पंजाब में खिसकती जमीन बचाने को शिअद का आखिरी दांव, जानें गठजोड़ तोड़ने का असली कारण
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा से गठजोड़ तोड़कर अपनी खिसकती सियासी जमीन बचाने की आखिरी कोशिश की है। कृषि विधेयक पर अपेन रुख पर घिरने के बाद शिअद ने यह दांव खेला। किसान आंदाेलन से शिअद का सियासी आधार खिसक रहा था।
चंडीगढ़, जेएनएन। शिरोमणि अकाली दल ने कृषि विधेयकों से पैदा हालात के बीच राजग और भाजपा से संबंध तोड़़कर अपनी खिसकती सियासी जमीन बचाने की कोशिश की है।। यह उसका अपना जनाधार बचाने के लिए आखिरी दांव है, खासकर 2022 में होनेवाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर। वैसे किसानों के आंदोलन के कारण पांच साल बाद शिअद के लिए सियासी जनाधार को लेकर चुनौती पेश हुई है।
किसान वोट बैंक के हाथ से निकलने के भय से लिया फैसला
दरअसल वर्ष 2015 के जुलाई महीने और 2020 के सितंबर महीने में एक चीज की समानता है। उस समय बठिंडा में सात दिनों तक किसान रेल ट्रैक पर बैठे रहे थे। इससे तत्कालीन सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल के लिए परेशानी बढ़ती जा रही थी। उन्हीं दिनों में श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाएं हुईं और शिअद की साख काफी धूमिल हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी 2017 के चुनाव में अपने इतिहास की सबसे कम 15 सीटों पर सिमट गई। इन तीन सालों में शिअद ने अपनी साख बहाल करने की पूरी कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हुआ।
अब पांच साल बाद एक बार फिर से किसान रेल ट्रैक पर बैठे हैं। इस बार उनकी मांग नए खेती विधेयकों को लागू न करने को लेकर है। शिअद की साख एक बार फिर से दांव पर लगी है। क्योंकि जिस केंद्र सरकार ने इन्हें पारित किया है, शिअद उस सरकार का हिस्सा था। तीन महीने तक पार्टी इन अध्यादेशों का समर्थन करती रही और पंजाब में उनके खिलाफ विरोध पनपता रहा।
65 फीसद आबादी वाली ग्रामीण सीटों पर चुनाव लड़ता रहा है शिअद
इससे पहले कि पार्टी की बची-खुची साख भी खत्म हो जाती, पार्टी ने केंद्र सरकार को अलविदा कह दिया, लेकिन पार्टी पर दबाव एनडीए से बाहर आने का भी था। शनिवार को देर रात साढ़े तीन घंटे की मीटिंग में शिरोमणि अकाली दल ने भारतीय जनता पार्टी से अपना नाता तोड़ लिया। इसके साथ ही ढाई दशक पुराना रिश्ता टूट गया।
भाजपा से रिश्ता तोडऩा पार्टी का आखिरी दांव रहा।
असल में शिअद का सबसे बड़ा वोट बैंक किसान ही हैं। राज्य की 65 फीसद आबादी वाली ज्यादातर ग्रामीण सीटों पर अकाली दल लड़ता रहा है, लेकिन इन विधेयकों ने पार्टी के लिए संकट खड़ा कर दिया। अब भाजपा से नाता तोड़कर पार्टी अपनी उसी साख बहाल करने में जुटी है। इसलिए हर स्टेज पर पार्टी प्रधान सुखबीर बादल अपने सबसे पुराने सहयोगी भाजपा के खिलाफ जिस तरह से बोल रहे हैं, उतना तो वह कभी अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ भी नहीं बोले। सुखबीर जानते हैं कि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो पंजाब में शिरोमणि अकाली दल का नामोनिशान मिट जाएगा।
नहीं बचा था कोई विकल्प
दरअसल पार्टी की फिलॉसफी का मुख्य आधार ही अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करना, संघीय ढांचे को बनाकर रखना है, लेकिन सीएए का मुद्दा हो, जीएसटी लगाकर वित्तीय अधिकार अपने पास रखने का मुद्दा हो या जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने का, शिअद ने भाजपा का साथ दिया। पार्टी के इन फैसलों का जबरदस्त विरोध भी हुआ, लेकिन शिअद पीछे नहीं हटा।
अब कृषि विधेयकों के चलते किसानों ने जबरदस्त विरोध शुरू किया तो पार्टी नेताओं के पास इसे सरकार व एनडीए से नाता तोडऩे का कोई विकल्प नहीं रह गया। अपनी खिसकती जमीन को बचाने के लिए शिरोमणि अकाली दल ने अपना आखिरी दांव भी चल दिया।
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