जानिए, कश्मीर में अलगाववादियों की सुरक्षा हटाने के सियासी मायने क्या हैं?

पुलवामा हमले के बाद राज्‍य शासन के सुरक्षा वापस लेने के फैसले ने अलगाववादियों को भीतर से हिला दिया है। यह कार्रवाई हुर्रियत के दोनों गुटों को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से प्रभावित करेगी। वहीं, भाजपा की सियासत को भी फायदा पहुंचाएगी।

By Nancy BajpaiEdited By: Publish:Mon, 18 Feb 2019 08:59 AM (IST) Updated:Mon, 18 Feb 2019 08:59 AM (IST)
जानिए, कश्मीर में अलगाववादियों की सुरक्षा हटाने के सियासी मायने क्या हैं?
जानिए, कश्मीर में अलगाववादियों की सुरक्षा हटाने के सियासी मायने क्या हैं?

जम्मू, नवीन नवाज। Pulwama Terror Attack, पुलवामा हमले के बाद राज्‍य शासन के सुरक्षा वापस लेने के फैसले ने अलगाववादियों को भीतर से हिला दिया है। यह कार्रवाई हुर्रियत के दोनों गुटों को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से प्रभावित करते हुए कश्मीर मुद्दे पर बने गतिरोध को दूर करने से लेकर भाजपा की सियासत को फायदा पहुंचाएगी। अलगाववादियों को रणनीति दोबारा तय करने पर मजबूर होना पड़ेगा। हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा वापसी का संकेत केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने शुक्रवार को दे दिया था।

इन अलगाववादी नेताओं का हटा सुरक्षा कवच
उन्होंने श्रीनगर में कहा था कि यहां कुछ लोग पाकिस्तान और आइएसआइ से पैसा लेते हैं। वह लोग यहां हालात बिगाड़ रहे हैं। इनमें कुछ लोगों को सरकारी सुरक्षा मिली है। इस पर दोबारा विचार किया जाएगा। राज्यपाल के दिल्ली पहुंचने के बाद ही राज्य प्रशासन ने शनिवार को अलगाववादियों की सुरक्षा की समीक्षा करते हुए उन्हें आवंटित सुविधाओं का ब्योरा तैयार कर दिया था। रविवार सुबह राज्य गृह विभाग ने केंद्र की हरी झंडी मिलते ही मीरवाइज मौलवी उमर फारूक, बिलाल गनी लोन, यासीन मलिक, हाशिम कुरैशी, प्रो. अब्दुल गनी बट और शब्बीर शाह का सुरक्षा कवच हटा दिया।

अंजुमन-ए-शरियां-शिया के चेयरमैन आगा हसन बडगामी, फजल-हक-कुरैशी और एक पूर्व हिज्ब कमांडर के अलावा दो से तीन अन्य हुर्रियत नेताओं को भी सरकारी सुरक्षा मिली है। अलगाववादियों के साथ बतौर अंगरक्षक तैनात अधिकांश पुलिस कर्मियों को आसानी से नहीं पहचाना जा सकता है, क्योंकि यह उनके साथ उनके कार्यकर्ताओं की तरह रहते हैं। कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी, अशरफ सहराई और जेकेएलएफ चेयरमैन मोहम्मद यासीन मलिक को सुरक्षा नहीं मिली है। इसकी पुष्टि खुद भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राममाधव ने की है।

हाशिम कुरैशी को कश्मीर में कोई भी अलगाववादी नहीं मानता
यह बात दीगर है कि भाजपा के नेता ही ज्यादातर समय गिलानी, अशरफ सहराई, मलिक व उनके कुछ अन्य साथियों की सुरक्षा का ढोल पीटते हैं, लेकिन इनमें से किसी के पास सुरक्षा नहीं है। शब्बीर शाह फिलहाल जेल में बंद है, लेकिन घर में सुरक्षा के दावे किए है। जिन अलगाववादियों की सुरक्षा हटाई है, उनमें से कोई भी कट्टरपंथी नहीं है। हाशिम कुरैशी को कश्मीर में कोई भी अलगाववादी नहीं मानता। सभी उन्हें भारत समर्थक बताते हैं और कहते हैं कि वर्ष 1971 में उन्होंने गंगा विमान को हाईजैक कर कश्मीरियों या पाक की मदद नहीं की थी, बल्कि बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करने की भारतीय रणनीति को आगे बढ़ाया था। हुर्रियत का कोई भी खेमा उन्हें स्वीकार नहीं करता और उनकी सियासत अन्य अलगाववादियों से अलग रहती है।

कश्मीर की सियासत पर नजर रखने वालों का मानना
कश्मीर की सियासत पर नजर रखने वाले सीधे शब्दों में कहते हैं कि मीरवाइज, बिलाल गनी लोन और प्रो. अब्दुल गनी बट की अलगाववादी सियासत पाकिस्तानी एजेंडे की तरफ 14 साल बाद वर्ष 2014 के दौरान ही दोबारा शिफ्ट हुई है। तीनों कश्मीर मसले पर भारत सरकार के साथ हमेशा बातचीत के पक्षधर रहे हैं। केंद्र से बातचीत में हिस्सा ले चुके हैं। वर्ष 2002 के विधानसभा चुनावों से पहले अगर अब्दुल गनी लोन की हत्या न हुई होती तो इनके कई उम्मीदवार प्रत्यक्ष रूप से चुनाव में नजर आते। अपने नरम रवैये और कश्मीर में अमन के लिए बातचीत के लिए केंद्र के साथ संवाद के लिए तैयार रहने के लिए उचित मौका तलाशने वाला यह गुट शुरू से ही आतंकी संगठनों के निशाने पर रहा है।

मीरवाइज के पिता को आतंकियों ने मारा
मीरवाइज के पिता, बिलाल गनी लोन के पिता और अब्दुल गनी बट के भाई को आतंकी मौत के घाट उतार चुके हैं। इनकी विश्वसनीयता पर कश्मीरी अलगाववादी खेमा कई बार सवाल उठा चुका है। कश्मीर की अलगाववादी सियासत में इनकी पकड़ चार वर्षों के दौरान दोबारा थोड़ी मजबूत हुई है। उसका श्रेय किसी हद तक केंद्र और 2016 के हालात रहे हैं। शब्बीर शाह बेशक इनसे अलग हैं। बातचीत के मुद्दे पर हालात साजगार होने और आतंकियों का दबाव न होने की स्थिति में खुलकर केंद्र के प्रतिनिधियों से संपर्क में रहते रहे हैं।

अलगाववादियों की सियासत प्रभावित होगी
सुरक्षा हटाने से एक तरह से पांचों अलगाववादियों की सियासत प्रभावित होगी। आतंकियों से बचने के लिए इनके पास दो विकल्प रह जाएंगे। पहला यह कि कट्टरपंथी अलगाववादियों की जमात में शामिल हों, या फिर अपनी और परिजनों को आतंकियों से बचाने के लिए अलगाववाद को गुडबाय बोल कश्मीर के भारत विलय के सच को स्वीकारते हुए शांत हो जाएं। सरकारी सुरक्षा हटने से यह नेता आम कश्मीरियों में यह संदेश देंगे कि उन पर भारतीय एजेंट होने का आरोप गलत है। अगर भारत के समर्थक होते तो सुरक्षा कवच बना रहता। यही कारण है कि सरकारी सुरक्षा हटाने पर इन लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से एतराज नहीं जताया है। इससे इन्हें कश्मीर में अपनी सियासी साख बचाने में मदद मिलेगी। गिलानी और मलिक सरीखे अलगाववादियों के पास सरकारी सुरक्षा नहीं हैं, लेकिन उनके परिजन किस तरह से सरकारी नौकरियों, गैस एजेंसियों व ठेकों के आधार पर माल बटोर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं हैं। अब यह लोग अपने परिजनों को मिल रही मलाई बचाने के लिए शांत होंगे और हालात सामान्य बनाने की दिशा में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सहयोग करेंगे।

नरम रवैया अपनाने का आरोप अब नहीं
अलगाववादियों की सुरक्षा का बड़ा सियासी मुद्दा रहा है जो अब किसी हद तक खत्म हो जाएगा। केंद्र सरकार पर अलगाववादियों के प्रति नरम रवैया अपनाने का आरोप अब नहीं रहा है। इसके जरिए केंद्र ने साफ कर दिया है कि देश की एकता व अखंडता के मुद्दे पर उसका कोई डीलिंग नहीं है, सिर्फ राष्ट्रवाद व राष्ट्रीय एकता व अखंडता ही उसका एजेंडा है। उसने एक तरह से अलगाववादियों को संकेत दिया है कि उन्हें अपनी अलगाववाद की दुकान बंद करनी होगी। अन्यथा सरकार ताला लगा देगी। इससे कश्मीर में सक्रिय राष्ट्रवादियों का मनोबल बढ़ेगा, अलगाववादियों की सुरक्षा में खड़े होकर खुद को हीन समझने वाले पुलिसकर्मियों को सम्मान मिलेगा। इसका फायदा कश्मीर से कन्याकुमारी तक की केंद्रीय सियासत को भी होगा।

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