एक दौर ऐसा भी था जब सड़क पर चूने से नेता का नाम और स्थान लिखने से उमड़ पड़ते थे हजारों लोग

देश को जानना चाहिए कि यहां ऐसे भी नेता हुए जिनके दौरे की जानकारी देने का समय नहीं होता था तो सड़क पर चूने से सिर्फ उनका नाम और स्थान लिख दिया जाता था फिर हजारों लोग उमड़ते थे।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Mon, 06 Jul 2020 07:05 AM (IST) Updated:Mon, 06 Jul 2020 08:36 AM (IST)
एक दौर ऐसा भी था जब सड़क पर चूने से नेता का नाम और स्थान लिखने से उमड़ पड़ते थे हजारों लोग
एक दौर ऐसा भी था जब सड़क पर चूने से नेता का नाम और स्थान लिखने से उमड़ पड़ते थे हजारों लोग

नई दिल्ली [अनंत विजय]। हिंदी साहित्य के इतिहास में 'सरस्वती' पत्रिका का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इस पत्रिका का प्रकाशन सन 1900 से आरंभ हुआ तो बाबू श्यामसुंदर दास ने इसका जिम्मा संभाला था। तीन साल बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इसके संपादक बनाए गए जो 1920 तक रहे।

इनके बाद पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और पंडित देवीदत्त शुक्ल जैसे विद्वानों ने इस पत्रिका को संभाला था। 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से इसके संपादकों ने हिंदी को बहुत समृद्ध किया। इस पूरे दौर में 'सरस्वती' पत्रिका में उकृष्ट साहित्य तो छपता ही था उस दौर की प्रमुख हस्तियों पर भी लेख आदि छपा करते थे। संपादकों की दृष्टि इतनी सजग होती थी कि कोई भी महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना या साहित्यप्रेमी से संबंधित किसी प्रसंग को विषय विशेष के विद्वान से लिखवाते थे।

इस बात की चर्चा इस वजह से प्रासंगिक है कि आज (6 जुलाई) भारत माता के सपूत श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब देश की एकता और अखंडता के लिए 23 जून को अपना बलिदान दिया था तो 'सरस्वती' पत्रिका में देश, समाज और साहित्य के प्रति उनके योगदान को रेखांकित करते हुए चार पन्ने का बड़ा लेख प्रकाशित हुआ था। ये लेख लिखा था उस वक्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के आचार्य शिवाधार पांडेय ने और उस समय पत्रिका के संपादक थे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और देवीदयाल चतुर्वेदी। 

इस लेख की शुरुआत शिवाधार जी ने कुछ इस प्रकार की थी, 'कलिकाल में भी इस भारत भूमि में नररत्न अवतार लेते हैं, कर्मभूमि में आकर अपने कर्म सुधारते हैं, परलोक संवारते हैं और संसार उद्धारते हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे ही अवतारी पुरुष थे। 'सरस्वती' पत्रिका में इस लेख का शीर्षक 'नरकेसरी श्यामा प्रसाद मुखर्जी दिया गया था। अपने लेख में आचार्य शिवाधार पांडेय ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के संस्मरण तो लिखे ही थे, उनकी लोकप्रियता को भी पाठकों के सामने प्रस्तुत किया था। 

देश को यह जानना चाहिए कि इस देश में ऐसे भी नेता हुए जिनके दौरे की जानकारी देने का समय नहीं होता था तो सड़क पर चूना से सिर्फ उनका नाम और स्थान लिख दिया जाता था और फिर सभा में ऐसी भीड़ उमड़ती थी कि सभास्थल पर तिल रखने की जगह नहीं होती थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ ऐसा ही हुआ था 1953 में मुंबई में एक जनसभा में। ये पूरा प्रसंग विस्तार से लिखा गया है। 

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब अंग्रेजी में स्नातक किया तो उनके पिता आशुतोष मुखर्जी ने उनसे आग्रह किया कि उनको बांग्ला में एमए करना चाहिए, क्योंकि इससे भारतीय भाषाओं को मजबूती मिलेगी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के दिल में ये बात बैठ गई, उन्होंने बांग्ला में एमए किया। इसके बाद जब वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो दीक्षांत समारोह में रवीन्द्रनाथ टैगोर को आमंत्रित किया। जब टैगोर ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उनसे अनुरोध किया कि वो अपना भाषण बांग्ला में दें।

टैगोर ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय में पहली बार किसी ने बांग्ला में भाषण दिया। यह अपनी भाषा के प्रति श्यामा प्रसाद मुखर्जी का प्रेम था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को हिंदी से भी बहुत लगाव था। जनसंघ का पहला अधिवेशन कानपुर के फूलबाग में दिसंबर 1952 में हुआ था और डॉ. मुखर्जी तीन दिन तक वहां उपस्थित रहे थे, इसको भी शिवाधार पांडेय जी ने दिलचस्प तरीके से 'सरस्वती' के लेख में रेखांकित किया है। 

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