अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के मद्देनजर भारत में अफगान नीति को लेकर असमंजस कायम

अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में उभार के संकेत ने भारत की चिंता बढ़ा दी है। तालिबान से जारी संघर्ष के बीच अफगानिस्तान के सेना प्रमुख जनरल मोहम्मद अहमदजई भारत दौरे पर आ रहे हैं। इस यात्रा को कई मायने में अहम माना जा रहा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 23 Jul 2021 09:11 AM (IST) Updated:Fri, 23 Jul 2021 09:11 AM (IST)
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के मद्देनजर भारत में अफगान नीति को लेकर असमंजस कायम
अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव के साथ ही कई कारणों से भारत की चिंता बढ़ रही है। इंटरनेट मीडिया

डा. राजन झा। पिछले अनुभवों और बदली हुई अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य में हमें अफगान नीति को एक नया आयाम देने की जरूरत है। काबुल में राजनीतिक स्थिरता, भारत की अफगान नीति की पहली शर्त है। पूर्व में जब कभी भी अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल रहा भारत को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। वर्ष 1999 में इंडियन एयरलाइंस का एक विमान काठमांडू से नई दिल्ली आने के क्रम में हाइजैक करते हुए कंधार ले जाया गया था।

वर्ष 1989 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के दखल और 2001 के अमेरिकी युद्ध से भारत ने स्वयं को रणनीतिक तौर पर दूर ही रखा था, लेकिन सोवियत संघ की वापसी के बाद उपजी राजनीतिक अस्थिरता के कारण अफगानिस्तान की धरती को आतंकी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया गया। कुछ ऐसा ही खतरा अमेरिकी सेना की वापसी के बाद होने की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसी परिस्थिति में भारत को राजनीतिक स्थिरता के लिए हरसंभव प्रयास करने की जरूरत है। यह सच है कि भारत के पास सीमित विकल्प हैं, परंतु इसके बावजूद क्षेत्रीय शक्तियों मसलन रूस और ईरान समेत दुनिया के अन्य देशों के साथ मिलकर हमें प्रयासरत रहना होगा। परंतु इस बात का ध्यान रखना होगा कि अफगानिस्तान में हिंसा न हो और मानवाधिकार भी सुरक्षित रहें। हालांकि, अच्छी बात यह है कि भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान द्वारा हाल ही में की गई हिंसा की आलोचना की है। जयशंकर ने कहा, दुनिया हिंसा और बल प्रयोग के जरिये कब्जा करने के विरुद्ध है। इस तरह के कदम को वैधता नहीं दी जानी चाहिए।

भारत को अपने पूर्व के घोषित अफगान नियंत्रित, अफगानी स्वामित्व और अफगान नेतृत्व के संकल्प पर कायम रहना चाहिए। अफगानिस्तान की व्यापक और दीर्घकालिक शांति की कुंजी इसी फॉर्मूला के तहत संभव है। अफगानिस्तान में चाहे किसी भी गुट की सरकार बने, हमें उनके साथ राजनीतिक संबंध मजबूत करते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है।

तालिबान को लेकर भी हमें सकारात्मक नजरिया रखना चाहिए। एक बड़े कूटनीतिक कदम के तहत तालिबान ने कश्मीर को भारत को आंतरिक मामला बताया है। इसके अलावा, तालिबान ने कहा है कि अफगानिस्तान में मदद मुहैया कराने और पुनर्निर्माण कार्य जारी रखने के लिए वह भारत का स्वागत करेगा। भारत के लिए यह बड़ी राहत की बात है। पिछले 20 साल में अफगानिस्तान में ऊर्जा संयंत्र, बांध, राजमार्ग, स्कूल और संसद भवन के निर्माण में भारत ने अहम भूमिका निभाई है। अफगानिस्तान के सैनिकों को ट्रेनिंग समेत अन्य सुविधाएं भी प्रदान की हैं। भारत की योजना अफगानिस्तान में सड़क और रेल लाइन बिछाने तथा इसके माध्यम से मध्य एशिया तक तेजी से अपनी पहुंच कायम करने की है। इन सभी परियोजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आने वाले दिनों में काबुल की सरकार के साथ हमारे संबंध कैसे होंगे।

जहां तक अफगानिस्तान की धरती से भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने जैसे खतरे का सवाल है तो तालिबान ने संकेत दिया है कि उनकी सत्ता में भागीदारी या वापसी के बाद काबुल की जमीन से भारत विरोधी गतिविधियों की इजाजत नहीं दी जाएगी। तालिबान की इस बदली हुई सोच को यदि समझने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि वर्ष 1996 से 2001 के बीच के तालिबान और 2021 के तालिबान में काफी फर्क है। आज तालिबान विश्व समुदाय के साथ वार्ता कर रहा है। उसे इस बात का इल्म है कि काबुल की धरती को आतंकी गतिविधि के लिए इस्तेमाल करने के क्या परिणाम हो सकते हैं। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति की बदली हुई परिस्थिति में पाकिस्तान और सऊदी अरब भी तालिबान को एक सीमा तक ही मदद करने की स्थिति में हैं। शीत युद्ध के समय पाकिस्तान को अमेरिकी फंड मिलता था जिसका इस्तेमाल अफगानिस्तान और कश्मीर में आतंकी गतिविधियों के लिए किया गया। आज की परिस्थिति में ऐसे किसी भी फंड के न होने का प्रभाव भी तालिबान के राजनीतिक व्यवहार पर पड़ना लाजमी है। अत: भारत को अपने सामरिक और आर्थिक हितों को सुरक्षित करने के लिए तालिबान के साथ बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहिए। अमेरिका और पाकिस्तान के लेंस से अफगानिस्तान को देखने की नीति पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान से वापसी के बाद वहां चीन की गतिविधियां बढ़ने की आशंका है। भारत के दृष्टिकोण से चीन के साथ मौजूदा सीमा विवाद के बाद ऐसी परिस्थिति अधिक चिंताजनक हो सकती है। अभी तक चीन अफगानिस्तान में आíथक गतिविधि तक ही सीमित रहा है, लेकिन उसकी विस्तारवादी नीति और ‘वन रोड वन बेल्ट’ प्रोजेक्ट से भारत को सामरिक खतरा भी हो सकता है। लिहाजा भारत को सेंट्रल एशिया और ईरान के साथ सामरिक नीति की योजना बनानी होगी।

पूर्व में भी हमने ईरान के साथ मिलकर अफगानिस्तान में अपने सामरिक हितों को सुरक्षित किया है। अफगानिस्तान ही एक ऐसा क्षेत्र है जहां अमेरिका और ईरान के हित में कोई टकराव नहीं है। भारत को इसका सामरिक-आíथक लाभ मिल सकता है। ईरान भी हजारा समुदाय के हितों को सुरक्षित करने के लिए चिंतित है। ऐसे में आने वाले दिनों की चुनौती गंभीर है। अत: भारत को एक यथार्थवादी, लेकिन अफगान केंद्रित नजरिये से रणनीति तैयार करने की जरूरत है। भारत-अफगान मैत्री के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और अपने साफ्ट पावर को प्राथमिकता सूची में शामिल करना चाहिए। भारत को अफगान नीति के केंद्र में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को अधिक महत्व देना चाहिए। वहीं, सैन्य रणनीति अंतिम विकल्प होना चाहिए

[असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]

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