दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में चीन के बढ़ते वर्चस्व को कम करने के लिए बनाई जा रही नई वैश्विक रणनीति

बीते करीब एक दशक से कारोबार बढ़ाने के बहाने चीन बेहद चतुराई से आस्टेलिया पर अपना प्रभुत्व कायम करने के प्रयासों में जुटा रहा लेकिन अब आस्टेलिया को यह महसूस हो रहा है कि उसने चीन के मूल सिद्धांत को समझने में देर कर दी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 04 Oct 2021 09:35 AM (IST) Updated:Mon, 04 Oct 2021 09:36 AM (IST)
दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में चीन के बढ़ते वर्चस्व को कम करने के लिए बनाई जा रही नई वैश्विक रणनीति
चीन खुद को मुश्किलों में घिरा हुआ महसूस कर रहा है। प्रतीकात्मक

डा. गौतम कुमार झा। अमेरिका अपनी असफल रणनीतिक कार्यशाला को अफगानिस्तान से हटाकर पूरब में स्थानांतरित करने की दिशा में जुट गया है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के पीछे अपने मंतव्य को दर्शाते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इस तथ्य की स्वाकारोक्ति भी की थी। उन्होंने यह भी दर्शाया कि अमेरिका अपने रणनीतिक अभियान को पूरब और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की ओर ले जा रहा है। उनके इस बयान के उपरांत अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस समेत वहां के कई अन्य प्रमुख नेताओं ने दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का दौरा किया। दरअसल यह यात्र इस बात का संकेत थी कि विस्तारवादी चीन के खिलाफ अमेरिका अब बेहद गंभीर हो चुका है और पूरब में वह स्वयं को उसके विरुद्ध स्थापित करते हुए मजबूत बनना चाहता है।

हालांकि वियतनाम युद्ध के बाद से अमेरिका ने इस क्षेत्र में अपने सैनिकों की पर्याप्त संख्या में मौजूदगी के साथ ही एक मजबूत सैन्य अड्डा पहले से ही बना रखा है। अमेरिका ने जापान में करीब 50 हजार, दक्षिण कोरिया में लगभग 30 हजार और गुआम में पांच हजार सैनिकों को जमा किया है। मालूम हो कि गुआम एक छोटा सा अमेरिकी द्वीप है जो पश्चिमी प्रशांत महासागर के माइक्रोनेशिया उपक्षेत्र में अवस्थित है। फिलीपींस में अमेरिकी सेना की उपस्थिति का अलग इतिहास है।

हालांकि इस पूरे प्रकरण का केंद्र बिंदु दक्षिण चीन सागर है, जहां अमेरिका काफी पहले से ही चीन से मुकाबला करने में बुरी तरह विफल रहा। चीन ने इस क्षेत्र के कई द्वीपों को घेरकर उनकी महत्वपूर्ण प्रवाल भित्तियों को नष्ट करते हुए उन द्वीपों के आधुनिक विकास पर अरबों डालर खर्च करने के साथ ही वहां पर अपने सामरिक आधार को मजबूत कर लिया है। दरअसल ये वो प्रवाल भित्तियां हैं जहां हजारों प्रकार के समुद्री जीव प्रजनन के उद्देश्य से प्रवास करते हैं। इस प्रकार चीन न केवल सामुद्रिक अंतरराष्ट्रीय धरोहर को, बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाने का बहुत बड़ा अपराध कर रहा है।

दक्षिण चीन सागर दरअसल पश्चिमी प्रशांत महासागर का एक सीमांत समुद्र है। चूंकि यह दक्षिण चीन के उत्तरी तटों को छूता है इसलिए इसे दक्षिण चीन सागर कहा जाता है और यही मुख्य कारण है कि चीन इस पूरे सागर पर दावा करता है। यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से भरा हुआ है। दक्षिण चीन सागर में कई द्वीपसमूह हैं जिनमें छोटे, लेकिन निर्जन द्वीप हैं। यह इंडोचाइनीज प्रायद्वीप, ताइवान के द्वीपों, फिलीपींस, ब्रुनेई, सुमात्र (इंडोनेशिया) से घिरा हुआ है, जो सात जलडमरूमध्य के माध्यम से पूर्वी चीन सागर में अपना पानी साझा करता है- ताइवान, लूजोन जलडमरूमध्य के माध्यम से फिलीपीन सागर, सिंगापुर के जलडमरूमध्य के माध्यम से मलक्का, क्रिमाता और बांगका जलडमरूमध्य के माध्यम से जावा सागर। इतना ही नहीं, थाइलैंड की खाड़ी और टोंकिन की खाड़ी भी दक्षिण चीन सागर का हिस्सा हैं।

वर्ष 2016 के आंकड़ों के अनुसार 3.37 खरब अमेरिकी डालर का वैश्विक व्यापार इस समुद्री रास्ते से हुआ जो कि पूरे वैश्विक व्यापार का लगभग एक तिहाई हिस्सा है। ये रियाऊ द्वीप समूह के दक्षिण में मिलता है जिसे नाटुना सागर कहा जाता है। इसलिए दक्षिण चीन सागर आसियान देशों के लगभग सभी भागों को छूता है। इस पूरे प्रकरण में चिंताजनक बात यह भी है कि चीन ने पहले से ही इन कृत्रिम द्वीपों पर लाइटहाउस, संचार सुविधाएं, हैंगर और कई अन्य सैन्य प्रतिष्ठान बना लिए हैं।

रणनीतिक ग्रुप : आकस संगठन के अस्तित्व में आने के बाद यह साफ है कि अमेरिका पूर्व और प्रशांत में छोटे छोटे रणनीतिक समूह बनाकर उन्हें सशक्त करना चाहता है। बहुत दिनों से आस्ट्रेलिया इस तकलीफ से जूझ रहा था कि चीन उसे हर मसले पर आड़े हाथों लेता है और मौका मिलते ही उसे अपनी हैसियत बताने से नहीं चूकता है। देखा जाए तो चीन की रणनीति बहुत स्पष्ट है- देशों के साथ आíथक रूप से जुड़ना और वहां पानी/ भूमि को हथियाने के लिए अपने छिपे हुए स्वार्थ को आगे बढ़ाना। दूसरा हथकंडा चीन यह भी अपनाता है कि अपने हित को बढ़ाने के लिए सरकारी तंत्र में सेंध लगाकर उसके प्रभाव का भी लाभ उठाता है। इस मामले में चीन के लिए एक बेहतर स्थिति यह है कि दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश देशों में ऐसी सरकारें हैं जो चीन से हाथ मिलाने के दुष्परिणामों के बारे में भली-भांति जानती भी हैं, लेकिन चीन की क्षणिक उदारता के आगे वे झुकी रहती हैं।

चीन से मुकाबला : इस बीच हिंद-प्रशांत क्षेत्र के पूर्वी हिस्से में कुछ भू-रणनीतिक समूहों के गठन की प्रक्रिया तेज हुई है। फाइव आइज और एशिया प्रशांत जो आज हंिदू-प्रशांत क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, उसके बाद क्वाड और अब आकस, चीन का मुकाबला करने के लिए समय समय पर इन रणनीतिक समूहों का गठन किया गया है। एशिया-प्रशांत से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बदलती शब्दावली और बाद में चतुर्भुज सुरक्षा संवाद यानी क्वाड का गठन, एक विशुद्ध राजनयिक और सैन्य व्यवस्था है जिसका आरंभ वर्ष 2007 में एक संयुक्त सैन्य अभ्यास के रूप में किया गया, जिसे ‘मालाबार अभ्यास’ के नाम से जाना जाता है। 12 मार्च, 2021 को क्वाड सदस्यों की पिछली बैठक में ‘द स्पिरिट आफ द क्वाड’ के तहत पूरब और दक्षिण चीन सागर में नियम आधारित समुद्री व्यवस्था की संयुक्त रूप से पुष्टि की गई, जिसे चीन के आक्रामक रुख के विरोध में स्पष्ट संदेश के रूप में देखा जा सकता है।

क्षेत्रीय शक्ति के रूप में आस्ट्रेलिया का उभार : प्रशांत क्षेत्र में आस्ट्रेलिया भौगोलिक रूप से बहुत ही बड़ा देश है, जो दक्षिण पूर्व एशिया और अन्य छोटे-छोटे प्रशांत सागरीय देशों के बीच अवस्थित है। भौगोलिक और आर्थिक रूप से समर्थ होने के बावजूद अपने पड़ोसी देशों के बीच आस्ट्रेलिया की मिश्रित छवि है। आस्ट्रेलिया ने कभी भी छोटे राज्यों के बीच समावेशी रूप से खुद को शामिल करने के मामले में कोई उत्साह नहीं दिखाया और ऐसे कई उदाहरण हैं जब उसने कुछ छोटे मुद्दों पर एक या दो देशों को धमकाया भी। इस प्रकरण में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि वर्ष 2013 से 2015 के बीच आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री रहे टोनी एबाट चीनी प्रशासन के साथ बहुत ही गहरी दोस्ती निभा रहे थे। इसी बात का फायदा उठाकर प्रशांत सागर के अंदर जाकर चीन ने छोटे-छोटे देशों के बीच एक आíथक गलियारा बनाने के लिए भारी निवेश किया, जिसका उद्देश्य मुख्य रूप से इन देशों को कर्ज में डुबोना और उनके बाजार में अपना औद्योगिक उत्पाद भरना था।

इस तरह चीनी विकास की रणनीति से पूरी तरह से अनभिज्ञ आस्ट्रेलिया ने चीन के साथ अपने व्यापार में काफी वृद्धि की। आस्ट्रेलिया के विदेश मामलों और व्यापार विभाग की एक वेबसाइट के अनुसार वर्ष 1999 तक वैश्विक व्यापार के लगभग एक तिहाई (31 प्रतिशत) के लिए वस्तुओं और सेवाओं में आस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा दो-तरफा व्यापारिक भागीदार चीन बन गया। चीन अभी भी आस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। यह मामला केवल द्विपक्षीय व्यापार तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि चीन ने आस्ट्रेलिया की मीडिया और उच्च शिक्षा प्रणाली और कुछ हद तक उसकी रक्षा और रणनीतिक क्षेत्र में भी अपना प्रभाव बढ़ाया।

दोनों देशों के बीच संबंध मुख्य रूप से तब खराब होने शुरू हो गए जब एक तरफ चीन ने आस्ट्रेलिया के घरेलू मामलों में प्रभुत्व की भावना पैदा करना शुरू कर दिया और दूसरी तरफ दक्षिण चीन सागर में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी रखने वाले छोटे देशों जैसे फिलीपींस, वियतनाम, इंडोनेशिया, ब्रुनेई और मलेशिया के खिलाफ डर कायम रखा। यही कारण है कि दस सदस्यीय आसियान संगठन चीनी आतंक के खिलाफ संयुक्त रूप से आवाज नहीं उठा सका और आस्ट्रेलिया भी बड़ा भाई होने के नाते अपनी किसी प्रकार की भूमिका का निर्वहन करने में असमर्थ रहा।

दक्षिण चीन सागर में अनुमानित रूप से करीब 11 अरब बैरल तेल और 190 खरब घन फीट प्राकृतिक गैस है। ये ऐसे खजाने हैं जिनके लिए चीन कई कृत्रिम द्वीप बनाकर पूरे दक्षिण चीन सागर पर दावा करता है। इस पूरे क्षेत्र में फिलीपींस ही एक ऐसा देश है जिसे अपने सबसे अधिक सामुद्रिक क्षेत्र गंवाने पड़े हैं। इसलिए चीन द्वारा अपने वैध क्षेत्र को हथियाने के खिलाफ फिलीपींस अंतरराष्ट्रीय न्यायालय गया और उसे ‘यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन आन द ला आफ द सी’ के तहत अनुकूल फैसला भी मिला। परंतु चीन ने इस अंतरराष्ट्रीय निर्णय की अनदेखी करते हुए आक्रामक रवैया जारी रखा। दूसरी ओर, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया जैसे अन्य देश समय-समय पर चीन के प्रति अपनी शिकायतें भेजते रहे। कुल मिलाकर परिदृश्य यह है कि आसियान एक संयुक्त मंच के रूप में मूकदर्शक बना बैठा है।

आकस का गठन और संभावित प्रभाव : ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिकी प्रशासन बाइडन और ट्रंप के सिद्धांत के अनुरूप, आस्ट्रेलिया जैसे अपने सहयोगियों के प्रति अपनी ओर से सैन्य दबाव को कम करने की कोशिश कर रहा है। ऐसा भी लग रहा है कि अमेरिका इस मामले में भारत को अनदेखा कर रहा है, क्योंकि चीन के बाद भारत ही इस पूरे क्षेत्र से भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा, यदि हम अतीत को देखें तो आस्ट्रेलिया की भौगोलिक स्थिति और निकटता के बावजूद उसका रवैया कभी दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के प्रति सराहनीय नहीं रहा और इस बात पर कई बार आस्ट्रेलिया की आलोचना की गई है। अब आकस (आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका) एक ऐसा समूह बना है जहां अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विश्लेषक इसे भारत-प्रशांत में पूरी तरह से चीन पर लक्षित एक मजबूत शक्ति ब्लाक बनाने की शुरुआत के रूप में देखते हैं।

हालांकि आसियान देशों का रक्षा खर्च चिंताजनक नहीं है, पर चीन उनके दरवाजे पर बहुत ही करीब से दस्तक दे रहा है। आसियान देशों का आपस में भी कई समुद्री विवाद है, लेकिन वे किसी फसाद में शामिल होने के बजाय अंतरराष्ट्रीय न्यायालय पर भरोसा करते हैं। थाइलैंड, इंडोनेशिया, वियतनाम, सिंगापुर और फिलीपींस सभी अपनी सामथ्र्य को देखते हुए नवीनतम पनडुब्बी हासिल करने का प्रयास करेंगे और सभी यह चाहेंगे कि जल के भीतर अपनी युद्ध क्षमता को कैसे बढ़ाया जाए।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]

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