य कर सकती है। हालांकि भाजपा को हिंदू कार्ड की जगह दलित कार्ड को ज्यादा तवज्जो देना महंगा भी पड़ सकता है, क्योंकि पंजाब में हिंदू हमेशा से कांग्रेस में विश्वास जताते रहे हैं।

वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना : बहरहाल राज्य में जैसे हालात बन रहे हैं, एक बात तो तय है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वोटों का खूब ध्रुवीकरण होगा। कहीं दलित समाज इसका केंद्र बिंदु होगा तो कहीं जट सिख बनाम गैर जट राजनीति वोटों का बंटवारा करेगी। परंपरागत वोट बैंक की बात करें तो जहां कांग्रेस का मुख्य वोट प्रतिशत दलित सिख और हिंदू वर्ग से आता है वहीं अकाली दल एक तरह से मुख्यधारा के सिखों और धनी जटों (जट सिख) में अपनी पैठ से ही सत्ता में आता है। आप अभी तक राज्य में अपना कोई विशेष वोट बैंक स्थापित नहीं कर पाई है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि इस बार पंजाब की स्थिति काफी बदल चुकी है। बसपा का शिअद से गठबंधन जहां ग्रामीण दलित वोट को एकजुट कर वोट शेयर में बदलाव लाएगा, वहीं 25 वर्षो तक लगातार हिंदू-सिख एकता के प्रतीक रहे अकाली-भाजपा गठबंधन में दरार अब नि:संदेह राज्य में हिंदू वोट बैंक को भी नए सिरे से अपनी राजनीतिक प्राथमिकताएं तय करने पर बाध्य करेगी।

बसपा-शिअद गठबंधन: नजरों में पंजाब, निशाने पर यूपी : बसपा से गठबंधन के साथ ही अकाली दल की उत्तर प्रदेश में पार्टी के राजनीतिक विस्तार की संभावनाओं से जुड़ी वर्षो पुरानी महत्वाकांक्षाओं के पर निकल आना भी स्वाभाविक है। पार्टी नेता दबी जुबान में यहां-वहां कहते फिर रहे हैं कि ‘बहन जी’ से ग्रीन सिग्नल लेकर पार्टी नेताओं ने यूपी में सिख और पंजाबी बाहुल्य सीटों को चिन्हित भी कर लिया है। मजेदार बात तो यह है कि बसपा और अकाली दल के राजनीतिक गुणा-भाग में बसपा के हिस्से पंजाब में जो 20 सीटें आई हैं उनमें से जिस तरह अधिकतर सीटों पर अकाली दल कभी भी जीत हासिल नहीं कर पाया है, ठीक उसी तरह शिअद के लिए चिन्हित की गई सीटों पर 2007 के अलावा बसपा कभी भी जीती नहीं है।

उत्तर प्रदेश में अकाली दल के विस्तार को लेकर पिछले तीन वर्ष से सक्रिय लोकसभा सदस्य प्रेम सिंह चंदूमाजरा की मानें तो यूपी में 40 से अधिक सीटों पर सिखों और पंजाबी मूल के वोटर न सिर्फ अच्छा प्रभाव रखते हैं, बल्कि इनका अपना निर्णायक वोट बैंक किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में पड़ने वाले वोट का फीसद बढ़ाने-घटाने का माद्दा भी रखता है। पूर्व में पंजाब में अकाली भाजपा के गठबंधन का सीधा फायदा उत्तर प्रदेश के चुनावों में इन सीटों पर भाजपा को ही मिलता रहा है। अब पंजाब में शिअद से गठबंधन कर मायावती भी उसी रणनीति पर चलती दिख रही हैं, जिसके तहत 2015 में शिअद के वरिष्ठ नेता बलवंत सिंह रामूवालिया को समाजवादी पार्टी में शामिल कर तत्कालीन सरकार में मंत्री पद देकर अखिलेश यादव ने तराई इलाकों के वोट बैंक को साधने का प्रयास किया था।

[स्थानीय संपादक, पंजाब]

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