संसद का पूरा मानसून सत्र विपक्षी हंगामे की भेंट चढ़ गया जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं

संसद के मानसून सत्र में बुधवार को लोकसभा अनिश्चितकाल तक के लिए स्थगित कर दी गई है। इस बार मानसून सत्र में कई बिल पारित हुए लेकिन दुर्भाग्य से लोकसभा और राज्यसभा में पारित किसी भी बिल पर चर्चा नहीं हो सकी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 12 Aug 2021 08:56 AM (IST) Updated:Thu, 12 Aug 2021 11:42 AM (IST)
संसद का पूरा मानसून सत्र विपक्षी हंगामे की भेंट चढ़ गया जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं
127वां संविधान संशोधन विधेयक जो ओबीसी आरक्षण पर राज्यों को अधिकार देने के संबंध में था। फाइल

गौरव कुमार। संसद के मानसून सत्र का समापन हो चुका है। मंगलवार को भारतीय संसदीय इतिहास की एक मिसाल देने वाली घटना हुई जिसके तहत लोकसभा का एकमात्र कार्य बिना किसी हंगामे के संपन्न हुआ। जबकि पूरे सत्र के दौरान कोई भी विधायी कार्य हंगामे के बिना संपन्न नहीं हुआ। सदन को विपक्ष के हंगामे के कारण स्थगित करते रहने की मजबूरी ने संसद के करोड़ों रुपये खर्च कराए और इस दौरान कोई उत्पादक कार्य नहीं हो सका। साथ ही इससे संसदीय परंपरा के प्रति एक नकारात्मक छवि का निर्माण भी हुआ। इस सत्र को कई मायने में गैर उत्पादक कहा जा सकता है। हालांकि विपक्षी हंगामे के कारणों को समझते हुए सरकार ने चर्चा के लिए पर्याप्त अवसर दिया, ताकि सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से चल सके।

यह बड़ी गंभीर स्थिति है जहां विधायी कार्य को बिना विस्तृत और परिपक्व चर्चा के साथ संपन्न करना पड़ा। विपक्ष लगातार पेगासस, कृषि कानून विरोधी आंदोलन और महंगाई जैसे मुद्दे पर कामकाज को बाधित करता रहा। किंतु जब मंगलवार को सूचीबद्ध 127वें संविधान संशोधन विधेयक की बारी आई तो सारे विपक्ष की जबान बंद हो गई और इस विधायी कार्य के दौरान सभी सदस्य ने अपनी सीट पर बैठ कर स्वस्थ परिचर्चा में भाग लिया। कचोटने वाली बात यह रही कि इस सत्र में कई महत्वपूर्ण बिल थे जिन पर चर्चा होनी चाहिए थी। यहां यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों की अनदेखी करते हुए ओबीसी मुद्दे पर विपक्ष सरकार के पक्ष में आ गया।

सबसे प्रमुख बात यह है कि जैसे ही बात ओबीसी मुद्दे की आती है, सबके कान खड़े हो जाते हैं। सभी इस मुद्दे पर अपने वोट बैंक के आगे मजबूर हो जाते हैं। इस बार भी यही हुआ। विपक्षी पार्टियों का यह व्यवहार देश, समाज और संसदीय हित के अनुकूल नहीं लगता। यदि उन्हें सदन में हंगामा करना था, सरकार के विधायी कार्य को रोकना था तो ओबीसी बिल के दौरान भी यही करते, लेकिन उन्हें इस हित की चिंता नहीं, बल्कि अपने वोट बैंक की चिंता है।

इन तथ्यों के आलोक में देखा जाए तो ओबीसी के हित में बड़े और प्रभावी कदम उठाने में कांग्रेस की सरकार विफल रही है या अधिक रुचि नहीं दिखाई। सदन में दिखावे के लिए इस बिल के समर्थन में आना अपने आप में हास्यास्पद है। हालांकि यह सुखद है और इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए कि कम से कम समाज के किसी भी वर्ग के हित के लिए विपक्ष सरकार के सहयोग में खड़ा हुआ और संसदीय परंपरा के आदर्शो का सम्मान किया।

इसका एक अन्य पहलू भी है। सदन को बाधित करते हुए विपक्ष जिन मुद्दों पर चर्चा करना चाह रहा था, वे जरूरी थे, उन पर चर्चा होनी चाहिए थी। लेकिन इसके लिए सदन की कार्यवाही में अवरोध उत्पन्न करना और यह जताना कि वे इस मुद्दे पर जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, हास्यास्पद था। लोकसभा और राज्यसभा के प्रत्येक सदस्य को उसके कुछ संसदीय अधिकार मिले हुए हैं। वे संसद में प्रश्नों के माध्यम से या महत्वपूर्ण विषय की पूर्व सूचना सभापति या अध्यक्ष को देकर चर्चा की मांग कर सकते हैं। लेकिन विपक्ष के सांसदों ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वास्तव में उनका मकसद ऐसा था ही नहीं। उनका मकसद जनता के बीच स्वयं को इस रूप में दिखाना था कि वे कितनी गंभीरता से देश के मुद्दे उठा रहे हैं और सरकार इस पर चर्चा नहीं चाहती है। वे यह भूल जाते हैं कि जनता इन व्यवहारों को समझ रही है।

जहां तक इस संविधान संशोधन विधेयक की आवश्यकता का प्रश्न है, तो वास्तव में देश को इसकी जरूरत थी और सरकार ने इसे महसूस किया, तभी इसे इस सत्र में लाया गया। दरअसल हमारा देश विविधताओं से भरा है। हर राज्य की अलग-अलग आíथक सामाजिक स्थिति है। वहां एक केंद्रीकृत व्यवस्था कारगर या प्रभावी नहीं होती है। इसलिए राज्य को इस विषय में निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए कि उनके प्रदेश की किन जातियों को किस वर्ग में रखा जाए और किनको आरक्षण का लाभ दिया जाए। सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय में कानून की अस्पष्टता के कारण सरकार की यह जिम्मेदारी थी कि कानून बनाकर इस अस्पष्टता को दूर करे और इसी उद्देश्य से यह संविधान संशोधन विधेयक लाया गया था। आज लगभग सभी प्रदेश में जातियों की श्रेणी का निर्धारण गंभीर समस्या है।

इस विधेयक के रूप में इन समस्याओं की जड़ को खत्म करने की पहल की गई है जो प्रशंसनीय है। इस विधेयक के लोकसभा में आते ही विपक्ष ने इसे अपना हथियार बनाने की कोशिश की, लेकिन जनता की नजर में यह हथियार काम नहीं आया और उन्हीं पर इसका उलटा वार हो गया। जनता के मन में यह स्वाभाविक प्रश्न है कि आखिर इस प्रकार के दिखावे की राजनीति क्यों? वर्तमान में जो विपक्ष में हैं, वास्तव में यदि उनकी पार्टी सही मायने में ओबीसी की हितैषी होती तो पिछड़े वर्गो की तमाम सामाजिक, आर्थिक समस्याएं खत्म हो गई होतीं। लेकिन इन समस्याओं को बरकरार रखकर इसे मुद्दा बनाया जाता रहा, ताकि इनकी आड़ में वोट का कारोबार हो सके। अब जब केंद्र सरकार तमाम ऐसी पहलें कर चुकी है जिसे ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण कहा जाएगा, उस पर श्रेय लेने या दिखावा करने की होड़ क्यों है? क्या ओबीसी मुद्दा एकमात्र राजनीतिक हथियार रह गया है या इसे अपनी ताकत बनाने की कोशिश है?

बात चाहे जो हो, इतना तय है कि देश को अब इन मुद्दों की जरूरत नहीं है। अब देश हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है। विकसित भारत के सपने को साकार करने के लिए अब पक्ष और विपक्ष दोनों को पारंपरिक मुद्दों से आगे बढ़ कर विकसित श्रेणी के मुद्दों की तलाश करनी चाहिए और उस पर वोट बैंक की राजनीति के विषय में खुद को और जनता को तैयार करना चाहिए।

[लोक नीति विश्लेषक]

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