नेत्रहीन दंपती जुटे है मानव संबल तैयार करने में

दोनों आंखों से दिखता नहीं। शत प्रतिशत दृष्टिहीन। अनेक विपदाओं का सामना करना पड़ा।

By JagranEdited By: Publish:Thu, 02 Dec 2021 10:01 PM (IST) Updated:Thu, 02 Dec 2021 10:01 PM (IST)
नेत्रहीन दंपती जुटे है मानव संबल तैयार करने में
नेत्रहीन दंपती जुटे है मानव संबल तैयार करने में

जागरण संवाददाता, राउरकेला : दोनों आंखों से दिखता नहीं। शत प्रतिशत दृष्टिहीन। अनेक विपदाओं का सामना करना पड़ा। पड़ोसियों के ताने भी सुने। कई बार टूटे। लेकिन उन्होंने कभी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा। असंख्य नेत्रहीन लोगों की तरह दूसरों पर निर्भर हुए बिना आत्मनिर्भर बनने का सपना देखते रहे। इच्छा थी, अध्यापन व्यवसाय में जाकर मानव संबल तैयार करने की। कड़ी मेहनत से इस सपने को पूरा करते हुए अब वे हजारों छात्रों को पढ़ा रहे हैं। यह दंपती और कोई नहीं बल्कि राउरकेला के दिव्य सुंदर परिड़ा और अपराजिता परिड़ा हैं। दिव्यसुंदर सेक्टर-16 सरकारी हाईस्कूल में शिक्षक हैं और अपराजिता सुशीलाबती महिला कॉलेज में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर। जीवन की जंग अलग-अलग लड़ चुके दिव्यसुंदर और अपराजिता अब एकजुट होकर मानव विकास में आगे बढ़ रहे हैं।

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दिव्यसुंदर की पहली पसंद पढ़ाने के बाद गाना है : दिव्य सुंदर (36) के पिता दिवंगत चंद्रशेखर परिड़ा आरएसपी कर्मचारी थे, जबकि मां बसंती लता एक गृहिणी थीं। दो भाई और तीन बहन यानी कुल पांच भाई बहन में दिव्यसुंदर सबसे छोटे हैं। नेत्रहीन पैदा हुए दिव्य सुंदर का बचपन इतना खुशहाल नहीं था। हालांकि परिवार के सदस्यों और अपनों का उन्हें पूरा सहयोग मिला। लेकिन पड़ोसी उन्हें अलग नजर से देखते थे। उसका भविष्य क्या है, कैसा रहेगा, इस पर बहुत चर्चा होती थी। हालांकि परिवार ने उसके पढ़ने का समर्थन करते हुए उसे उत्साहित किया। दिव्यसुंदर ने पहली से सातवीं तक पढ़ाई सुंदरगढ़ के ब्लाइंड स्कूल से की। हाईस्कूल की पढ़ाई बुर्ला में ब्लाइंड स्कूल से की। इसके बाद उन्होंने सफलतापूर्वक बीजेपी कॉलेज से प्लस टू व प्लस थ्री की पढ़ाई ओड़िया आनर्स से पूरा किया। बाद में उन्होंने बानी बिहार विश्वविद्यालय (भुवनेश्वर) से स्नातक की डिग्री और डिप्लोमा इन स्पेशल एजुकेशन में बीएड की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उन्हें 2008 में एक सरकारी शिक्षक के रूप में नियुक्ति मिली। दिव्यसुंदर की पहली पसंद पढ़ाने के बाद गाना है। उन्होंने अतीत में कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रदर्शन किया है, जिसमें घर पर संगीत का अभ्यास करना और कैसेट बजाना शामिल है।

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नेत्रहीन होते हुए भी अपराजिता में पढ़ने की तीव्र इच्छा थी : इसी तरह अपराजिता बचपन से ही अपनी दृष्टि खो चुकी थी। अपराजिता के पिता, बटकृष्ण सामल राउरकेला स्टील प्लांट के कर्मचारी थे। परिवार में मां नंदिनी सामल और दो भाई। नेत्रहीन होते हुए भी अपराजिता में पढ़ने की तीव्र इच्छा थी। भविष्य में शिक्षक बनने का वह सपना देख रही थी। लेकिन यह उसके लिए आसान नहीं था। हालांकि, अपने परिवार के समर्थन से, उन्होंने अपनी पहली से सातवीं तक की शिक्षा स्कूल फार ब्लाइंड, हाई स्कूल की पढ़ाई भीम भोई ब्लाइंड स्कूल (भुवनेश्वर) से तथा रमादेवी कॉलेज से प्लस टू व स्नातक की शिक्षा प्राप्त की। बाद में उसने वाणीविहार विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक की डिग्री लेकर सफलतापूर्वक बीएड को कोर्स पूरा किया। हाई स्कूल से ग्रेजुएट तक, अपराजिता ने प्रथम श्रेणी में सफलता हासिल की। 2013 में अपराजिता को झीरपानी प्राइमरी स्कूल में सरकारी शिक्षक के रूप में नियुक्ति मिली। लगभग तीन वर्षों तक स्कूल में पढ़ाने के बाद, उन्हें फरवरी 2016 में सुशीलावती महिला कॉलेज में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त किया गया। ---------------------------

नेत्रहीन जोड़े की शादी भी चर्चा में : दिव्यसुंदर और अपराजिता की शादी नवंबर 2016 में हुई थी। उस समय उनकी शादी काफी चर्चा में थी। नेत्रहीन जोड़े को चारों तरफ से बधाई मिल रही थी। शादी से पहले दोनों एक दूसरे के बारे में जानते थे। जैसे ही उनकी शादी के लिए बातचीत शुरू हुई, दोनों एक-दूसरे को जीवनसाथी के रूप में चुनने के लिए तैयार हो गए। अब उनका ढाई साल का बेटा दीपेंदु है। सेक्टर-18 के क्वार्टर नंबर ई-29 में तीनों खुशी-खुशी रह रहे हैं। इनके साथ भाई-बहन भी रहते हैं, लेकिन वे अब किसी के लिए बोझ नहीं हैं। दोनों अकेले स्कूल/कॉलेज जाते हैं और घर पर ही अपने इकलौते बेटे को पढ़ाते हैं। बेटे दीपेंदु को दृष्टि संबंधी कोई समस्या नहीं है। लड़के को यह महसूस ही नहीं होने देते है कि वे दोनों देख नहीं सकते।

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दिव्यांगता को वरदान समझे, मिलेगी सफलता : दिव्यसुंदर और अपराजिता ने कहा कि छोटे में उन्हें कई तरह की बात सुनने को मिलती थी। हमारे भविष्य को लेकर लोगों की अलग-अलग राय थी। लेकिन परिवार के सदस्यों के मजबूत समर्थन और अटूट प्रोत्साहन से हमने शिक्षा ग्रहण की। बाद में, हमने शिक्षण को एक पेशे के रूप में चुना और बच्चों के मानवीकरण का जिम्मा उठाया। समाज बदल गया है। वह अब अंधे या दूसरे को अलग-अलग आंखों से नहीं देखता। जब आप स्कूल/कॉलेज जाते हैं तो छात्र और सहकर्मी आगे आकर मदद करते हैं। परिवहन भी एक बड़ी मदद है। दिव्यांग हो या आम आदमी; हर किसी के जीवन में कोई न कोई समस्या जरूर होती है। पहले अपनी समस्या को स्वीकार करें। यह दिव्यांगता के भेष में वरदान है, अभिशाप नहीं। फिर खुद पर एक सौ प्रतिशत भरोसा करे और अनुशासित तरीके से आगे बढ़े, सफलता की गारंटी है।

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