Kargil day 2021: टांडा टाइगर फोर्स के जवान पीठ और टांगों में गोले बांधकर चढ़ गए थे कारगिल की दुर्गम चोटियों पर

22 साल पहले कारगिल में 25 हजार फुट ऊंची बर्फीली चोटियों पर लड़े गए युद्ध के 3500 ऐसे नायक भी हैं जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। ये जांबाज जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़कर ही वापस लौटे।

By Arun Kumar SinghEdited By: Publish:Sun, 25 Jul 2021 06:21 PM (IST) Updated:Mon, 26 Jul 2021 06:37 PM (IST)
Kargil day 2021: टांडा टाइगर फोर्स के जवान पीठ और टांगों में गोले बांधकर चढ़ गए थे कारगिल की दुर्गम चोटियों पर
जम्मू और आसपास के जिलों के ग्रामीण युवाओं की टांडा टाइगर फोर्स के जवान

अवधेश चौहान, जम्मू। 22 साल पहले कारगिल में 25 हजार फुट ऊंची बर्फीली चोटियों पर लड़े गए युद्ध के 3,500 ऐसे नायक भी हैं, जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। ये जांबाज न सिर्फ सेना की एक आवाज पर उठ खड़े हुए थे बल्कि जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारतीय क्षेत्र में दाखिल हो चुके पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़कर ही वापस लौटे। जम्मू और आसपास के जिलों के ग्रामीण युवाओं की टांडा टाइगर फोर्स के जवान अपनी पीठ और टांगों पर बम के गोले बांधकर पहाड़ चढ़ गए। सेना के साथ पोर्टर (कुली) के रूप में काम करते हुए इन युवाओं ने भारतीय चौकियों और अग्रिम मोर्चों तक गोलाबारूद के साथ खाना और रसद भी पहुंचाई, ताकि हमारे जवान मजबूती से दुश्मन के सामने डटे रहें। कारगिल युद्ध में टांडा टाइगर फोर्स के सात पोर्टर ने शहादत पाई और 25 गंभीर रूप से घायल भी हुए। कारगिल विजय दिवस की 21वीं वर्षगांठ पर पूरा देश इन वीरों को सलाम करता है।

स्थानीय युवाओं को प्रेरित करने को कहा  

वर्ष 1999 में कारगिल की पहाड़ि‍यों पर पाकिस्तानी सैनिकों ने घुसपैठ कर कब्जा कर लिया था। युद्ध के दौरान सेना को ऊंची पहाड़ि‍यों तक हथियार, गोलाबारूद और अन्य रसद पहुंचाने में पोर्टर की भारी कमी महसूस हुई। उन दिनों कर्नल जेपी सिंह ऊधमपुर कमान मुख्यालय में तैनात थे। स्थानीय होने के नाते कर्नल जेपी सिंह ने जम्मू जिले की अखनूर तहसील के अपने गांव टांडा के युवाओं को पोर्टरों के रूप में भर्ती कर छह एडहाक (अस्थायी) कंपनियों को तैयार करने का जिम्मा अपने भाई केपी सिंह को सौंपा। तत्कालीन राज्यसभा सदस्य व जम्मू-कश्मीर के पूर्व सदर-ए-रियासत डा. कर्ण सिंह ने भी परिस्थितियों को देखते हुए केपी सिंह को युवाओं को प्रेरित करने को कहा।

एक गांव से ही पांच सौ युवा आए

जम्मू से 35 किलोमीटर दूर टांडा गांव में रहने वाले केपी सिंह पोर्टरों की समानांतर फौज तैयार करने में जुट गए। छोटे से टांडा गांव के ही करीब 500 युवा उनके साथ हो लिए। देश पर खतरे को भांपते हुए सीमावर्ती गांव ज्यौड़ि‍यां, खौड़, परगवाल, छम्ब और कठुआ व ऊधमपुर जिलों के युवाओं ने भी पोर्टर के रूप में सेना की मदद करने को हामी भर दी। इसके बाद सांबा और ऊधमपुर तक के युवाओं में जम्मू-कश्मीर के महाराजा के सिपहसालार रहे जनरल जोरावर सिंह का जज्बा हिलोरे मारने लगा। जनरल जोरावर सिंह ने भी जम्मू-कश्मीर को गिलगित तक बढ़ाया था। उन्हीं के जज्बे से प्रेरित होकर बनी टांडा टाइगर फोर्स में देखते ही देखते साढ़े तीन हजार युवा शामिल हो गए।

15 दिन तक कड़ी ट्रेनिंग भी दी गई

केपी सिंह ने पोर्टरों की इस फोर्स को 'अखनूर टांडा टाइगर फोर्स' का नाम दिया। इन जांबाजों को कारगिल की ऊंची चोटियों पर भेजने से पहले उन्हें 15 दिन तक कड़ी ट्रेनिंग भी दी गई। भारतीय सैनिकों की तरह उन्हें छह जून, 1999 को गोलाबारूद और खाने-पीने की रसद ले जाने के लिए तैनात कर दिया गया। भारत माता की जय के नारे लगाते हुए इन पोर्टरों ने कारगिल युद्ध जीतने में अहम योगदान दिया।

जब पाकिस्तान के तीन गोले गिरे

पोर्टर की भूमिका निभाने वाले विजय शर्मा बताते हैं, कारगिल युद्ध के दौरान जब भारतीय जवान 25 हजार फुट की ऊंचाई पर चशुल घाटी पर पहुंचे तो चारों तरफ बर्फ ही बर्फ थी। सांस और खून जमा देने वाली ठंड के बीच हमें एक गोला पीठ पर और दो गोले टांगों में बांध कर 30 किलो वजन लेकर रस्सी के सहारे 50 फुट ऊपर चढऩा पड़ता था। जवानों के लिए हथियार व गोलाबारूद के अलावा केरोसिन, खाने का सामान आदि भी हम साथ ले जाते थे। कई बार तो सेना के जवान भी कहते थे कि इतना जोखिम मत उठाओ, लेकिन उस समय हम सभी का लक्ष्य टाइगर हिल पर तिरंगा फहराने का था। विजय शर्मा ने कहा, एक बार चशुल घाटी पर मैं और मेरा साथी विजय कुमार सेना की रसद लेकर जा रहे थे कि टाइगर हिल और उसके आसपास निगरानी कर रहे पाकिस्तानी सैनिकों ने हमारी मूवमेंट को भांप लिया। उन्होंने तीन गोले हमारी तरफ दागे। हम सांसें थामकर बैठ गए। सामने मौत को देखकर लगा कि अब नहीं बचेंगे, लेकिन तीनों गोले बर्फ में दब गए, फटे नहीं और हम अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ गए।

अधिकारों की लड़ रहे लड़ाई

टांडा टाइगर फोर्स के युवाओं को कारगिल युद्ध का हिस्सा बनने पर गर्व तो है, लेकिन मलाल इस बात का है कि उन्हेंं आश्वासन के बावजूद कारगिल युद्ध खत्म होने के बाद भी सेना में भर्ती नहीं किया गया। न ही उन्हेंं नियमित भर्ती के दौरान कोई प्राथमिकता दी गई। इन पोर्टरों को युद्ध के दौरान 2,500 से 4,000 रुपये महीना पारिश्रमिक मिलता था। ये पोर्टर युद्ध समाप्त होने के बाद भी हथियार व गोलाबारूद संभालने के लिए नवंबर 1999 तक मोर्चे पर डटे रहे। टांडा फोर्स के नायक केपी सिंह आज भी पोर्टर्स के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।

उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने भी पोर्टर्स को भारतीय सेना के समकक्ष सेना में लाभ दिए जाने का केंद्र सरकार को निर्देश दिया था। तत्कालीन राज्यसभा सदस्य डा. कर्ण सिंह और लोकसभा सदस्य वाईएस विवेकानंद रेड्डी ने भी पोर्टर्स को लाभ देने की वकालत की थी। केपी सिंह का कहना है कि उन्होंने पोर्टर्स को उनके अधिकार दिए जाने की मांग सांसद जुगल किशोर और प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री डा. जितेंद्र सिंह के समक्ष भी रखी है।

सेना ने पोर्टर के हौसले व सहयोग को सराहा था

कारगिल डिवीजन के तत्कालीन जनरल आफिसर कमांडिंग (जीओसी) मेजर जनरल वीएस भुल्लर ने टांडा फोर्स के जवानों के हौसले व सहयोग को सराहा था। केपी सिंह को भी स्थानीय युवाओं को कारगिल युद्ध में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करने पर प्रशस्ति पत्र दिया गया था। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जीसी सक्सेना व डा. कर्ण सिंह भी केपी सिंह को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित कर चुके हैं।

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