सूचना संसार को संकट में डाल रहीं फर्जी खबरें, सूचना के सिपाही जलाएंगे उम्मीद की अलख

Fake News देश की सर्वोच्च अदालत फर्जी खबरों से नाराज है। ये वे खबरें हैं जिनका सरोकार जनता से या उसके मुद्दों से नहीं बल्कि कुछ खास एजेंडों से है। ये खबरें वैसी हैं जिनके पीछे कोई मकसद तो है पर वह छिपा हुआ है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 08 Sep 2021 10:35 AM (IST) Updated:Wed, 08 Sep 2021 10:35 AM (IST)
सूचना संसार को संकट में डाल रहीं फर्जी खबरें, सूचना के सिपाही जलाएंगे उम्मीद की अलख
स्मार्ट फोन के चलन में आने के बाद तेज हुआ है फर्जी खबरों का प्रसार। प्रतीकात्मक

डा. संजय वर्मा। Fake News देश की शीर्ष अदालत ने पिछले दिनों जमीयत उलेमा-ए-हिंद एवं संबंधित अन्य याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया का एक वर्ग जिन खबरों का प्रचार-प्रसार कर रहा है, वह बुरी तरह सांप्रदायिकता से ग्रस्त है। यह वर्ग इतना शक्तिशाली है कि उसे सरकार या अदालत-किसी की फिक्र नहीं है। इसके अलावा खासतौर से इंटरनेट मीडिया के मंचों और तमाम वेबसाइटों पर ऐसी फर्जी खबरें चलाई जा रही हैं, जो अंतत: देश की छवि खराब कर रही हैं। चूंकि अभी यूट्यूब, ट्विटर, फेसबुक समेत कथित ‘न्यू मीडिया’ के तहत चैनल बनाने-चलाने के लिए किसी ठोस कानूनी प्रक्रिया को अपनाने या लाइसेंस की जरूरत नहीं है, इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी की ओट में चलने वाली नागरिक पत्रकारिता के कई विद्रूप भी सामने आने लगे हैं।

इन मंचों पर मौजूद लोगों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनका मूल काम समाज में नफरत रोपना, सांप्रदायिकता भरा विष वमन करना और कट्टर धार्मिक मान्यताओं का प्रचार-प्रसार करना है। हालांकि मुख्यधारा के मीडिया (विशेषत: कुछ टीवी चैनलों) में भी कुछ ऐसे लोगों की मौजूदगी है, जिससे सरकार भी खुद कठघरे में आती है। लिहाजा अदालत ने यह सवाल केंद्र सरकार से पूछा है कि सामाजिक वैमनस्य और कट्टर मजहबी मान्यताओं को प्रश्रय देने वाले निजी टीवी चैनलों के खिलाफ आखिर उसने क्या कदम उठाए हैं? ये सवाल आज इसलिए ज्यादा प्रासंगिक हैं, क्योंकि कोरोना वायरस के प्रसार के साथ फैली महामारी (पैनडेमिक) कोविड-19 के दौर में दुनिया को सूचना की महामारी यानी इन्फोडेमिक से भी जूझना पड़ रहा है।

फैल रही सूचना की महामारी : वैसे तो फर्जी खबरों का एक रोचक इतिहास भी रहा है। करीब 80 साल पहले 30 अक्टूबर, 1938 को अमेरिका में जब प्रख्यात विज्ञान गल्पकार एचजी वेल्स द्वारा रचित ‘द वार आफ द वर्ल्ड्स’ का प्रसारण इस रूप में किया गया कि मंगल ग्रह के निवासियों ने पृथ्वी पर हमला कर दिया है तो अचरज के साथ अमेरिका में दहशत का माहौल भी बन गया था। रोचकता के लिए रचे जाने वाले ऐसे प्रसंगों में इंटरनेट मीडिया के अभ्युदय के साथ फर्जी खबरों का जो एक सिलसिला पैदा हुआ, उसने खुद पूरे सूचना जगत के लिए नए संकट खड़े कर दिए हैं। हाल के दशक में पूरी दुनिया के साथ हमारे देश में भी अनेक अवसरों पर ऐसी सूचनाओं का भंडाफोड़ हुआ है, जिनमें कोई न कोई विभाजनकारी एजेंडा निहित था।

कोरोना वायरस के दौर में इस बीमारी ने बहुत ज्यादा विस्तार पा लिया और यही वजह है कि इसे सूचना महामारी (इन्फोडेमिक) की उपाधि दी जा रही है। अपने देश में इसकी बढ़ोतरी के सूत्र तलाशें तो नजर मार्च 2020 में दिल्ली में तबलीगी जमात के जमावड़े पर जाती है। उस जमावड़े को इंटरनेट मीडिया ही नहीं, मुख्यधारा के मीडिया के दिग्गजों तक ने कोरोना वायरस के ‘सुपरस्प्रेडर’ के रूप में चिह्न्ति करने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं, इस सूचना के साथ तबलीगी जमात से जुड़ी फर्जी खबरें इतने बड़े पैमाने पर फैलाई गईं कि उनसे मुस्लिम समाज ने खुद को आहत और बदनाम होते हुए महसूस किया। इसी पीड़ा के तहत जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट को दी अपनी याचिका में तबलीगी जमात के खिलाफ फर्जी खबरें फैलाने वालों पर कार्रवाई करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने का अनुरोध किया था। कुछ ऐसी ही पीड़ा हिंदू समाज से जुड़े लोगों ने तब महसूस की जब इस साल (2021 में) हरिद्वार में आयोजित कुंभ मेले में जुटे श्रद्धालुओं को कोरोना के प्रसारकों के रूप में प्रचारित किया गया। जबकि सच्चाई यह है कि सरकार और प्रशासन ने वहां पहुंचने वाले हरेक व्यक्ति के लिए कोरोना टीकाकरण और शारीरिक दूरी जैसी व्यवस्थाएं की थीं।

नि:संदेह सूचना के स्वस्थ प्रचार-प्रसार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कायदे के मद्देनजर केंद्र सरकार ऐसे मामलों में सूचना को रोकने का एकतरफा आदेश जारी नहीं कर सकती। ऐसे मामले में केंद्र सरकार का यह तर्क विवेकपूर्ण है कि ऐसा करने का अर्थ नागरिकों की जानने की स्वतंत्रता और एक सूचित समाज सुनिश्चित करने के लिए पत्रकारों के अधिकार को प्रभावी ढंग से नष्ट कर देगा। सवाल है कि आखिर क्या किया जाए? इस संबंध में पहली जरूरत है कि समस्या की जड़ को पहचाना जाए। इस सिलसिले में जरूरी है कि इंटरनेट मीडिया के प्रसार और मीडिया की अतिसक्रियता वाले पहलू पर नजर डाली जाए जहां सूचना को जानने और आगे बढ़ाने की जल्दबाजी दिखाई देती है।

मुख्यधारा के मीडिया में शामिल कुछ टीवी न्यूज चैनल टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने की कोशिश में प्राप्त हुई सूचनाओं के स्नेत और वीडियो आदि की प्रामाणिकता की पुख्ता जांच करने की सावधानी भी नहीं बरतते हैं। उन्हें लगता है कि अगर उनके चैलन पर यह खबर प्रसारित नहीं हुई या फलां वीडियो नहीं दिखाया गया तो वे दूसरे टीवी चैनलों से पिछड़ जाएंगे। इसमें यूट्यूब, ट्विटर, फेसबुक जैसे इंटरनेट मीडिया के मंचों पर परोसी जाने वाली सामग्री ने कोढ़ में खाज वाली स्थिति पैदा कर दी है। स्थापित अखबारों, टीवी चैनलों या मुख्यधारा की न्यूज वेबसाइटों पर प्रसारित-प्रचारित सामग्री में काफी हद तक जनता के प्रति जो दायित्व बोध नजर आता है, वह इंटरनेट मीडिया पर सिरे से नदारद है। वहां न तो सूचनाओं के स्नेत की जांच-परख का कोई तंत्र है और न ही इसकी जिम्मेदारी समझी जा रही है। यह स्थिति निश्चय ही विस्फोटक है। इसलिए जल्द ही एक व्यवस्थित नियमन की स्थापना की जानी चाहिए है ताकि समूचे पत्रकारिता जगत को निराशाओं के दलदल में फंसने से बचाया जा सके और उम्मीद जगाने वाली पत्रकारिता को उसका स्थान दिलाया जा सके।

दुविधा से निकालने का रास्ता : इससे हर कोई इत्तफाक रखेगा कि पत्रकारिता में एक निराशा इंटरनेट मीडिया पर हावी होती फर्जी खबरों के कारण पैदा हुई है। फर्जी खबरें महामारी के खिलाफ छेड़ी गई जंग को भी मुश्किल बना रही हैं। कोरोना काल में अपना स्वार्थ साधने वाले जिस तरह इंटरनेट मीडिया का सहारा लेकर भ्रम और झूठ फैला रहे हैं, उन्हें इसका अहसास तक नहीं है कि अंतत: यह हरकत सार्थक काम करने वाले मीडिया जगत की विश्वसनीयता को ही संकट में डाल देगी।

यूं गूगल से लेकर वाट्सएप तक ने फर्जी खबरों की रोकथाम के कई प्रबंध किए हैं, लेकिन कोरोना काल में इंटरनेट मीडिया के रास्ते गहरा गए फेक न्यूज के रोग ने आम लोगों को इस दुविधा में डाल दिया है कि वे किसे सही मानें और किसे गलत। फर्जी सूचनाएं फैलाने वाली वेबसाइटों को प्रतिबंधित करना एक तरीका हो सकता है, लेकिन यह समाधान नहीं है, क्योंकि एक रास्ता बंद होता है तो दूसरे कई रास्ते खुल जाते हैं। पाबंदी से सूचना के कई विश्वसनीय स्नेत भी संकट में पड़ते हैं। ऐसे में जरूरत है कि एक तरफ मुख्यधारा का मीडिया स्व-नियमन (सेल्फ सेंसरशिप) के फार्मूले पर सख्ती से अमल करे। कोई शक नहीं कि कई जिम्मेदार मीडिया ऐसा करते हैं, लेकिन उनकी यह पहलकदमी ऐसा नहीं करने वाले मीडिया संगठनों में ज्यादा कर्तव्यबोध नहीं जगा सकी है।

ऐसे में सेल्फ सेंसरशिप सिर्फ अनुरोध या उपदेश की वस्तु न रहकर कुछ अंशों में एक बाध्यकारी व्यवस्था के रूप में लागू हो सके तो ज्यादा बेहतर होगा। इसी तरह नियमित सलाह देने और निगरानी का तंत्र बनाने की जरूरत इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों के संदर्भ में भी है, बल्कि वहां इसे कानून बनाकर और बाध्यकारी बनाकर सख्ती से अमल में लाया जाए। ऐसी व्यवस्था बनाने के उद्देश्य के पीछे इस मान्यता को ध्यान में रखना है कि वैमनस्य फैलाने वाले और विभाजनकारी एजेंडा के साथ खबरों का प्रचार-प्रसार करने वाले लोग अंतत: हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करते हैं और कानून-व्यवस्था का संकट पैदा करते हैं। इसलिए ऐसी किसी सामग्री को जबरन हटाना हर दृष्ट से उचित होगा।

विज्ञापनों के जोर पर और अभिव्यक्ति की बंदिशों से जुड़े कानूनी प्रविधानों के तहत मीडिया के हाथ-पांव बांधने की कोशिश सतत चलती रही है। सरकारी निजामों, नेताओं और रसूखदारों के खिलाफ बोलने-लिखने पर पत्रकारों की पिटाई और कुछेक मामलों में आपराधिक किस्म की हरकतों से उन्हें भयभीत करने का सिलसिला भी किसी न किसी रूप में कायम रहा है, लेकिन इसके बाद भी पत्रकार अपनी बात आम जनता से लेकर ऊंची संवैधानिक संस्थाओं तक पहुंचाते रहे हैं।

आवाज को दबाने-कुचलने के तमाम प्रयासों के बावजूद पत्रकार ही हैं, जो अपना काम पूरी कर्मठता और साहस के साथ करते रहे हैं। मामला चाहे शाहीन बाग, नागरिकता संशोधन कानून और कृषि कानूनों को लेकर चलते रहे देशव्यापी प्रदर्शनों का हो या फिर लाकडाउन में सबसे ज्यादा पीड़ित प्रवासी मजदूरों की व्यथा का, लोग यह बात दावे से कह सकते हैं कि वंचितों-पीड़ितों की बात सामने लाने और उन्हें अंतत: न्याय दिलाने की एक मजबूत कड़ी के रूप में पत्रकार ही आगे आए हैं, लेकिन ये दायित्व निभाने पर भी शायद अब वह मौका आ गया है जब पत्रकारिता की सबसे बड़ी परीक्षा होनी है। इस परीक्षा से जुड़ा सवाल हाल में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए उठाया है कि देश में समाचार चैनलों के एक वर्ग द्वारा हर चीज सांप्रदायिकता के पहलू से दिखाई जा रही है, जिससे देश की छवि खराब हो रही है। तो क्यों नहीं केंद्र सरकार ऐसे निजी चैनलों के नियमन की कोशिश कर रही है?

अदालत की चिंता यूट्यूब समेत अन्य इंटरनेट मीडिया मंचों को लेकर भी है, क्योंकि वहां फर्जी खबरों की भरमार है और उन पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं है। उल्लेखनीय है कि इंटरनेट मीडिया, वेब पोर्टल्स समेत आनलाइन सामग्री के नियमन के लिए हाल में सूचना प्रौद्योगिकी नियमों को लागू किया गया है, जिनकी वैधता के खिलाफ विभिन्न उच्च न्यायालयों से लंबित याचिकाओं को सर्वोच्च अदालत में स्थानांतरित करने के लिए केंद्र ने याचिका दी है। सर्वोच्च अदालत इन पर छह हफ्ते बाद सुनवाई करेगी। यह देश का दुर्भाग्य है कि जो काम कार्यपालिका को करना चाहिए, वह न्यायपालिका को करना पड़ रहा है। फिर भी उम्मीद है कि पत्रकारिता जगत को अंतत: अपना दायित्व बोध याद आएगा।

[एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा]

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