11 साल से विवाद में उड़ रहे राफेल को कांग्रेस ने भी दी थी मंजूरी, जानें- विवाद की वजह

वर्ष 2007 से राफेल डील पर पेंच फंसा हुआ है। 2011 में वायु सेना भी इसे मंजूरी दे चुकी है। तमाम खासियतों की वजह से इसे छह लड़ाकू विमानों में से चुना गया था। जानें राफेल की खासियतें।

By Amit SinghEdited By: Publish:Fri, 14 Dec 2018 12:23 PM (IST) Updated:Fri, 14 Dec 2018 05:51 PM (IST)
11 साल से विवाद में उड़ रहे राफेल को कांग्रेस ने भी दी थी मंजूरी, जानें- विवाद की वजह
11 साल से विवाद में उड़ रहे राफेल को कांग्रेस ने भी दी थी मंजूरी, जानें- विवाद की वजह

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। फ्रांस के साथ हुई लड़ाकू विमान राफेल की डील को सुप्रीम कोर्ट ने क्लीन चिट दे दी है। सुप्रीम कोर्ट ने डील की जांच की मांग संबंधी याचिका को खारिज करते हुए कहा कि इसकी पूरी प्रक्रिया में कोई संदेहास्पद पहलू नहीं है। आइये हम आपको बताते हैं कि क्या है राफेल डील और क्यों इसे लेकर देश में राजनीतिक बवंडर मचा रहा। साथ ही यहां हम आपको इस लड़ाकू विमान की कुछ खासियतें भी बता रहे हैं।

मालूम हो कि फ्रांस से हुए 36 राफेल लड़ाकू विमान समझौते पर पक्ष-विपक्ष के बीच आरोपों-प्रत्योरोपों का दौर संसद से सड़क तक जारी रहा। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार सार्वजनिक मंचों से राफेल डील में घोटाले के आरोप लगाते रहे हैं। इस डील में घोटाले का आरोप लगाते हुए वह लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमले करते रहे हैं। 

विपक्ष में इस डील में घोटाले को मुद्दा बनाकर कई दिनों तक संसद की कार्रवी ठप रखी तो कई बार प्रधानमंत्री का इस्तीफा तक मांग चुकी है। हालांकि प्रधानमंत्री सहित केंद्र सरकार के तमाम मंत्री और भाजपा के बड़े नेता इस डील में घोटाले की आशंका को नकारते रहे हैं। अब सुप्रीम कोर्ट की फैसले के बाद केंद्र सरकार को इस डील पर बड़ी राहत मिली है।

क्या है समझौता
सितंबर 2016 में मोदी सरकार ने फ्रांस से 7।87 अरब यूरो (करीब 58 हजार करोड़ रुपये) में 36 राफेल लड़ाकू विमानों को खरीदने का समझौता किया था। विपक्ष के आरोपों के विपरीत केंद्र सरकार का दावा है कि इस समझौते में फ्रांस द्वारा मांगी जाने वाली मूल कीमत में 32।8 करोड़ यूरो की बचत की गई है। 15 फीसद कीमत का भुगतान अग्रिम किया जाना था।

समझौते की प्रमुख शर्तें
इस समझौते में 50 फीसद का एक ऑफसेट नियम भी लगाया गया था। इसके तहत फ्रांस, समझौते की मूल कीमत यानी 7।87 अरब यूरो के 30 फीसद हिस्से को भारत के मिलिट्री एयरोनॉटिकल्स संबंधी रिसर्च कार्यक्रमों में निवेश करेगा। कुल कीमत का 20 फीसद फ्रांस, भारत में राफेल कल-पुर्जों के उत्पादन में निवेश करेगा। मतलब इसके कलपुर्जे भारत में ही बनेंगे। समझौते के तहत फ्रांस, भारत को कल-पुर्जों के साथ उन्नत श्रेणी की मीटिओर और स्कैल्प मिसाइलें भी देगा। इन्हें दुनिया की सबसे आधुनिक मिसाइलों में गिना जाता है। चीन और पाकिस्तान के पास भी इतने अत्याधुनिक हथियार नहीं है और न ही इन हथियारों का कोई तोड़ मौजूद है। इस वजह से भी भारत के लिए राफेल डील काफी महत्वपूर्ण है।

समझौते में शामिल अन्य प्रमुख हथियार
राफेल समझौते को लेकर शुरुआती बातचीत के बाद मूल पैकेज में दूसरे हथियारों को भी शामिल किया गया था। इसमें कुछ निम्न प्रकार हैं-

स्कैल्प: लंबी दूरी की जमीन से हमला करने वाली अचूक मिसाइल। मारक क्षमता 300 किमी, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम प्रतिबंधों से लैस है।

मीटियोर: विजुअल रेंज से परे, हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइल। अपनी श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ, 100 किमी दूर ही दुश्मन के विमान को निशाना बनाने में सक्षम है।

भारतीय जरूरत मुताबिक किए गए बदलाव
राफेल लड़ाकू विमान अपने आप में खास हैं, लेकिन भारतीय जरूरतों के मुताबिक इसमें कुछ बदलाव भी किए गए हैं।  शार्ट नोटिस पर हथियारों को मार गिराने के लिए हेलमेट माउंटेड साइट्स और टारगेटिंग सिस्टम। लेह जैसे अधिक ऊंचाई पर स्थित एयर बेस से उड़ान भरने के लिए अतिरिक्त क्षमता के साथ क्विक रिएक्शन डिप्लॉयमेंट। मिसाइल हमलों से मुकाबला करेन की प्रणाली।

भारतीय कंपनियों के लिए भी काम
राफेल समझौते में मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने के लिए भारतीय निजी कंपनियों की भी अहम भूमिका रखी गई। तीन अरब यूरो का काम अगले 7-8 साल के दौरान भारतीय निजी क्षेत्र को करना है। रिलायंस डिफेंस इस काम की बड़ी भागीदार बनेगी।

संप्रग सरकार में शुरू हुई थी खरीद प्रक्रिया
2007 में संप्रग सरकार ने ही वायु सेना के लिए 126 मीडियम मल्टी रोल कांबैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) के लिए निविदा निकाली थी। कई कंपनियों से लंबे समय तक बातचीत के बाद राफेल और यूरोफाइटर टायफून अंत तक दौड़ में शामिल रहीं। हालांकि कीमत को लेकर मामला जमा नहीं और समझौता नहीं हो सका था। लिहाजा अब संप्रग विपक्ष की भूमिका में इस डील को लेकर सवाल खड़े कर रही है।

सरकार का सस्ते में खरीदने का दावा
राफेल समझौते की लागत में वीपंस सिस्टम, पांच साल के लिए सपोर्ट, प्रशिक्षण, इंफ्रास्ट्रक्चर और वारंटी शामिल है। समझौते के अनुसार यदि वीपंस, प्रशिक्षण आदि चीजों की लागत न जोड़ी जाए तो सिंगल सीट वाले राफेल की प्रति यूनिट कीमत 9।17 करोड़ यूरो है। मौजूदा राजग सरकार का दावा है कि इसी चीज के लिए 2014 की संप्रग सरकार ने 10।08 करोड़ यूरो का मोल-भाव किया था। हाल ही में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि हमने राफेल को संप्रग की कीमत से नौ फीसद सस्ता खरीदा है।

सुखोई पर भारी राफेल
वर्तमान में भारतीय वायुसेना का मुख्य लड़ाकू विमान रूस से खरीदा गया सुखोई विमान है। रक्षा मंत्रालय का मानना है कि राफेल की खासियतें उसे सुखोई से ज्यादा कारगर बनाती हैं। राफेल, सुखोई के मुकाबले काफी छोटे क्षेत्र में गुलाटी मार सकता है। सुखोई-30 के मुकाबले इसकी रेंज 1।5 गुना ज्यादा है। राफेल की मारक क्षमता 780-1055 किमी है, जबकि सुखोई की मारक क्षमता 400-550 किमी है। राफेल 24 घंटे में पांच चक्कर लगाने में सक्षम है, वहीं सुखोई-30 केवल तीन चक्कर लगा सकता है। राफेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि यह एक बार में 3800 मिलोमीटर तक की उड़ान भर सकता है।

अटल सरकार ने तैयार किया था प्रस्ताव
वायुसेना की मांग पर अटल बिहारी वायपेयी की एनडीए सरकार ने 126 लड़ाकू विमानों को खरकीदने का प्रस्ताव सबसे पहले तैयार किया था। बाद में इस प्रस्ताव को कांग्रेस सरकार ने आगे बढ़ाया। अगस्त 2007 में तत्कालीन रक्षा मंत्री और रक्षा खरीद परिषद के मुखिया एके एंटनी ने 126 लड़ाकू विमानों की खरीद को मंजूरी प्रदान कर दी। इसके बाद इसकी निविदा प्रक्रिया शुरू हुई।

छह लड़ाकू विमानों में चुना गया था राफेल
राफेल डील, मीडियम मल्टी रोल कॉम्बेट एयरक्राफ्ट का हिस्सा है। इसे रक्षा मंत्रालय ने भारतीय वायुसेना लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट और सुखोई के बीच के अंतर को खत्म करने के लिए शुरू किया था। इस डील में अमेरिका का बोइंग एफ/ए-18ई/एफ सुपर हॉरनेट, फ्रांस का डसॉल्ट राफेल, ब्रिटेन का यूरोफाइटर, अमेरिका का लॉकहीड मार्टिन एफ-16 फाल्कन, रूस का मिखोयान मिग-35 और स्वीडन का साब जैस 39 ग्रिपेन लड़ाकू विमान शामिल था। इन सबके बीच राफेल को इसिलए चुना गया क्योंकि राफेल की कीमत अन्य लड़ाकू विमानों की तूलना में कम थी और इसका रख-रखाव भी सस्ता था।

2011 में वायु सेना ने दी थी सहमति
राफेल लड़ाकू विमानों को चुने जाने के बाद भी ये डील कई सालों तक कीमतों के पेंच और विवादों की वजह से फंसी रही। भारतीय वायुसेना ने कई विमानों के तकनीकी परीक्षण और मूल्यांकन के बाद वर्ष 2011 में राफेल और यूरोफाइटर टाइफून के लिए सहमति दे दी थी। इसके बाद वर्ष 2012 में राफेल को एल-1 बिडर घोषित किया गया। इसके बाद इसके मैन्युपैक्चरर दसाल्ट एविएशन के साथ निविदा को फाइनल करने पर बाचतीच शुरू हुई। इसके बाद भी कीमतों और समझौते की अन्य शर्तों की वजह से वर्ष 2014 तक डील तय नहीं हो सकी थी।

कब क्या हुआ साल 2007 में वायुसेना की ओर से मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (MMRCA) खरीदने का प्रस्ताव सरकार को भेजा गया। इसके बाद भारत सरकार ने 126 लड़ाकू विमानों को खरीदने का टेंडर जारी किया। जिन लड़ाकू विमानों को खरीदना था, उनमें अमेरिका के बोइंग F/A-18 सुपर हॉरनेट, फ्रांस का डसाल्‍ट राफेल, ब्रिटेन का यूरोफाइटर, अमेरिका का लॉकहीड मार्टिन F-16 फाल्‍कन, रूस का मिखोयान MIG-35 और स्वीडन के साब JAS-39 ग्रिपेन जैसे एयरक्राफ्ट शामिल थे। इसमें डसाल्‍ट एविएशन के राफेल ने बाजी मारी। 4 सितंबर 2008 को रिलायंस ग्रुप ने रिलायंस एयरोस्पेस टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (RATL) नाम से एक नई कंपनी बनाई। इसके बाद RATL और डसाल्‍ट के बीच बातचीत हुई और ज्वाइंट वेंचर बनाने पर सहमति बन गई।इसका मकसद भविष्य में भारत और फ्रांस के बीच होने वाले सभी करार हासिल करना था। मई 2011 में एयर फोर्स ने राफेल और यूरो फाइटर जेट्स को शॉर्ट लिस्टेड किया। जनवरी 2012 में राफेल को खरीदने के लिए टेंडर सार्वजनिक कर दिया गया। इस पर राफेल ने सबसे कम दर पर विमान उपलब्ध कराने को बोली लगाई। शर्तों के मुताबिक भारत को 126 लड़ाकू विमान खरीदने थे।इनमें से 18 लड़ाकू विमानों तैयार हालत में देने की बात थी, जबकि बाकी 108 विमान Dassault की मदद से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) द्वारा तैयार किया जाना था।  13 मार्च 2014 तक राफेल विमानों की कीमत, टेक्नोलॉजी, वेपन सिस्टम, कस्टमाइजेशन और इनके रख रखाव को लेकर बातचीत जारी रही। साथ ही HAL और डसाल्‍‍‍ट एविएशन के बीच इसको बनाने के समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। यूपीए शासनकाल में राफेल को खरीदने की डील को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। हालांकि कांग्रेस पार्टी दावा करती है कि उसने 526।1 करोड़ रुपए प्रति राफेल विमान की दर से डील की थी।  इसके बाद एनडीए सत्ता में आई और 28 मार्च 2015 को अनिल अंबनी के नेतृत्व में रिलायंस डिफेंस कंपनी बनाई गई। 10 अप्रैल 2015 को पीएम मोदी ने फ्रांस की राजधानी पेरिस का दौरा किया और उड़ान के लिए तैयार 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने के अपनी सरकार के फैसले का ऐलान किया। इस दौरान उन्होंने कहा कि भारतीय वायुसेना के लिए ये विमान खरीदना बेहद जरूरी है। जून 2015 में रक्षा मंत्रालय ने 126 एयरक्राफ्ट खरीदने का टेंडर निकाला। दिसंबर 2015 में रिलायंस इंटरटेनमेंट ने फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ओलांद की पार्टनर जूली गयेट की मूवी का-प्रोडक्शन में 16 लाख यूरो का निवेश किया। फ्रांस के अखबार मीडिया पार्ट के मुताबिक यह निवेश फ्रांस के एक व्यक्ति के इनवेस्टमेंट फंड के जरिए किया गया, जो अंबानी को पिछले 25 वर्षों से जानता था।हालांकि, जूली गयेट के प्रोडक्शन रॉग इंटरनेशनल ने अनिल अंबानी या रिलायंस के प्रतिनिधियों से मुलाकात करने की बात को खारिज कर दिया। सितंबर 2016 को भारत और फ्रांस के बीच 36 राफेल विमान खरीदने की फाइनल डील पर दस्तखत हुए। इन विमानों की कीमत 7।87 बिलियन यूरो रखी गई। इस डील के मुताबिक इन विमानों की डिलीवरी सितंबर 2018 से शुरू होने की बात कही गई। फरवरी 2017 को डसाल्‍ट रिलाएंस एयरोस्‍पेस लिमिटेड (DRAL) ज्वाइंट वेंचर को गठित किया गया। इस दौरान कांग्रेस ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने HAL को दरकिनार करके अनिल अंबानी की रिलायंस को डील दिलाई। सितंबर 2018 को राफेल डील पर मचे घमासान के बीच अब फ्रांस्वा ओलांद ने नया खुलासा किया। फ़्रेंच अखबार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस का नाम खुद भारत सरकार ने सुझाया था। हालांकि फ्रांस सरकार और डसाल्‍ट ने इससे किनारा किया है लेकिन विपक्ष के आरोपों को बल मिल गया है। दिसंबर 2018 राफेल डील पर सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को क्‍लीन चिट दी।

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