चुनावी राह में और बढ़ीं मायावती की दुश्वारियां, भाजपा का साथ देने की बयानबाजी से छिटक सकते हैं मुस्लिम
यूपी विधान परिषद चुनाव में सपा को सबक सिखाने की सौगंध के साथ भाजपा के प्रति जो नरम रुख बसपा मुखिया मायावती ने दिखाया है उसके हानिकारक परिणाम आंके जा रहे हैं और अब तक उनके साथ कड़ा मुस्लिम मतों का एक वर्ग उनसे बिदक सकता है।
लखनऊ [अजय जायसवाल]। उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव को लेकर चले शह-मात के खेल में समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी के बागियों को शह क्या दी, बिफरीं मायावती ने खुद के लिए मुश्किलों भरी राह अपना ली है। विधान परिषद चुनाव में समाजवादी पार्टी को सबक सिखाने की सौगंध के साथ भारतीय जनता पार्टी के प्रति जो नरम रुख बसपा मुखिया ने दिखाया है, उसके हानिकारक परिणाम आंके जा रहे हैं और अब तक उनके साथ कड़ा मुस्लिम मतों का एक वर्ग उनसे बिदक सकता है। यही नहीं, भाजपा के जो असतुष्ट अपने लिए बसपा में संभावनाएं देख रहे थे, वह भी दूरी बना लेंगें। एसी स्थिति में मायावती के लिए अपना कुनबा बढ़ाना तो दूर, सिमटते जा रहे साम्राज्य को संभालने की भी चुनौती होगी।
अब तक तो विरोधी ही मायावती पर भाजपा से साठ-गांठ का आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन गुरुवार को बसपा सुप्रीमो ने खुद ही सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर तीखे प्रहार करते हुए उन्हें सबक सिखाने के लिए भाजपा का साथ देने तक का एलान कर दिया। इससे सूबे का सियासी माहौल एकदम से गरमा गया है। हालात इशारा कर रहे हैं कि इंतकाम की ये कहानी अगले डेढ़ बरस यानी विधानसभा चुनाव तक चलती रहेगी। फिलहाल तो नुकसान नीले खेमे में ही नजर आ रहा है।
मुस्लिम समाज के निशाने पर मायावती : उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम उसके साथ जाता रहा है, जो भाजपा को हराने की स्थिति में हो। मुस्लिम मतों को लुभाने के लिए खुद को उनका सच्चा हितैषी बताते हुए मायावती भी पूर्व में न केवल उन्हें ज्यादा टिकट देती रहीं, बल्कि भाजपा से साठ-गांठ के आरोपों को भी सिरे से खारिज करती रहीं। लेकिन, अब वे सीधे तौर पर मुस्लिम समाज के निशाने पर होंगी। बसपा से बगावत करने वाले विधायक असलम अली कहते हैं कि हम लोग तो भाजपा के खिलाफ ही लड़कर आए हैं, लेकिन अब पार्टी ही भाजपा के साथ जा रही है।
सपा के लिए शुभ संकेत : गौर करने की बात यह भी है कि सत्ताधारी भाजपा से असंतुष्ट नेताओं का रुख भी अब बसपा के बजाए सपा व अन्य पार्टियों की तरफ होगा। चूंकि कांग्रेस व आम आदमी पार्टी को अभी सूबे में पैर जमाने के लिए खुद ही बहुत मेहनत करनी है, इसलिए असंतुष्टों की पहली पसंद सपा ही बनती दिख रही है। जिन सीटों पर भाजपा के विधायक हैं और वहां पिछले चुनाव में बसपा दूसरे स्थान पर रही है, वहां से चुनाव लड़ने वाले खास तौर से सपा का दामन थामने को तैयार दिख रहे हैं।
दलित सीटों पर बसपा की कमजोर होती पकड़ : भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का भी मानना है कि अगला विधानसभा चुनाव तो हमें सपा के खिलाफ ही लड़ना है। बसपा तो कहीं की नहीं रहेगी। कभी मायावती के करीबी रहे बसपा के बागियों का दावा है कि बसपाई कुनबे के कई और विधायक व नेता भी पार्टी को छोड़ने को तैयार हैं। बस, विधानसभा चुनाव और थोड़ा नजदीक आ जाएं। गिनती के केवल वही विधायक बसपा के साथ रहेंगे, जिनके विधानसभा क्षेत्र में दलित वोटर बड़ा फैक्टर हैं। हालांकि, दलित वोटों में भाजपा अपनी नीतियों से सेंधमारी करती जा रही है और भीम आर्मी भी दलित युवाओं को आकर्षित कर रही है, जिससे दलित बहुल सीटों पर भी बसपा की पकड़ लगातार कमजोर होती दिख रही है।