तालिबानी हुकूमत में कांपती थी अफगानी महिलाओं की रुह, जानें किन-किन चीजों पर थी रोक
तालिबान-अमेरिका समझौते का सीधा असर अफगानिस्तान की महिलाओं पर पड़ेगा। तालिबान हुकूमत के गिरने के बाद यहां की महिलाओं को ज्यादा हक हासिल हुए हैं।
नई दिल्ली। अफगानिस्तान की शांति को लेकर अमेरिका-तालिबान के बीच समझौत पर हस्ताक्षर के साथ ही अमेरिकी फौज की वापसी का रास्ता साफ हो गया है। अगले 14 माह के अंदर यदि तालिबान समझौते पर कायम रहता है तो ये संभव हो जाएगा। दोहा में हुए इस समझौते को अफगानिस्तान के बेहतर भविष्य के तौर पर लिया जा रहा है। 9/11 हमले के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज के करीब एक लाख जवान थे। लेकिन अब करीब 12 हजार जवान मौजूद हैं। बीते 20 वर्षों में यहां पर करीब 3400 अमेरिकी जवानों की मौत हुई है। वहींंयूएन की रिपोर्ट के मुताबिक यहां पर 2019 तक 32 हजार नागरिक इस लड़ाई में मारे गए।
भारत भी रहा गवाह
इस समझौते का भारत भी गवाह रहा है। हालांकि इस समझौते को लेकर भारत की अपनी चिंताएं हैं। लेकिन इस समझौते को लेकर सबसे बड़ी चिंता अफगानिस्तान की महिलाओं को है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने तालिबान के उस दौर को करीब से देखा है जो आज भी उनके मन में भविष्य को लेकर भय पैदा कर रहा है। 1996-2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत थी।
तालिबानी हुकूमत
तालिबान की हुकूमत में अफगानिस्तान का नाम इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान था। 1990 में अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी तक तालिबान एक बड़ा आतंकी संंगठन बन चुका था। सोवियत रूस के यहां से जाने के बाद वह लगातार अपने पांव यहां पर पसारता रहा। 1996 से पहले ही उसने करीब दो तिहाई से भी अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद काबुल भी उसकी पहुंच में आ गया।अ अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को जिन दो देशों ने मान्यता दी थी उसमें केवल कतर और पाकिस्तान शामिल था। कतर में ही तालिबान का राजनीतिक कार्यालय भी है जो आज भी बादस्तूर काम करता है। तालिबान को पाकिस्तान से हर संभव मदद मिलती रही है। इसमें आर्थिक और रणनीतिक मदद भी शामिल रही है।
शरियत कानून का हिमायती है तालिबान
तालिबान की हुकूमत देश में शरियत कानून की पक्षधर रही है। इसका सीधा सा अर्थ है कि वह देश को इस्लामिक कानून के तहत चलाना चाहती है। वहीं वर्तमान की सरकार या दूसरी चुनी गई सरकारें इससे इतर सोचती हैं। यही वजह है कि तालिबान के निशाने पर अफगानिस्तान सरकार के ठिकाने उनके अधिकारी बनते आए हैं। इसके अलावा अमेरिका क्योंकि अफगानिस्तान का साथ देता रहा है और यहां पर उसकी फौज भी है इसलिए अमेरिका भी इनके निशाने पर रहा है।
तालिबान शासन में महिलाओं की स्थिति
जहां तक तालिबान की हुकूमत में महिलाओं की स्थिति की बात करें तो यह बदत्तर रही है। तालिबान की हुकूमत में यहां की महिलाओं को बिना बुर्के घर से बाहर निकलने पर पाबंदी थी। इसके अलावा कोई महिला अकेली बाहर नहीं जा सकती थी, उसके साथ किसी मर्द का होना जरूरी था। महिलाओं के लिए किसी खेल में हिस्सा लेना एक सपने जैसा था। महिलाओं को स्टेडियम तक में जाने की इजाजत नहीं थी। तालिबान की हुुकूमत में देश के सभी सिनेमाघर या तो तोड़ दिए गए थे या फिर उनपर ताले लटक गए। महिलाओं के संगीत सुनने पर भी पाबंदी थी। महिलाओं की शिक्षा को लेकर भी इस हुकूमत में स्थिति बेहद खराब थी। तालिबान की हुकूमत में ही बामियान में भगवान बौद्ध की बनी एक प्रतीमा को गोले दागकर तोड़ा गया था। इस कर्त्य की पूरी दुनिया ने कड़ी आलोचना की थी।
मानवाधिकार महिला कार्यकर्ता की जुबानी
फवाजिया कूफी उन महिलाओं में से एक है जिन्होंने उस दंश को झेला है। फवाजिया वर्तमान में अफगानिस्तान की संसद में चुनी गई पहली महिला प्रतिनिधी हैं। लेकिन बीबीसी से बातचीज में बताया कि तालिबान हुकूमत में ये मुमकिन नहीं था। उस वक्त वह घर में बंद रहने को मजबूर थीं। लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ता होने की वजह से जब-जब उन्होंने आवाज उठाई उसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। उनके पति को जान से मारने की साजिश रची गई। बीबीसी के मुताबिक तालिबान से हुई वार्ता में बतौर महिला प्रतिनिधि वो और एक अन्य कार्यकर्ता शामिल हुई थीं। लेकिन जब उन्होंने इस वार्ता में कहा कि अफगानिस्तान के भविष्य से जुड़ी किसी भी वार्ता में महिलाओं की मौजूदगी जरूरी है तो वहां पर बैठे तालिबानी प्रतिनिधि ठहाका मारकर हंसने लगे थे। तालिबान की इसी सोच से आज भी अफगानिस्तान की महिलाएं सहमी हुई हैं।
एक नजर इधर भी
ये वही सोच है जो महिलाओं को केवल घर में बंद रखना चाहती है, लेकिन पुरुषों को सभी अधिकार देती है। आपको यहांं पर ये भी बता दें कि संविधान के मुताबिक अफगानिस्तान के निचले सदन में 250 सीटों में से 68 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। वहींं ऊपरी सदन की 102 सीटों में से 17 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। गौरतलब है कि तालिबान 16 वर्ष की उम्र में लड़की की शादी का समर्थन करता है। अमेनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक तालिबानी हुकूमत में अफगानिस्तान में करीब 80 फीसद महिलाओं की शादी बलपूर्वक की जाती है।
चर्चा में विदेश मंत्री का बयान
अफगानिस्तान में महिलाओं की आजादी और उनकी स्थिति को लेकर चिंता इसलिए भी ज्यादा हो रही है क्योंकि अमेरिकी मीडिया में ये बात खासी चर्चा में है कि संभावित समझौते में महिलाओं की आजादी का कोई जिक्र नहीं है। वहीं अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपियो के उस बयान से भी इन आशंकाओं को बल मिला है जिसमें उन्होंने कहा है कि संभावित समझौता अमेरिकी फौज की वापसी को सुनिश्चित करने और वहां पर वर्षों से जारी युद्ध पर विराम लगाने के मकसद से है। यदि ये समझौता होता है तो वहां के लोग, सरकार और तालिबान देश का भविष्य आपस में बैठकर तय करेंगे।
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