आसान नहीं है क्षेत्रीय दलों का संयुक्त मोर्चा बनाना, पंजाब से सुखबीर बादल की पहल पर लगी सबकी नजर
पंजाब से देश में क्षेत्रीय दलाें का संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल की पहल पर सबकी नजर लग गई है। इसके बावजूद इस तरह के मोर्चे का गठन आसान नहीं है।
चंडीगढ़ , [इन्द्रप्रीत सिंह]। शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल भले ही क्षेत्रीय पार्टियों को इकट्ठा करके संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयास कर रहे हों, लेकिन यह आसान नहीं है। इसमें सबसे बड़ा संकट लीडरशिप का है। क्षेत्रीय पार्टियों में कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसके नेतृत्व में सभी दल काम करने को तैयार हो जाएं। देश में विभिन्न क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप अपने राज्यों में खुद को सियासी सिरमौर समझते हैं। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर इस मोर्चे के अगुवा को लेकर पेंच फंस सकता है और उनके बीच सुखबीर बादल के स्थान को लेकर संशय है। ममता बनर्जी ,शरद पवार और चंद्रबाबू नायडू सरीखे नेताओं के होते सुखबीर बादल का इस मोर्चे में क्या स्थान होगा यह भी साफ नहीं लग रहा है।
ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे क्षत्रपों की मौजूदगी में सुखबीर बादल की भूमिका व स्थान पर संशय
काबिले गौर है कि पिछले दिनों शिअद ने एक तीन सदस्यीय कमेटी बनाकर जब विभिन्न राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों के प्रमुखों से बात की तो सभी ने इस बात पर सहमति जताई कि अगर प्रकाश सिंह बादल पार्टियों का तालमेल बनाएं तो सभी एकजुट हो सकती हैं लेकिन शिअद का नेतृत्व वाली भूमिका में होना मुश्किल है।
इसका सबसे बड़ा कारण प्रकाश सिंह बादल का पिछले लंबे समय से अपने आप को सक्रिय राजनीति से दूर कर रखना है। वह न तो पार्टी के प्रोग्राम में हिस्सा लेते हैं और ही किसी मामले में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। 94 वर्षीय इस वयोवृद्ध नेता ने तीन कृषि कानूनों को सराहने वाला वीडियो जारी करने के बाद कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। साफ है कि वह अब सक्रिय राजनीति का हिस्सा नहीं रहना चाहते।
शिरोमणि अकाली दल के मीडिया सलाहकार हरचरण बैंस ने इस बाबत कहा कि क्षेत्रीय दलों के लिए फिलहाल लीडरशिप कोई मुद्दा नहीं है। ममता बनर्जी, चंद्र बाबू नायडू सहित कई नेता ऐसे हैं जो लीडर बन सकते हैं। हमारे लिए फिलहाल सभी ऐसे दलों को एकजुट करना है जो क्षेत्रीय हों और फैडरल सिस्टम के बारे में सोचते हों।
बैंस का मानना है कि क्षेत्रीय दल भाजपा और कांग्रेस के साथ बड़ा मोर्चा खड़ा नहीं कर सकते क्योंकि ये दोनों नेशनल पार्टियां भरोसे के लायक नहीं हैं। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मजबूत संघवाद की बात करते थे लेकिन जब से वे प्रधानमंत्री बने हैं , संघवाद को भूल ही गए हैं। उलटा सभी शक्तियों का केंद्रीयकरण करने में लगे हुए हैं जिससे राज्यों का नुकसान हो रहा है। इसलिए हमारी पहली प्राथमिकता ऐसी पार्टियों को एकजुट करने की है जो मजबूत संघवाद की बात करें। उन्होंने कहा कि ये पार्टियां अपने अपने प्रदेश में अगर किसी नेशनल पार्टी के साथ समझौता करना चाहती हैं तो कर लें लेकिन नेशनल पार्टियां क्षेत्रीय दलों के मोर्चे में नहीं हो सकतीं।
अब सवाल उठता है कि ऐसी कौन सी पार्टियां हैं जो किसी न किसी नेशनल पार्टी के साथ समझौते में नहीं हैं। मसलन खुद अकाली दल पिछले अढ़ाई दशक तक भाजपा का साथी रहा है। महाराष्ट्र में शिवसेना पहले भाजपा और कांग्रेस के साथ है। एनसीपी भी कांग्रेस के साथ है। डीएमके का भी तामिलनाडू में कांग्रेस के साथ समझौता है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस के साथ है तो जनता दल यूनाइटेड भाजपा गठजोड़ का बिहार में हिस्सा है। ऐसे में मात्र चार पांच क्षेत्रीय पार्टियां ही ऐसी हैं जो अपने अपने दम पर राज्यों में लड़ रही हैं लेकिन ये केंद्र की मोदी सरकार को 2024 में चुनौती दे पाएं, यह मुश्किल लगता है।