देसी खिलौनों से विश्व को लुभाने की तैयारी कर रहा भारत, हुनर हाट मेले में रहेगी स्वदेशी की धूम

आगामी अक्टूबर महीने की शुरुआत से देश के विभिन्न राज्यों में शुरू हो रहे हुनर हाट मेले में लोगों को लुभाएंगे स्वदेशी खिलौने।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sun, 20 Sep 2020 06:50 AM (IST) Updated:Sun, 20 Sep 2020 07:25 PM (IST)
देसी खिलौनों से विश्व को लुभाने की तैयारी कर रहा भारत, हुनर हाट मेले में रहेगी स्वदेशी की धूम
देसी खिलौनों से विश्व को लुभाने की तैयारी कर रहा भारत, हुनर हाट मेले में रहेगी स्वदेशी की धूम

नई दिल्‍ली, अंशु सिंह। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा खुद स्‍वदेशी खिलौनों में रुचि लिए जाने और ‘एक भारत, श्रेष्‍ठ भारत’ के तहत खिलौनों के जरिए भारतीय संस्‍कृति और संस्‍कारों को बढावा देने के आह्वान के बाद देश में खिलौना उद्योग के फिर से फलने-फूलने के दिन आते दिख रहे हैं। इस कड़ी में सरदार वल्‍लभ भाई पटेल, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्‍मीबाई, परमवीर चक्र विजेता योद्धाओं आदि के अलावा भारतीय संस्‍कृति से जुड़े मूल्‍यों, योग आदि पर आधारित खिलौनों को प्रोत्‍साहित करने के लिए केंद्रीय उद्योग व व्‍यापार संवर्धन विभाग नौ विभिन्‍न मंत्रालयों के साथ मिलकर काम कर रहा है। आइए इस संदर्भ में देसी खिलौनों के संसार पर डालते हैं एक नजर...

आगामी अक्टूबर महीने की शुरुआत से देश के विभिन्न राज्यों में शुरू हो रहे हुनर हाट मेले में लोगों को लुभाएंगे स्वदेशी खिलौने। इसके जरिए दस्तकारों एवं खिलौना कारीगरों को भी बड़े बाजार तक पहुंचने का मौका मिलेगा। मेले में 30 प्रतिशत से अधिक स्टॉल स्वदेशी खिलौनों के कारीगरों के लिए आरक्षित होंगे। भारत के घरेलू खिलौना उद्योग का समृद्धशाली इतिहास रहा है। उत्तर प्रदेश, बंगाल, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में सदियों से दस्तकार, शिल्पी अपने हाथों से आकर्षक खिलौने बनाते आ रहे हैं। बदलते वक्‍त के साथ वे तकनीक का प्रयोग भी कर रहे हैं। सुखद यह भी है कि अब नए स्टार्टअप खिलौना निर्माण से जुड़ रहे हैं। उन्होंने खिलौनों में नवाचार कर स्वयं को बाजार में स्थापित किया है।

एक दौर था जब इतने इलेक्ट्रॉनिक गैजेट या आधुनिक खिलौने नहीं थे। बच्चे फर्श पर चॉक से लकीरें खींचकर, डायस की जगह इमली के बीज से बोर्ड गेम खेल लिया करते थे। वे गुल्ली-डंडा, लट्टू, पचीसी और न जाने क्या-क्या खेलते था। उद्देश्य एक होता था, दो से तीन घंटे घर से बाहर मैदान या खुले आसमान के नीचे खेलना। मजे करना। लेकिन आज के दौर में ज्यादातर बच्चे वर्चुअल दुनिया में अकेले ही सारे गेम्स खेल रहे हैं। उनके पास खिलौनों के सीमित विकल्प रह गए हैं। सुरक्षा एवं अन्य कारणों से अभिभावक भी उन्हें कुछेक बड़े ब्रांड्स के खिलौने देना ही उचित समझते हैं। लड़कियों के लिए किचन सेट, बार्बी डॉल और लड़कों के लिए गन या मोटरबाइक तय मान लिया गया है, जबकि खिलौनों से बच्चों का ईक्यू (इमोशनल कनेक्ट) यानी भावनात्‍मक रिश्‍ता मजबूत होता है।

इनोवेटिव खिलौने बनाने में देसी कारीगरों की मदद : इसमें कोई संदेह नहीं कि देसी खिलौनों से बच्चों को अपनी संस्कृति और संस्‍कारों से जुड़ने का अवसर मिलता है। लेकिन सच यह भी है कि आज ये खिलौने खेलने से अधिक सजावट की वस्तु मात्र बनकर रह गए हैं। यही वजह है कि नई पीढ़ी के उद्यमियों से लेकर स्टार्ट अप कंपनियां बदलते वक्त की मांग के अनुसार, खिलौने बनाने की कोशिश कर रही हैं। आठ साल रिटेल सेक्टर में काम करने के बाद मुंबई की स्वप्ना वाघ ने 2012 में खिलौना निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा और शुरू हुआ ‘देसी ट्वॉयज’ का सफर। वह बताती हैं, ‘मैंने तय किया था कि कोई भी कच्चा माल चीन या विदेश से आयात नहीं करेंगे। स्थानीय वस्तु नॉन-प्लास्टिक), हुनर, कला एवं कारीगरों की मदद से खिलौने तैयार करेंगे, जिससे बच्चों की खिलौनों में रुचि जगाई जा सके।

शुरुआत में अलग-अलग प्रदेशों के कारीगरों को तलाशने में समय लगा। क्योंकि अधिकांशत: पारंपरिक खिलौना बनाना छोड़ चुके थे। लेकिन समझाने पर वे राजी हो गए।‘ स्वप्ना के अनुसार, आज वह कई पुराने खेलों को पुनर्जीवित करने के साथ उनमें इनोवेशन करने का प्रयास भी कर रही हैं। जैसे- देसी बोर्ड गेम्स के तहत सांप-सीढ़ी के खेल को पौराणिक कहानियों (दशावतार सांप-सीढ़ी) एवं मधुबनी पेंटिंग की मदद से नया स्वरूप दिया गया है। इससे बच्चों को न सिर्फ आनंद आएगा, बल्कि वे कोई न कोई सबक भी लेंगे। वह बताती हैं, ‘मैं अपने सस्टेनेबल खिलौनों (लकड़ी, कार्डबोर्ड, मेटल) की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करती। गैर-हानिकारक रंगों का प्रयोग किया जाता है। हम कारीगरों को डिजाइन उपलब्ध कराते हैं, जिसके अनुरूप खिलौने तैयार होते हैं। उनके अपने भी सुझाव आते हैं। अलग-अलग उम्र के बच्चों के लिए अलग खिलौने होते हैं, जो हमारी वेबसाइट के साथ अन्य ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म से खरीदे जा सकते हैं। हमारा देसी स्टीम बोट ‘पुट-पुट’ बच्चों में काफी लोकप्रिय है।‘

शौक से पड़ी सॉफ्ट टॉयज के देसी ब्रांड की नींव : लगभग 30 वर्ष पहले दिल्ली की जसपाल कौर कोहली ने भी घर पर शौकिया खिलौने बनाने शुरू किए थे। वे कुटीर उद्योग के लिए गुड़िया बनाया करती थीं। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी कल्पनाओं को पंख दिए और उसके अनुरूप सॉफ्ट टॉयज विकसित करने लगीं। 1994 में जब इनके बेटे कारोबार में आए, तो उन्होंने संगठित रूप से काम करना शुरू किया और फिर नींव पड़ी ‘डिंपी टॉयज’ की, जो आज एक ब्रांड बन चुका है। कंपनी के निदेशक यशविंदर सिंह कोहली बताते हैं, ‘हमारा एकमात्र उद्देश्य उचित मूल्य पर गुणवत्ता वाले खिलौने बनाना है। इसके लिए इनहाउस डिजाइनर्स की टीम है,जो बाजार की मांग के अनुकूल खिलौने तैयार करने में कारीगरों की मदद करती है।

कुछ कच्चे माल (अंतरराष्ट्रीय मापदंड पर खरे उतरने वाले कपड़े, एक्सेसरी आदि) विदेश से आयात करने पड़ते हैं, क्योंकि भारत में वह उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की शुरुआत के बाद से पानीपत, लुधियाना, सूरत एवं कपड़ा उद्योग से जुड़े अन्य शहरों के कुछ भारतीय सप्लायर्स अच्छी गुणवत्ता वाले कपड़े विकसित करने लगे हैं, जिनसे अब हम खरीदारी करते हैं। डिंपी टॉयज के फिलहाल दो यूनिट्स (ग्रेटर नोएडा एवं दिल्ली) हैं, जहां खिलौनों का निर्माण होता है। जल्द ही इनकी योजना भिवाड़ी एवं यमुना एक्सप्रेस वे के समीप नए प्लांट स्थापित करने की है। यशविंदर की मानें, तो सॉफ्ट टॉयज के निर्माण को बढ़ावा मिलने से महिला कारीगरों का भी उत्थान हो सकेगा।

ऐतिहासिक है चन्नापटना का खिलौना उद्योग : देश में ऐसे कम ही खिलौने हैं, जिनका इतिहास 300 वर्ष पुराना हो। बेंगलुरु से करीब 60 किलोमीटर दूर स्थित चन्नापटना के खिलौने उनमें से एक हैं। यहां बीतेलगभग 200 वर्षों से इन खिलौनों का निरंतर निर्माण किया जा रहा है। यही कारण है कि इस शहर को कर्नाटक का ‘टॉय टाउन’ भी कहा जाता है। विश्व व्यापार संगठन की ओर से इसे जीआइ टैग भी प्राप्त है, जिसका अर्थ है कि यहां के कारीगार चन्नापटना के ब्रांड नाम से विश्व भर में कहीं भी अपने खिलौनों की बिक्री कर सकते हैं। इन खिलौनों की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा एवं भूटान के प्रिंस सहित तमाम राजनेताओं-अतिथियों तक को चन्नापटना के खिलौने भेंट किए जा चुके हैं।

वहीं, अगर इन खिलौनों के इतिहास को टटोलने का प्रयास करें, तो वह भी कम रोचक नहीं है। बताते हैं कि एक बार टीपू सुल्तान के दरबार में कोई मेहमान पर्शिया से तोहफे लेकर आया था। लकड़ी के उन खिलौनों को देखकर सुल्तान इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पर्शिया से आए कारीगरों से आग्रह किया कि वे चन्नापटना के स्थानीय कारीगरों को भी अपना यह हुनर सिखाएं। उसके बाद से ही यहां लकड़ी एवं लाख से बने खिलौनों का निर्माण होने लगा। बीते करीब 40 वर्षों से यहां खिलौनों के निर्माण से जुड़े श्रीनिवासन बताते हैं, ‘हमारे खिलौने खास प्रकार की लकड़ी से तैयार किए जाते हैं, जो हल्के होने के साथ सख्त भी होते हैं। पहले इनके लिए आइवरी वुड का प्रयोग अधिक होता था, लेकिन अब गूलर, देवदार, रबरवुड, पाइनवुड से खिलौने बनाए जाते हैं।

खास बात यह है कि खिलौने बनाने की प्रक्रिया में यहां थोड़ी भी लकड़ी बेकार नहीं जाती। बची हुई लकड़ी का उपयोग अन्य खिलौने बनाने या हवन की सामग्री तैयार करने में हो जाता है।‘ देश के अलावा चन्नापटना के खिलौनों की मांग दुनिया के अन्‍य देशों में भी खूब है। शहर की बहुसंख्य आबादी इसी उद्योग से जुड़ी है। हालांकि सरकार से सहयोग व प्रोत्‍साहन मिलने के बावजूद कोरोना काल में अन्‍य क्षेत्रों की तरह यहां के खिलौना कारोबार पर भी असर पड़ा। उम्‍मीद की जा रही है कि केंद्र सरकार और खासकर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्‍वदेशी खिलौना उद्योग को बढ़ावा दिए जाने के बाद यहां के कारोबार को भी गति मिल सकेगी।

वाराणसी में पीढ़ियों से बन रहे लकड़ी के खिलौने : सरकार घरेलू खिलौना उद्योग को प्रोत्साहित करना चाहती है, ताकि बच्चों के अनुकूल वैश्विक स्तर के खिलौनों का निर्माण हो सके। इसके लिए विभिन्न शहरों को टॉय सिटी के रूप में विकसित करने की योजना है। इसके अलावा, हुनर हाट के जरिये छोटे कारीगरों को बाजार उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। इससे देश में मौजूद खिलौना कारीगरों एवं उद्यमियों के बीच एक सकारात्मक संदेश गया है और वे शिथिल पड़ चुके उपक्रमों को पुनर्जीवित करने के प्रयास में जुट गए हैं। हालांकि उनके समक्ष कई प्रकार की चुनौतियां हैं। जैसे, प्राचीनतम काशी नगरी की ही बात करें, तो इसकी पहचान काष्‍ठ-खिलौनों के निर्माण से भी रही है। यह जानना भी कम दिलचस्‍प नहीं है कि काशी के रामकटोरा निवासी सीताराम विश्वकर्मा की तीसरी पीढ़ी आज इस व्यवसाय को आगे बढ़ाने में लगी हुई है।

वाराणसी के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से एमकॉम करने वाले संदीप विश्वकर्मा ने नौकरी के पीछे भागने के बजाय अपनी शिक्षा एवं ज्ञान का उपयोग पुरखों से चले आ रहे खिलौना कारोबार को संभालने के लिए किया। वह बताते हैं, ‘दादा जी और पिता जी का दौर हालांकि अलग था। अब हमारे सामने कई प्रकार की चुनौतियां हैं, जिसमें जीएसटी की समस्या सबसे अधिक है। प्रधानमंत्री की पहल का हम स्वागत करते हैं और अपील करते हैं कि खिलौना उद्योग को जीएसटी से मुक्त रखा जाए।‘ वहीं, लहरतारा निवासी एवं राजकीय सम्मान प्राप्त प्रेमशंकर विश्वकर्मा के अनुसार, ‘शिल्पियों को बाजार मुहैया कराने के साथ ही विदेश में उत्पाद भेजने एवं प्रचार-प्रसार की व्यवस्था होने से उद्यमियों का मनोबल बढ़ेगा।’ जीआइ विशेषज्ञ डॉ. रजनीकांत बताते हैं, ‘यहां सदियों से लकड़ी के खिलौने बनाए जा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार, यहां खिलौनों की 500 से भी अधिक किस्में तैयार की जाती रही हैं। इन खिलौनों की खास बात यह कि इनमें इस्तेमाल होने वाले रंग कारीगर स्वयं तैयार करते हैं।’

चित्रकूट काष्ठ खिलौना उद्योग : वाराणसी की तरह चित्रकूट में भी लकड़ी के खिलौने बीते करीब 400 वर्षों से बन रहेहैं। ‘राष्ट्रीय शिल्प गुरु’ के पुरस्कार से सम्मानित यहां के गोरेलाल राजपूत ने आजादी के बाद पहला बिजली कनेक्शन लेकर छोटी खराद मशीन से इस उद्योग को आधुनिक रूप दिया था। हालांकि प्रोत्‍साहन की कमी से उसके बाद तकनीकी विकास थोड़ा शिथिल पड़ गया। सीमित संसाधनों और प्रतिकूलताओं के बावजूद धीरज, बलराम राजपूत, अजय सिंह, पप्पू जैसे तमाम कारीगर आज भी खिलौना उद्योग को गति देने में जुटे हैं। यहां के उद्यमियों के अनुसार, मार्केंटिंग की समुचित व्यवस्था (आनलाइन बाजार) होने, खिलौनों के शोरूम खोलने, बैंकों से आसानी से ऋण उपलब्ध होने एवं वन निगम के माध्यम से लकड़ी की आपूर्ति सुनिश्‍चित कराए जाने की स्‍थिति में वे विदेशी खिलौनों का आसानी से मुकाबला कर सकते हैं। सहारनपुर के नक्‍काशीदार खिलौनों का जलवा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक शहर सहारनपुर के शीशम की लकड़ी से बने नक्काशीदारों खिलौनों की भी देश-विदेश में मांग रही है।

किसी जमाने में यह ‘वुड कार्विंग सिटी’ के नाम से विख्यात था। यहां करीब डेढ़ लाख से अधिक कारीगर थे। खाता खेड़ी, लकड़ी बाजार इलाका तो खासतौर पर लकड़ी के इन दस्तकारों के लिए जाना जाता था। यहां खिलौने, लैंप, लालटेन, फर्नीचर आदि सब मिलते थे। सहारनपुर वुड कार्विंग एसोसिएशन के अध्यक्ष शेख फैजान बताते हैं कि यहां के लकड़ी के बने हाथी, घोड़े, ट्रेन, बस आदि खिलौनों की देशभर में आपूर्ति के अलावा दुनिया के विभिन्‍न देशों में भी निर्यात किया जाता रहा है। लेकिन चीन द्वारा भारतीय खिलौना बाजार पर कब्जा किए जाने के बाद से इन खिलौनों की मांग जरूर कम हुई, पर इसके आकर्षक को खत्‍म नहीं किया जा सका।’ अब सरकार द्वारा देशी खिलौनों को प्रोत्‍साहित करने का कदम उठाने के बाद उम्‍मीद की जा रही है कि सहारनपुर के खिलौने एक बार फिर देश और विदेश के लोगों को पहले की तरह लुभाने में कामयाब होंगे। वुड कार्विंग कारोबारी शाहजमां बताते हैं कि यहां तमाम कारीगर अब भी मौजूद हैं, जिन्हें एक सुगठित बाजार दिए जाने से हालात बदल सकते हैं। यहां समीर मलिक जैसे उत्‍साही युवा हैं जो पुश्तैनी कारोबार को आगे बढ़ाने में लगे हैं। वे कारीगरों से नए डिजाइन के खिलौने व उत्पाद बना उन्हें ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की मदद से बाजार तक पहुंचा रहे हैं। इससे जर्मनी, फिनलैंड, मध्य एशिया के देशों से भी उन्हें ऑर्डर मिलने लगे हैं।

समय के साथ बदलाव की जरूरत

सारी उम्मीदों के बीच एक सच यह भी है कि कोरोना काल में पारंपरिक खिलौनों का कारोबार बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। मध्य प्रदेश के भोपाल की ही बात करें, तो यहां लगभग 100 कारीगर लकड़ी के पारंपरिक खिलौने बनाते हैं। लेकिन कारीगर मोहम्मद शकील के अनुसार, कोरोना से पहले रोजाना 8 से 10 खिलौने बेच दिया करते थे। वह कहते हैं कि यहां कई पीढ़ियों से खिलौने बनाए जा रहे हैं। इसलिए हम इस कला को जिंदा रखे हुए हैं। प्रदेश के बुधनी शहर में भी लैकर्ड वुड से बने इको फ्रेंडली खिलौनों (पजल,मैथमेटिकल बिल्डिंग स्टैक्स, म्यूजिकल टॉयज) की अच्छी मांग रही है। दूसरी ओर,पीढिय़ों से मिट्टी के खिलौने बना रहे बिहार, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल के कारीगरों का कहना है कि बदलते समय और मांग को देखते हुए अब वे सिर्फ त्योहारों को देखते हुए गणेश-लक्ष्मी की प्रतिमा,पशु-पक्षी व फल की आकृति वाले खिलौने ही बनाते हैं। पटना सिटी के खिलौना कारीगर उमेश पंडित का कहना है कि मांग घटने से कुछ कारीगर अब लकड़ी एवं कपड़े के खिलौने बनाने लगे हैं।

वाराणसी को बनाया जाए ‘टॉय सिटी’

वाराणसी के खिलौना निर्माता गोदावरी सिंह ने बताया कि मैं तो मानता हूं कि वाराणसी में ही टॉय सिटी बनाने की आवश्यकता है। क्योंकि यहां खिलौनों की 500 से अधिक किस्में बनती हैं। खास बात यह भी है कि खिलौनों में प्रयोग होने वाले चटक रंग कारीगर खुद से तैयार करते हैं। इसके साथ ही यहां कारीगरों के लिए ट्रेनिंग सेंटर भी खुलने चाहिए। कॉमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) की सुविधा मिलने से वे और कुशलता एवं नवीनता के साथ कार्य कर पाएंगे। उन्हें एक ही छत के नीचे छोड़ी-बड़ी मशीनें मिल जाएंगी, जिससे वे अपना उत्पाद तैयार कर सकेंगे।

डिजाइनिंग के स्तर पर चाहिए सुधार

दिल्ली के डिंपी टॉयज निदेशक यशविंदर सिंह कोहली ने बताया कि हमारे देश में अच्छी गुणवत्ता वाले खिलौने बन रहे हैं। कुछ तो गुणवत्ता एवं कीमत दोनों ही मामलों में चीन के खिलौनों को मात देते हैं। यूं कहें कि देसी खिलौनों के विकसित होने की संभावनाएं बहुत हैं, लेकिन प्रेजेंटेशन एवं डिजाइनिंग के स्तर पर वे थोड़े फीके पड़ जाते हैं। इसके अलावा, रिसर्च एवं डेवलपमेंट के साथ-साथ अगर सरकार तकनीक पर ध्यान दे, निफ्ट, एनआइडी जैसे शैक्षणिक संस्थानों में टॉय डिजाइनिंग को प्रोत्साहित करे, तो निर्माण प्रक्रिया में आने वाली कई कमियों को दूर किया जा सकता है।

खिलौना उद्यमियों के सामने जमीन के अलावा सस्ते ऋण मिलने की भी चुनौती आती है। इस पर ध्यान देने के साथ ऐसा इकोसिस्टम बनाने की आवश्यकता है, जहां सब मिलकर खिलौना उद्योग को एक दिशा दे सकें। सरकार द्वारा कलस्टर बनाने से उद्योग को मदद मिलने की संभावना है, क्योंकि इससे एक-दूसरे से सीखने, कॉमन फैसिलिटी का इस्तेमाल करने, श्रमिकों को प्रशिक्षण देने में सहूलियत होगी। चीन, कोरिया में इस तरह के प्रयोगों से उद्योगों को काफी लाभ मिला है।

खिलौनों की टेस्टिंग से बढ़ेगी गुणवत्ता

मुंबई के देसी टॉयज के संस्थापक स्वपना वाघ ने बताया कि भारत का खिलौना बाजार विकसित हो रहा है, इसमें दो मत नहीं। लेकिन हम फिलहाल चीन या किसी अन्य देश से इसकी तुलना नहीं कर सकते। क्योंकि यूरोप, अमेरिका की तरह हमारे यहां खिलौनों की सुरक्षा एवं टेस्टिंग को लेकर कोई विशेष मापदंड नहीं रहा है। इसलिए विदेश के रिजेक्ट किए गए खिलौने हमारे यहां डंप कर दिए जाते थे।

 

आम लोगों को भी जब सस्ते में सामान मिलने लगे, तो उन्होंने गुणवत्ता के ऊपर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। लेकिन अब भारत सरकार ने खिलौनों के लिए आइएसआइ मार्क को अनिवार्य बनाने का निर्णय लिया है, जिससे गुणवत्‍ता का पता लग सके। इससे सोच मेंथोड़ा बदलाव आएगा। हालांकि, टेस्टिंग लैब स्थापित करना कारीगरों एवं छोटे उद्यमियों के लिए आसान नहीं होगा। उन्हें फंड्स एवं जमीन की जरूरत होगी। ऐसे में अगर सरकार खिलौना उद्योग को पुनर्जीवित करना चाहती है, तो उसे इनकी मदद करनी होगी। साथ ही, लाइसेंस और ऋण में सब्सिडी देने के ऊपर विचार करना होगा।

मॉन्टेसरी बच्चों के लिए इनोवेटिव खिलौने

बेंगलुरु के खिलौना निर्माता मारिया ने बताया कि मैं पेशे से इंजीनियर हूं। लेकिन 2015 में शौकिया तौर पर छोटे बच्चों के लिए खिलौने बनाना शुरू किया। स्कूलों से संपर्क कर वहां क्रोशिया एवं फेल्ट फैब्रिक से बने खिलौनों की आपूर्ति करने लगी। इन खास वस्तुओं से खिलौने बनाने का एक ही उद्देश्य है कि वे कहीं से बच्चों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। उन्हें साफ करना (धोना) आसान है। वे इको फ्रेंडली हैं।

मैं प्रमुखत: मॉन्टेसरी एजुकेशन को ध्यान में रखकर खिलौने बनाती हूं। इसके अलावा, उनकी उम्र को भी ध्यान में रखती हूं। जैसे छोटे बच्चों की आइसाइट स्टिम्यूलेशन के लिए सफेद-काले रंग के सॉफ्ट टॉयज अच्छे होते हैं। छोटे बच्चों को आवाज से परिचय कराने के लिए खिलौनों में घुंघरू का इस्तेमाल करती हूं। इससे बच्चों में फाइन एवं ग्रॉस मोटरस्किल विकसित करने में मदद मिलती है। मैं अलग-अलग कपड़ों (सिल्क, रफ, सूती, ऊनी आदि) से बने खिलौनों के माध्यम से उन्हें टेक्सचर का आभास भी कराती हूं। इससे वे भिन्न-भिन्न सर्फेस के बारे में जान पाते हैं। फिलहाल, कर्नाटक के अलावा महाराष्ट्र में खिलौनों की आपूर्ति कर रही हूं।

इनपुट : वाराणसी से मुकेश चंद्र श्रीवास्तव, चित्रकूट से हेमराज कश्यप, भोपाल से शशिकांत तिवारी, पटना से जयशंकर

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