कांग्रेस की दुविधा से क्षेत्रीय दल भी परेशान, विपक्षी राजनीति के लिए साबित हो रहा नुकसानदेह

कांग्रेस का संगठन चुनाव टाले जाने को लेकर संप्रग के पुराने घटक दलों के कुछ नेताओं ने अनौपचारिक बातचीत में कहा कि वास्तव में उसका यह कदम विपक्षी राजनीति के लिए नुकसानदेह है। कांग्रेस अंदरूनी झगड़े में जितने समय तक उलझी रहेगी उसका एक-एक दिन विपक्ष के लिए भारी पड़ेगा।

By Arun kumar SinghEdited By: Publish:Sat, 23 Jan 2021 09:36 PM (IST) Updated:Sat, 23 Jan 2021 09:36 PM (IST)
कांग्रेस की दुविधा से क्षेत्रीय दल भी परेशान, विपक्षी राजनीति के लिए साबित हो रहा नुकसानदेह
कांग्रेस ने अपने नए अध्यक्ष का चुनाव पांच महीने के लिए टालकर

 नई दिल्ली, संजय मिश्र। कांग्रेस ने अपने नए अध्यक्ष का चुनाव पांच महीने के लिए टालकर लंबे अर्से से ठहराव की स्थिति में खड़ी विपक्षी राजनीति की गाड़ी के आगे बढ़ने का इंतजार और बढ़ा दिया है। चुनाव टलने से साफ हो गया है कि आपसी झगड़े में पार्टी यह तय नहीं कर पा रही कि देश की राजनीति ज्यादा बड़ी है या कांग्रेस की अंदरूनी चुनौती। पार्टी की यह दुविधा विपक्षी राजनीति की अगुआई के लिए कांग्रेस की ओर निहार रहे क्षेत्रीय दलों को भी अब परेशान करने लगी है।

कांग्रेस का संगठन चुनाव टाले जाने को लेकर संप्रग के पुराने घटक दलों के कुछ नेताओं ने अनौपचारिक बातचीत में कहा कि वास्तव में उसका यह कदम विपक्षी राजनीति के लिए नुकसानदेह है। कांग्रेस अपने अंदरूनी झगड़े में जितने समय तक उलझी रहेगी, उसका एक-एक दिन विपक्ष के लिए भारी पड़ेगा। इन नेताओं का कहना था कि वर्तमान राजनीतिक व आर्थिक परिदृश्य में मजबूत और आक्रामक विपक्ष सियासत की अपरिहार्य जरूरत है। स्वाभाविक रूप से इसमें कांग्रेस के नेतृत्व की सबसे अहम भूमिका है। मगर विडंबना यह है कि इस भूमिका में ऊर्जा लगाने के बजाय पार्टी अपने नए नेतृत्व की दुविधा में फंसी हुई है।

लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद जून 2019 में राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया और जून 2021 में नए अध्यक्ष के चुनाव तक दो साल बीत जाएगा। कांग्रेस के साथी दलों के नेताओं का कहना है कि अपने नेतृत्व को लेकर असमंजस के कारण वास्तव में इन दो वर्षो में पार्टी ने विपक्षी सियासत को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया है। खासकर ऐसे समय जब कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था लगभग तबाही की स्थिति में है और रोजगार का गंभीर संकट है। कृषि कानूनों पर किसानों के आंदोलन के कारण सरकार घिरी हुई है। ऐसे में पूरा देश इस समय विपक्ष की ओर देख रहा है। मगर मुख्य विपक्षी दल अपने नेता को ही ढूंढने में लगी हुई है। 

इससे पूर्व भी नागरिकता संशोधन कानून से लेकर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) जैसे मुद्दे भी सरकार की परेशानी का सबब थे। मगर विपक्ष की कमजोरी यहां भी साफ नजर आई। कांग्रेस के साथी दलों के नेताओं का यह आकलन इसलिए भी गैरमुनासिब नहीं है कि लंबे समय तक नेतृत्व को लेकर दुविधा की स्थिति ने ही पार्टी में असंतोष के बीज को जन्म दिया। दुविधा की लंबी अवधि से नेतृत्व की सियासी सीमाएं व कमजोरियां दोनों सामने आईं और स्वाभाविक रूप से असंतुष्ट नेताओं ने इन्हें भांपते हुए ही अपना दबाव बढ़ाया है। 

इस दुविधा का ही नतीजा है कि कुछ ऐसी ही चुनौती कांग्रेस को सहयोगी क्षेत्रीय दलों की तरफ से आती दिख रही है। कांग्रेस के नेतृत्व पर असमंजस के कारण विपक्षी राजनीति के खालीपन को भरने के लिए कभी राकांपा प्रमुख शरद पवार तो कभी तूणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को संप्रग के अध्यक्ष की कमान सौंपने की आवाज उठाई जा रही है। इसीलिए यह सवाल उठने लगा है कि कांग्रेस की अंदरूनी चुनौती पार्टी के लिए देश की राजनीति से ज्यादा बड़ी तो नहीं बन गई। 

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