तीनों कृषि सुधार कानून क्यों अहम थे और क्यों एमएसपी औचित्यहीन होनी चाहिए?

तटस्थ विशेषज्ञ मानते हैं कि आज की भारतीय जरूरतों के मुताबिक कृषि में 360 डिग्री का सुधार लाने की जरूरत है और तीनों कृषि सुधार कानून इसमें सक्षम थे। आइए जानते हैं कि आज की परिस्थिति में ये तीनों कानून क्यों अहम थे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 29 Nov 2021 12:33 PM (IST) Updated:Mon, 29 Nov 2021 12:33 PM (IST)
तीनों कृषि सुधार कानून क्यों अहम थे और क्यों एमएसपी औचित्यहीन होनी चाहिए?
एमएसपी की गारंटी से जुड़ी मांग के बीच भारतीय अन्नदाता के हित की पड़ताल आज हम सबके लिए मुद्दा है।

नई दिल्‍ली, जेएनएन। जाको प्रभु दारुण दुख दीन्हा, ताकी मति पहिले हरि लीन्हा। तमाम कृषि विशेषज्ञ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित इन पंक्तियों के मायने कृषि कानूनों को वापस लेने और उनका खेती-किसानी पर पड़ने वाले असर से जोड़कर देख रहे हैं। ये बात और है कि यहां मति किसी और की मारी जा रही है और दारुण दुख किसी और के हिस्से आ रहा है। पहले भी ये विशेषज्ञ इन तीनों कानूनों को देश के कृषि क्षेत्र की टूटती सांसों को आक्सीजन सरीखा बताते रहे हैं, लेकिन विरोध के उग्र स्वर के बीच इनकी दलीलें नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई। आज भले ही अर्थव्यवस्था में खेती की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम हो गई हो, लेकिन देश की आधी आबादी वहीं रोजगार पाती है।

कुछ लोग कृषि क्षेत्र पर ज्यादा लोगों की निर्भरता को भी गलत मानते हैं। उनकी दलील है कि आनुपातिक रूप से कृषि से जुड़े ज्यादा लोगों को अन्य क्षेत्रों से जोड़ना जरूरी है। खेती में इतनी दुश्वारियां हैं कि लोग इसे घाटे का सौदा मानने लगे हैं। इस क्षेत्र के पूरे कायापलट की जरूरत थी और है। इसी मंशा के तहत केंद्र सरकार ने साहसिक कदम उठाते हुए तीन कृषि कानून बनाए और लागू किए। भारी विरोध और करीब साल भर के आंदोलन के बाद कानून वापसी की घोषणा हो गई, लेकिन इस वापसी ने कई सवाल खड़े कर दिए। क्या सचमुच उन कानूनों का विरोध करने वाले भारतीय कृषि और अन्नदाता के हितैषी हैं? खेती में बुनियादी सुधार से जुड़े कानूनों की वापसी के अपने हठ को पूरा करने के बाद ये लोग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के कानून की मांग करके अपनी नीयत को लेकर एक बड़ा अंतर्विरोध खड़ा कर रहे हैं।

शांता कुमार समिति के अनुसार देश के सिर्फ छह फीसद किसान ही केंद्र सरकार की एमएसपी योजना का लाभ उठा पाते हैं। ये वे बड़े किसान हैं जो सुविधा संपन्न हैं। देश के 94 फीसद मझोले और सीमांत किसान साल भर के खाने के अनाज के बाद जो थोड़ा-बहुत बचता है उसे मंडी तक ले जाने से ज्यादा स्थानीय बिचौलियों को औने-पौने दामों में बेचकर खुश हो जाते हैं। क्योंकि उस अनाज को मंडी तक ले जाने में तमाम खचोर्ं के चलते उनकी लागत भी नहीं निकल पाती है। वापस हो रहे कानून मंडी के समानांतर खरीद-फरोख्त व्यवस्था का प्रविधान करते थे जिससे फसलों की खरीद में प्रतिस्पर्धा बढ़ती और इन मझोले और सीमांत किसानों को फायदा होता। किसानों को उनकी फसल का वाजिब मूल्य मिलता। ऐसे में तीनों कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी की गारंटी से जुड़ी मांग के बीच भारतीय कृषि और अन्नदाता के हित की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

जरूरी थे तीनों कानून: भारतीय खेती और किसानों की कमर सीधे करने वाले तीनों कानून वापस हो चुके हैं। करीब साल भर तक चले प्रदर्शन के बाद तीनों कृषि सुधार कानूनों का वापस करना पड़ा। कानूनों के लेकर केंद्र सरकार का मानना था कि इनसे बिचौलिए खत्म होंगे और किसानों की आय में इजाफा होगा। किसान इस बात पर अड़े रहे कि सरकार इनके जरिए कृषि को दी जा रही अपनी मदद से पडला छुड़ाना चाह रही है। इससे बिचौलियों की जगह ज्यादा ताकतवर कारपोरेट घराने के आने का भी खतरा है। बहरहाल तटस्थ विशेषज्ञ मानते हैं कि आज की भारतीय जरूरतों के मुताबिक कृषि में 360 डिग्री का सुधार लाने की जरूरत है, और तीनों कृषि सुधार कानून इसमें सक्षम थे। आइए जानते हैं कि आज की परिस्थिति में ये तीनों कानून क्यों अहम थे और क्यों न्यूनतम समर्थन मूल्य औचित्यहीन होना चाहिए?

पर्याप्त खाद्यान्न, अपर्याप्त पोषण: गरीबों में वितरित करने के लिए अनाजों की खरीद प्रक्रिया में सरकार के आने की जड़ें आजादी के बाद की हैं जब देश में पर्याप्त खाद्यान्न नहीं होता था। हरित क्रांति के बाद ज्यादा पैदावार वाली फसलों का इस्तेमाल सफल इसलिए हुआ क्योंकि सरकारों ने इनपुट लागत पर सब्सिडी के साथ उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य देना तय किया। तभी कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अब हमें इस तरह की सहूलियत नहीं देनी चाहिए क्योंकि अब भारत जरूरत से ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने वाला देश है। तेजी से बढ़ता भारत का कृषि निर्यात इसकी पुष्टि करता है। हालांकि इसके विरोध में तर्क दिए जाते हैं कि औसतन पोषित खुराक लेने के मामले में भारतीय विकसित देश ही नहीं, चीन और वियतनाम से भी पीछे है। लिहाजा देश में जो खाद्यान्न की अधिकता दिखती है, वह घरेलू स्तर पर लोगों के कम उपभोग का नतीजा हो सकती है।

महंगी खुराक: जरूरत से ज्यादा खाद्यान्न की मौजूदगी के बावजूद अगर भारतीय संतुलित खुराक नहीं ले रहे हैं तो इसकी एक वजह महंगाई हो सकती है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट और अन्य के शोध निष्कर्ष बताते हैं कि भारत के ग्रामीण इलाकों में 63.3 फीसद लोग पोषित खुराक की कीमत नहीं चुका सकते।

हर राज्य में अलग-अलग कमाई, किसानों के बीच गहराती आर्थिक खाई: पंजाब और हरियाणा के किसान देश के अन्य हिस्सों के किसानों से ज्यादा समृद्ध हैं। सरकार द्वारा एमएसपी पर खाद्यान्न खरीदने का गैर समानुपातिक हिस्सेदारी की इसमें बड़ी भूमिका है। 2019-20 में देश भर से गेहूं और चावल खरीद का क्रमश 65 और 30 फीसद हिस्सा सिर्फ पंजाब और हरियाणा से लिया गया। इन दोनों राज्यों की गेहूं और चावल की देश की पैदावार में हिस्सेदारी 2017-18 में 28.7 फीसद और 15.9 फीसद रही। जहां एमएसपी खरीद के संसाधन नहीं हैं, वहां निजी स्तर पर खरीद के दौरान कम कीमत चुकायी जाती है।

समृद्ध किसान और पर्यावरण का नाश: पंजाब जलवायु के आधार पर धान की खेती के अनुकूल नहीं है, लेकिन एमएसपी के तहत सर्वाधिक खरीद होने के चलते वहां के किसान इस फसल की सर्वाधिक खेती करते हैं। पानी की ज्यादा खपत करने वाली इस फसल ने सूबे का भूजल स्तर काफी नीचे पहुंचा दिया है। पराली जलाकर दिल्ली की हवा को खराब करने वाली एक नई समस्या सामने है।

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