चीनी बाजार पर वार-1: चीनी माल पर निर्भरता खत्म करना मुश्किल है पर मुमकिन नहीं आत्मनिर्भर बनना

साधारण से थर्मामीटर की फैक्ट्री लगाने के लिए हमें खास किस्म के प्लास्टिक व चिप्स निर्माण के प्लांट लगाने होंगे तभी सही मायने में आत्मनिर्भर हो सकेंगे।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 06 Jul 2020 06:34 PM (IST) Updated:Mon, 06 Jul 2020 06:34 PM (IST)
चीनी बाजार पर वार-1: चीनी माल पर निर्भरता खत्म करना मुश्किल है पर मुमकिन नहीं आत्मनिर्भर बनना
चीनी बाजार पर वार-1: चीनी माल पर निर्भरता खत्म करना मुश्किल है पर मुमकिन नहीं आत्मनिर्भर बनना

जयप्रकाश रंजन, नई दिल्ली। दौरा पड़ने पर या नसों के दर्द में भारत में गाबापेंटिन नाम के फॉर्मूलेशन की दवा का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। भारत की दवा कंपनियों के पास तकरीबन 1500 मैट्रिक टन गाबापेंटिन बनाने की क्षमता है जबकि घरेलू खपत महज 300 मेट्रिक टन की है। इसके बावजूद हमने वर्ष 2019 में चीन से 203 करोड़ रुपये की गाबापेंटिन का आयात किया। मोटे तौर पर घरेलू खपत का एक तिहाई हम आयात करते हैं और सारा का सारा चीन से। यह सिर्फ एक उदाहरण है। इस तरह की दर्जनों दवाओं के फार्मूलेशंस हैं जिन्हें बनाने की क्षमता होने के बावजूद हम चीन से आयात करते हैं।

चीन में सस्ती कीमत पर बल्क ड्रग्स बनने से भारत की 17 बड़ी कंपनियां बंद हो चुकी हैं 

पिछले कुछ वर्षों में बल्क ड्रग्स (दवाओं के कच्चे माल या एपीआइ यानी एक्टिव फार्मास्यूटिकल्स इंग्रेडिएंट्स) बनाने वाली 17 बड़ी व मशहूर कंपनियां या बंद हो चुकी हैं या उन्होंने इनका निर्माण ही बंद कर दिया है। यह सब इसलिए हुआ है कि चीन भारत से तीन गुना सस्ती कीमत पर बल्क ड्रग्स बनाता है।

भारतीय कंपनियों ने जेनरिक दवाओं के निर्माण में दुनिया में अपना डंका बजा दिया

भारतीय कंपनियों ने जेनरिक दवाओं के निर्माण में दुनिया में अपना डंका बजा दिया है, लेकिन इसमें बड़ा हाथ उन कच्चे माल का भी है जो हम काफी सस्ती दर पर चीन से लेते हैं।

गलवन में चीनी घुसपैठ ने रिश्तों की जड़ों को हिला दिया, अब भारत को जरूरत है आत्मनिर्भर बनने की

अब जबकि गलवन नदी घाटी में चीनी सैनिकों के घुसपैठ ने दोनो देशों के रिश्तों की जड़ों को हिला दिया है तब हमारी जरूरत है कि हम आत्मनिर्भर बनें और फिलहाल निर्भरता को कम तो करें ही। दैनिक जागरण ने इस बारे में देश के दवा उद्योग के धुरंधरों, सरकारी नीतिकारों व कंपनियों के प्रतिनिधियों से बात की और उसका लब्बोलुआब यह है कि पनघट की डगर मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं है। केंद्र व राज्य सरकार अगर आपसी सामंजस्य से काम करें और निजी उद्योग पूरी शिद्दत से लगे तो चीन पर निर्भरता खत्म हो सकती है। हालांकि सभी यह मान रहे हैं कि कुछ वक्त लग सकता है वह पांच से सात वर्ष हो सकता है।

जेनेरिक दवाओं में भारत का लोहा दुनिया मानती है, लेकिन कच्चा माल 100 फीसद तक चीन से लेते हैं

पहले वर्तमान स्थिति पर एक नजर..आकार के हिसाब से भारत का दवा उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा है जबकि लागत के हिसाब से इसका स्थान तीसरा है। अभी इसका आकार 41 अरब डॉलर का है जो वर्ष 2030 तक 120 अरब डॉलर का हो सकता है। वर्ष 2019 में हमने 24,900 करोड़ रुपये का बल्क ड्रग्स आयात किया था जिसका 68 फीसद चीन से आया था। डायबिटीज, हाइपरटेंशन, हृदयरोग, टीबी जैसी गंभीर बीमारियों की दवाओं से लेकर पारासीटामोल तक के निर्माण के लिए हम चीन पर निर्भर हैं। जिन जेनेरिक दवाओं में हमारा लोहा दुनिया मानती है उनमें से कुछ के कच्चे माल हम 100 फीसद तक चीन से लेते हैं। 

भारत जरूरी दवाइयों के लिए चीन पर निर्भर, दो दशक पहले फार्मा उद्योग था चीन से आगे

बीस वर्ष पहले तक बल्क ‌ड्रग्स बनाने में भारत चीन से आगे था। आत्मनिर्भर होने के साथ ही हम दूसरे देशो को भी निर्यात करते थे। इंडियन ड्रग मैन्यूफैक्चरिंग एसोसिएशन के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर अशोक मदान के मुताबिक चीन ने बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से पहले लागत से भी कम मूल्य पर एपीआइ भारतीय बाजार में डंप करना शुरु किया। सस्ते दर ने भारतीय एपीआइ उद्योग को मार दिया, एपीआइ बनाने वाली कंपनियां चीन से सस्ती कीमत पर आयात करने लगी। आज हालात यह है कि हम बेहद जरूरी दवाइयों के लिए भी चीन पर निर्भर हैं।

समग्र तौर पर काम किया जाए तो भारत सात से आठ वर्षों में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो सकता है

उनका कहना है कि, दवाओं के लिए एपीआइ बनाने में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम रातों रात नही होगा। केंद्र सरकार, राज्यों व निजी कंपनियों को साथ मिल कर इस पर काम करना होगा। सिर्फ एपीआइ को लेकर ही नहीं बल्कि यह जिस स्टार्टिंग मैटेरिएल से बनता है उसमें भी आत्मनिर्भर होना होगा। दूसरी इंटरमीडियरी उत्पादों को भी भारत में ही बनाना होगा। तभी हम राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित कर सकेंगे। पर्यावरण मंजूरी की दिक्कत काफी बडी है जिसे वरीयता से लेना होगा। समग्र तौर पर काम किया जाए तो हम सात से आठ वर्षों में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो सकते हैं।

फार्मा कंपनियां एक दशक से एपीआइ को लेकर चीन पर बढ़ती निर्भरता को लेकर आगाह कर रही थीं

फार्मा कंपनियां एक दशक से एपीआइ को लेकर चीन पर बढ़ती निर्भरता को लेकर आगाह कर रही थीं, लेकिन कोरोना संकट के बाद आपूर्ति बाधित होने के बाद गंभीरता दिखी है। बल्क ड्रग्स पार्क और प्रोडक्शन लिंकड् इंसेटिव जैसी दो नीतियों का ऐलान किया गया है। 10 हजार करोड़ रुपये के पैकेज का भी ऐलान किया गया है।

भारत की चुनौती दोहरी, चीन पर निर्भरता खत्म करना और दवाओं व एपीआई का मास प्रोडक्शन करना

देश में तीन बल्क ड्रग्स पार्क बनाने के काम पर शुरु हो चुका है और हर पार्क के लिए केंद्र की तरफ से 1000 करोड़ रुपये दिए जा रहे हैं। जानकार बता रहे हैं कि भारत की चुनौती दोहरी है। चीन पर निर्भरता ही खत्म नहीं करना है बल्कि इन दवाओं व एपीआई का मास प्रोडक्शन करना है तभी हम लागत में टिक सकेंगे। यूरोपीय बाजार में एपीआइ की कीमत चीन के मुकाबले 40 फीसद तक ज्यादा है और साथ ही यूरोपीय कंपनियों की उत्पादन क्षमता भी कम होती है जो भारत की विशाल मांग को पूरी नहीं कर सकते। भारत जैसे विशाल व गरीब देश में दवाइयां महंगी होंगी तो उसका बहुत ही बुरा असर होगा।

जो काम चीन ने तीन दशक पहले किया उसे हमें अब करना होगा

पोली मेडिकेयर लिमिटेड के एमडी हिमांशु बैद का कहना है कि समूचे मेडीसिन सेक्टर में आत्मनिर्भर बनने में सबसे बड़ी जरूरत फार्मा कंपनियो को बिना किसी देरी के सिंगल विंडो मंजूरी देने की व्यवस्था करने की है। एक तरह से जो काम चीन ने तीन दशक पहले किया उसे हमें अब करना होगा। आज भी चीन अपनी फार्मा कंपनियों को भारत के मुकाबले एक तिहाई कीमत पर बिजली और पानी दे रहा है।

भारत में पर्यावरण संबंधी मंजूरी फार्मा सेक्टर के लिए बहुत बड़ी अड़चन 

दूसरी तरफ भारत में पर्यावरण संबंधी मंजूरी फार्मा सेक्टर के लिए बहुत बड़ी अड़चन है। कई कंपनियों को हर छह माह पर पर्यावरण नियमों के पालन पर रिपोर्ट देनी होती है। इस समस्या का समाधान भी केंद्र को राज्यों के साथ मिल कर करना होगा। बैद बताते हैं कि हमें चिकित्सीय उपकरणों से लेकर तैयार दवाओं तक का पूरा वैल्यू चेन बनाने पर ध्यान देना चाहिए।

भारत हर साल 40 हजार करोड़ का चिकित्सीय उपकरण आयात करता है, 30 फीसद चीन से आता है

भारत हर साल 40 हजार करोड़ रुपये का चिकित्सीय उपकरण आयात करता है जिसमें से 30 फीसद चीन से आता है। हाल ही में आंध्र प्रदेश सरकार ने चिकित्सा उपकरणों के लिए विशेष पार्क बना कर एक सफल उदाहरण पेश किया है, यह दूसरे राज्यों के लिए अनुकरणीय है। चिकित्सा उपकरणों में भी हमें कच्चे माल से लेकर उसमें लगने वाले तमाम दूसरे इंटरमीडियरी उत्पादों के निर्माण पर ध्यान देना होगा। साधारण से थर्मामीटर की फैक्ट्री लगाने के लिए भी हमें खास किस्म के प्लास्टिक व चिप्स निर्माण के प्लांट भी लगाने होंगे। तभी सही मायने में आत्मनिर्भर हो सकेंगे।

चीन के सस्ते एपीआइ के जाल में भारत

वर्ष-    चीन से एपीआइ आयात- चीन पर निर्भरता

2013-14----19,000------       64 फीसद

2014-15-----19,800-----      68 फीसद

2015-16-----21,300----       65 फीसद

2016-17-----18,400-------    67 फीसद

2017-18-----19,300-----      68 फीसद

2018-19-----24,900----       68 फीसद

2019-20----18,700-----       67 फीसद

(आयात की राशि करोड़ रुपये में, 19-20 में दिसंबर, 2020 तक की अवधि दिसंबर, 2019 तक की)।

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